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चिकोटी

वर-वधू घर पर ही हैं ना?

दरवाजे पर बहू की बड़ी दो बहनें अपने बच्चों के साथ खड़ी थी ।

आइए, उन्होंने मुस्कराने की चेष्टा की । बहू के परिवार का कोई भी सदस्य उन्हें न भाता ।

आज छुट्टी हो ठहरी, बड़ी वाली बोली, बाहर घूमने भी तो जा सकते थे....

बहू उसी टैक्सटाइल मिल में पैकर थी जहाँ बेटा करघा चलाता था । बहू से बेटा वही मिला था । पिछले साल । मिलने के तीसरे माह ही उसे ब्याह लाया था ।

बहू के पिता एक मामूली दरजी थे और छह बेटियों के पुत्रविहीन उस परिवार में सभी ने उस का स्वागत किया था ।

जीजी ? जीजी ? बहू बाहर लपक आयी । वैसे दोपहर में घर रहने पर बहू एक लम्बी नींद लिया करती । निर्विघ्न । कहती, मेरी नींद में विघ्न पड़ जाए, तो कमबख्त सिर दर्द पीछे लग जाता है...

कैसी है ? एक बड़ी बहन ने पूछा ।

कैसी है ? दूसरी ने पूछा ।

दोनों बहनें बारी बारी उस से चिपक लीं ।

नीतू मौसी, साथ आए पाँच बच्चों में से किसी एक ने कहा, आज हम फिर पेस्ट्री खायेंगे...

चुप, बहू ने बच्चे को एक चिकोटी काटी । उस की गाल पर ।

चिकोटी काटने की आदत उस परिवार में सभी को थी । जब भी उनमें से किसी को संदेह होता उनका कोई भेद खुलने जा रहा है, तो झट कहीं से एक अँगूठा तथा उँगली उठते और कहने वाले के मुँह पर ठक्कन लगा देते । इस बात की परवाह किसे थी चिकोटी सब की आँखों के सामने काटी जाती थी ।

अम्मा, चाय बना लाओ, बेटा भी आन उपस्थित हुआ ।

वह समझ गयीं । उन्हें वहाँ से हटाने के लिए ऐसा कहा गया था । वह रसोई में चली आयीं ।

अम्मा, कुछ पकौड़े भी बना लाना, बेटा वहीं से चिल्लाया ।

बेटा बहू की मूठ में था । उसी की मनोदशा व सुविधा देख कर सोता-जागता, नहाता-धोता, हँसता-गाता ।

खाली पकौड़ों से नहीं चलेगा, भई, पहली वाली बड़ी बहन ठुमकी, हम तो पूरी दावत खाएँगे......

हाँ, भई, दूसरी वाली ने जोड़ा तुम्हारा वेतनमान बढ़ा है । तुम्हें खुशी तो बाँटनी ही पड़ेगी.......

धीरे बालो, बहू बिफरी, इनकी अम्मा इसी तरफ कान घरे बैठी है । उसे पता चला इनकी तनख्वाह बढ़ी है तो वह दिन में दस बार चाय पीने लगेगी.......

जब से बहू ने जाना था, उन्हें चाय अच्छी लगती थी, वह उनकी चाय में व्यवधान जरूर डालती । यदि उनकी चाय गैस पर तैयार हो रही होती, तो वह कभी उन्हें, अपना दुपट्टा इस्त्री करने को बोल देती या फिर यही कि, मेरे बाल तो बनाइए आज, सासू माँ । कैसे रूखे-उलझे बैठे हैं ।

बहू ने उन्हें अम्मा कभी नहीं पुकारा था । उन की पीठ, पीछे बेटे से कहती, तुम्हारी अम्मा, और सामने सासू माँ ।

कुछ लाना तो नहीं, अम्मा? कोलाहल को अपने कमरे में स्थापित करते ही बेटा उनके पास रसोई में चला आया ।

