प्यार के इन्द्रधुनष - 38 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 38

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मानव-स्वभाव ऐसा है कि जवानी में पति-पत्नी की इच्छा होती है नितान्त एकान्त की और प्रौढ़ावस्था के गुजरते-गुजरते जब बच्चे बड़े होकर जीवन में नई राहों की तलाश में निकल पड़ते हैं तो उन्हीं पति-पत्नी को अकेलापन खलने लगते है। और बहुधा ऐसा अकेलापन बीमारियों का वायस बन जाता है व जीवन अभिशप्त लगने लगता है। गाँव में रहते हुए हरलाल के साथ भी यही हुआ था। लेकिन शहर में आकर निरन्तर उचित चिकित्सा, देखभाल तथा डॉ. वर्मा की अंतरंग मंडली विशेषकर स्पन्दन के सान्निध्य ने हरलाल को कुछ ही दिनों में चंगा-भला कर दिया। स्पन्दन अधिकतर डॉ. वर्मा के पास ही रहती। इसलिए हरलाल का मन यहाँ इतना रम गया कि अस्पताल से घर आने के बाद परमेश्वरी के कई बार कहने के बावजूद उसकी गाँव लौटने की क़तई इच्छा न होती थी। सप्ताह में एक बार गाँव से ताज़ा सब्ज़ियाँ आ जाती थी, जिससे तीनों घरों की ज़रूरतें पूरी हो जाती थी।

चाहे मनमोहन सप्ताह में एक-आध बार फ़ोन करके उसका तथा बच्चों का हाल-चाल पूछ लेता था, फिर भी जब डॉ. वर्मा स्पन्दन को अपने पास रोक लेती तो रेनु नन्हे की उपस्थिति के बावजूद घर में होती हुई भी अकेलापन महसूस करती। ऐसे ही एक दिन रेनु ने स्वयं रात के समय मनमोहन को फ़ोन किया तो बातें करते-करते भावुक होकर रोने लगी। मनमोहन ने उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा - ‘अब थोड़े दिनों का ही वियोग है। ट्रेनिंग पूरी होते ही पोस्टिंग वाले शहर में इकट्ठे रहेंगे। जहाँ तक गुड्डू का सवाल है, वह तो वृंदा को हो चुकी। उसका मोह आज नहीं तो कल, छोड़ना ही पड़ेगा।’

‘आप पुरुष हैं। तभी इतनी सहजता से कह दिया। मैं माँ हूँ। मैंने नौ महीने उसे अपनी कोख में रखकर जन्म दिया है। जैसे-जैसे वह दिन नज़दीक आ रहा है, मेरे अन्तस् में ख़ालीपन का अहसास होने लगा है। यह अहसास पहली बार उस दिन हुआ जब मैंने गुड्डू को विमल और अनिता को नमस्ते करने के लिए कहते हुए कहा - चाचा-चाची को नमस्ते करो बेटा। और डॉ. दीदी ने तुरन्त टोक दिया, कहा - चाचा-चाची नहीं, मामा-मामी कहो।’

‘रेनु, तुम अपनी जगह ठीक हो। लेकिन कभी स्वयं को वृंदा के रूप में देखो तो तुम समझ जाओगी कि वृंदा ने ऐसा क्यों किया या वह करती है।’

‘क्या आपको ट्रेनिंग में बिल्कुल भी छुट्टी नहीं मिलती? अगर हो सके तो एक-आध दिन के लिए आ जाओ, मेरे लिए नहीं तो अपने बच्चों के लिये ही आ जाओ। गुड्डू आपके बारे में तरह-तरह के सवाल करने लगी है।’

‘रेनु, यह क्या कह रही हो - अपने बच्चों के लिये? बच्चे मेरे अकेले के नहीं, हम दोनों के हैं, हमारे हैं। हताशा में होश नहीं खोना चाहिए। मैं आऊँगा तो तुम सब के लिए आऊँगा; न अकेली रेनु के लिए, न अकेले बच्चों के लिए। तुम अब एक अफ़सर की बीवी हो। तुम्हारी ज़ुबान से निकले शब्दों का कोई ग़लत अर्थ न निकाले, तुम्हें ख़्याल रखना होगा।’

‘मैं आपकी बराबरी तो नहीं कर सकती, लेकिन मैंने तो जो कहा, वो एक अफ़सर पति के लिए नहीं, सिर्फ़ अपने पति, अपने ‘राजा’ के लिए कहा, किसी अन्य के सामने थोड़े ना ऐसे बोलूँगी।’

‘शाबाश मेरी रानी। मुझे तुमसे यही उम्मीद है। बाय-बाय, गुड नाइट।’

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