क्या बाजार जा रहे हो ? बेटे के संग उनकी साझेदारी बनी रही थी ।

डसी सन 2000 से, जब एक सिनेमा में गेटकीपर रहे, उस के पिता अपनी नौकरी गँवा बैठे थे । सिनेमा हाल तोड़ा जाना था । व्यावसायिक एक बाजार को जगह देने हेतु । छिटपुट कई नौकरियाँ फिर उन्होंने पकड़ी थीं और छोड़ी थीं और फिर एक सुबह घर से निकले, तो लौटे नहीं । माँ-बेटे ने खोजबीन जो की भी, सो निष्फल ही रही । वह लापता के लापता ही रहे । बेटा उस समय कुल जमा दस साल का था, मगर भर की सिलाई तो वह पति के रहते भी सँम्भाले थी, साथ कुछ घरों में खाना बनाने का काम भी पकड़ ली थी । उधर बेटे ने स्कूल के बाद दुकानदारों के यहाँ हाथ बँटाने का काम शुरू कर दिया था । अपनी दसवीं जमात के बाद वह स्थानीय आई.टी.आई., औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, से एक सालाना कोर्स करने का इरादा रखता था और उसे अपनी फीस अपने बूते पर प्राप्त करनी थी। करघा-चालक की यह नौकरी बेटे को उसी के आधार पर फिर मिली भी । उस का कोर्स खत्म होते ही ।

हाँ, बेटा झेंप गया, सोचता हूँ मुझे इन्हें अच्छा जलपान करवा ही देना चाहिए । वहाँ इन लोग के घर जाता हूँ तो अच्छी-खासी खारित पाता हूँ ..... वह चुप रहीं ।

तुम पकौड़े तैयार करो, अम्मा, बेटे ने उन की पीठ सहलायी मैं कुछ मीठा ले कर अभी आया......

न चाहते हुए भी उन्होंने बेसन फेटा, आलू और प्याज काटा ।

गैस पर तेल अभी गरम हो ही रहा था कि बहू दबे पाँव रसोई में आ घूसी ।

बिना एक शब्द बोले उसने मेहमानों के लिए अलग खरीदे गए बरतन एक ट्रे उठा कर वापिस चल दी ।

तेल का धुँआ अंधी हो रही उनकी आँखों से टकराया और उनकी आँखों से पानी टपक पड़ा ।

अम्मा, यह तुम्हारे लिए है, बेटा जब भी बाजार जाता उनके लिए एक लिफाफा अलग से अवश्य लाता । कभी उसमें बेसन भुजिया रहती, तो कभी बेसन लड्डू । उनके मनभावन ।

मैं अभी चाय के साथ पकौड़े लाती हूँ, लिफाफे ने उन्हें गुदगुदा दिया । उनका सारा रोष लुप्त हो चला ।

कोई जल्दी नहीं है, बेटे ने जग में पानी लिया और अपने कमरे की ओर बढ़ चला ।

उन्होंने बेटे वाला लिफाफा अपनी साड़ी की ओट में ले लिया ।

हँसी की, चुगली की, खिल्ली की, प्यार-मनुहार की आवाजें लिफाफों की, प्लेटों की, गिलासों की खड़-खड़ाहट उनके खानों से कई बार टकरायीं, परन्तु वह अपनी धुन से पकौड़े बनाती रहीं, चाय तैयार करती रहीं ।

अम्मा, तुम ने अपना लिफाफा नहीं खोला? बेटा फिर उनके पास चला आया ।

आभी देखती हूँ, वह मुस्कुरायीं ।

चाय मैं ले जाता हूँ, बेटे ने गैस के दूसरे चूल्हे पर तैयार हो चुकी चाय की केतली में छान ली ।

अच्छा अम्मा, बेटे ने केतली वाली ट्रे में पकौड़ों की प्लेट भी रख ली ।

क्या पकौड़े और भी हैं ? कुछ समय बाद बहू रसोई में आन धमकी ।

हैं तो......

बहू ने एक बड़ी तश्तरी में बन चुके पकौड़े भरे और बोली चाय अभी और बनानी होगी।

ठीक है, उन्होंने सिर हिला दिया ।

बहू के लोप होते ही उन्होंने अपना लिफाफा खोला ।

उसमें चार बेसन लडू थे और चार छोटे समोसे । भुनी दाल के ।

वह हँस पड़ी । इस बार लिफाफे का सामान पर्याप्त से कहीं अधिक था । इसमें कोई अन्य भागीदार के न रहने पर वह कई दिन तक अपना मुँह भरती रहेगी ।

जब तक चाय तैयार हुई, फेटा हुआ बेसन चुक गया । उन्होंने अपने हाथ धोए, अपना लिफाफा उठाया और उसे रसोई के उस कोने में टिका दिया जहाँ उन का निजी सामान रखा रहता ।

अब वह रसोई ही में बैठतीं-उठती, सोती-जागती । उनका बिछौना भी यहीं, बैठक भी यहीं ।

उन माँ-बेटे के रहन-सहन में बहू की उपस्थिति कई परिवर्तन ले कर आयी थी ।

कुछ परिवर्तन बहू ने घर में प्रवेश पाने से पहले किए थे और कुछ बाद में ।

मकान-मालिक की पिछली चार-दीवारी की ओट में बना दो कमरों का यह उनका मकान एक खुले बरामदे में खुलता था । बरामदे के एक ओर रसोई-घर था और दूसरी और नहान-घर था । कमरे उन्हीं की अगल-बगल  रखे गए थे । एक कमरा वह सामूहिक स्थल था जहाँ बत्तीस साल की उनकी घर-गृहस्थी की सभी चीजें धरी थीं । सांयोगिक व असांयोगिक, दोनों ही ।

बेटे के कमरे में डबल-बेड और टी.बी. बहू के प्रवेश से पहले आए थे । बेटे की जेब से ।

दूसरे कमरे में बहू ने उठा-पटक अपने प्रवेश के बाद की थी । उस कमरे में रही घर की एकमात्र आलमारी खाली करवायी थी और बेटे के कमरे में जा टिकायी थी ।

कैसा मकान है । दीवार ही दीवार है । एक आला तक नहीं !!

फिर उसने बिछे उनके तख्त को नजर में उतारा था, और उस का बिछौना हटा कर उस पर नए गद्दे और गद्दियाँ ला बिछायी बैठने की जगह तो ढंग की होनी ही चाहिए...

वह कुछ न बोली थीं । तख्त के नीचे टीन के जो दो खाली बक्से घरे रहे, उन्हें खींची थी, अपनी निजी वस्तुएँ उन में भरी थीं और रसोई में खिसक आयी थीं ।

रसोई ऐसी छोटी भी नहीं, बहू ने बेटे से कहा था, और फिर बरामदा है, खुला और खाली......

चाय मैं ले जाता हूँ, बेटा फिर रसोई में आ गया, पकौड़े बहुत अच्छे बने हैं, अम्मा ।

अच्छा, उनकी बाँछें खिल गयीं, ये भी लेते जाओ ।

नहीं, अम्मा । अब और वहाँ नहीं चलेंगे । तुम भी तो कुछ खाओ न ।

ये ज्यादा हैं । मुझ से खत्म न होंगे वह हँसी ।

न्हीं, नहीं, तुम खाओ..... बेटे ने एक बड़े गिलास में उनके लिए चाय उड़ेली और बाकी चाय केतली में लेकर पलट लिया ।

पकौड़े वाकई बहुत अच्छे बने थे ।

वह दूसरा पकौड़ा उठा न पायीं ।

प्लेट लेकर बेटे के कमरे में चली आयीं ।

जैसे ही उन्होंने कमरे में प्रवेश किया, कमरे के तूफानी हुल्लड़ व समारोही आमोद-प्रमोद पर अकस्मात विराम चिह्न लग गया ।

सारा शोरगुल थम गया । बच्चे समेत सभी सकपका गए ।

पकौड़ों की दोनों भरी प्लेटों को छोड़ कर मेज पर रखी सभी प्लेटें खाली थीं ।

पास वाले बिस्तर पर रखे तमाम मुड़े-तुड़े लिफाफे तथा खुले डिब्बे भी खाली थे ।

पकौड़ों में मिर्च बहुत तीखी रहीं, बहू ने अपनी एक बड़ी बहन के चिकोटी काटी, इसीलिए खाए ही न गए.....

ठीक है, वह धीरे से बुदबुदायी और हाथ वाली पकौड़ों की प्लेट रसोई में लौटा लायीं।

पकौड़े उन्होंने भी नहीं खाए । दो समोसे और एक लड्डू ही चाय के साथ लिए ।

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