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औपनिवेशिक मानसिकता - भारत के विकास में चुनौती - 1

उपनिवेशवाद
उपनिवेश (कालोनी) किसी राज्य के निवासियों द्वारा अलग (अपने देश के बाहर) किसी दूरस्थ स्थान पर बसाई गई बस्ती को कहते हैं । किसी पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य (सावरेन स्टेट) के लोगों के अन्य देश की सीमा में जाकर बसने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है। इस अर्थ में अधिकतर यूरोपीय देशों के "उपनिवेश" लंदन में स्थित हैं; क्योंकि औद्योगिक क्रांति के समय लंदन एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था,जहां से पूरे विश्व का व्यापार नियंत्रित होता था।
परंतु साधारणत: अधिक संकुचित अर्थ में ही इस शब्द का अधिकतर प्रयोग होता है- एक राज्य के निवासियों की अपने राज्य को भौगोलिक सीमाओं के बाहर अन्य स्थान पर बसी बस्ती को तब तक उपनिवेश कहते हैं, जब तक वह स्थान उस राज्य के ही प्रशासकीय क्षेत्र में आता हो। अर्थात एक राज्य के निवासियों द्वारा अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के बाहर अन्य स्थान पर बसी या बसाई गई बस्ती पर प्रशासकीय अधिकार कर लिया हो।
उपनिवेश की यह प्रक्रिया उपनिवेशवाद कहलाने लगा।

उपनिवेशवाद का अर्थ है - किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किंतु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना।उपनिवेशवाद में उपनिवेश की जनता एक विदेशी राष्ट्र द्वारा शासित होती है, उसे शासन में कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होता।
आर्गन्सकी के अनुसार,‘‘वे सभी क्षेत्र उपनिवेशों के तहत आते हैं जो विदेशी सत्ता द्वारा शासित हैं एवं जिनके निवासियों को पूरे राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं।’’
वस्तुतः हम किसी शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा निहित स्वार्थवश किसी निर्बल राष्ट्र के शोषण को उपनिवेशवाद कह सकते हैं।
लैटिन भाषा के शब्द ‘कोलोनिया’ का मतलब है एक ऐसी जायदाद जिसे योजनाबद्ध ढंग से विदेशियों के बीच कायम किया गया हो। भूमध्यसागरीय क्षेत्र और मध्ययुगीन युरोप में इस तरह का उपनिवेशीकरण एक आम परिघटना थी। इसका उदाहरण मध्ययुग और आधुनिक युग की शुरुआती अवधि में इंग्लैण्ड की हुकूमत द्वारा वेल्स और आयरलैण्ड को उपनिवेश बनाने के रूप में दिया जाता है। लेकिन, जिस आधुनिक उपनिवेशवाद की यहाँ चर्चा की जा रही है उसका मतलब है यूरोपीय और अमेरिकी ताकतों द्वारा ग़ैर-पश्चिमी संस्कृतियों और राष्ट्रों पर ज़बरन कब्ज़ा करके वहाँ के राज-काज, प्रशासन, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, भाषा, धर्म, व्यवस्था और जीवन-शैली पर अपने विजातीय मूल्यों और संरचनाओं को थोपने की दीर्घकालीन प्रक्रिया। इस तरह के उपनिवेशवाद का एक स्रोत कोलम्बस और वास्कोडिगामा की यात्राओं को भी माना जाता है। उपनिवेशवाद के इतिहासकारों ने पन्द्रहवीं सदी यूरोपीय शक्तियों द्वारा किये साम्राज्यवादी विस्तार की परिघटना के विकास की शिनाख्त अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के रूप में की है। औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए हालात ने उपनिवेशवादी दोहन को अपने चरम पर पहुँचाया। यह सिलसिला बीसवीं सदी के मध्य तक चला जब वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों और क्रांतियों की लहर ने इसका अंत कर दिया। इस परिघटना की वैचारिक जड़ें वणिकवादी पूँजीवाद के विस्तार और उसके साथ-साथ विकसित हुई उदारतावादी व्यक्तिवाद की विचारधारा में देखी जा सकती हैं। किसी दूसरी धरती को अपना उपनिवेश बना लेने और स्वामित्व के भूखे व्यक्तिवाद में एक ही तरह की मूल प्रवृत्तियाँ निहित होती हैं। नस्लवाद, युरोकेंद्रीयता और विदेशी-द्वेष जैसी विकृतियाँ उपनिवेशवाद की ही देन हैं।

उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद होते हुए भी काफ़ी-कुछ परस्परव्यापी और परस्पर-निर्भर पद हैं। साम्राज्यवाद के लिए ज़रूरी नहीं है कि किसी देश पर कब्ज़ा किया जाए और वहाँ कब्ज़ा करने वाले अपने लोगों को भेज कर अपना प्रशासन कायम करें। इसके बिना भी साम्राज्यवादी केंद्र के प्रति अधीनस्थता के संबंध कायम किये जा सकते हैं। पर, उपनिवेशवाद के लिए ज़रूरी है कि विजित देश में अपनी कॉलोनी बसाई जाए, आक्रामक की विजितों बहुसंख्या प्रत्यक्ष के ज़रिये ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हुए अपने कानून और फ़ैसले आरोपित करें। ऐसा करने के लिए साम्राज्यवादी विस्तार को एक ख़ास विचारधारा का तर्क हासिल करना आवश्यक था। यह भूमिका सत्रहवीं सदी में प्रतिपादित जॉन लॉक के दर्शन ने निभाई। लॉकजन-संहार से बच गयी देशज जनता को उन्होंने अलग-थलग पड़े इलाकों में धकेल दिया। दूसरी तरफ़ वे उपनिवेश थे जिनका हवा-पानी यूरोपीयनों के लिए प्रतिकूल था (जैसे भारत और नाइजीरिया)। इन देशों पर कब्ज़ा करने के बाद यूरोपियन थोड़ी संख्या में ही वहाँ बसे और मुख्यतः आर्थिक शोषण और दोहन के लिए उन धरतियों का इस्तेमाल किया। न्यू इंग्लैण्ड सरीखे थोड़े-बहुत ऐसे उपनिवेश भी थे जिनकी स्थापना यूरोपीय इसाइयों ने धार्मिक आज़ादी की खोज में की।

उपनिवेशवाद को 15 वी शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक यूरोपीय लोगों द्वारा पवित्र कार्य की संज्ञा दी गई। उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण निम्नलिखित:-
- लाभ कमाने की लालसा
- मातृदेश (अपने देश ) की शक्ति बढ़ाना
- स्थानीय लोगों ( उपनिवेश के)का धर्म बदलकर अपने धर्म में शामिल करना
- व्यापार व वाणिज्यिक लाभ
- कार्य करने की प्रवृत्ति,
- बढ़ती हुई जनंसख्या के भार को कम करने की इच्छा,
- राजनीतिक पदलोलुपता,
- विद्रोहियों को देश से दूर रखने की आवश्यकता
- सांघातिक एवं भीषण अपराधियों को देश से निष्कासित करने की आवश्यकता
वास्तव में उपनिवेशवाद का अर्थ आधिपत्य, विस्थापन,मृत्यु था।
उपनिवेशवाद का आरंभ नए समुद्री मार्गों की खोज के साथ शुरू हुआ। 1453 में तुर्कों द्वारा ‘कुस्तुनतुनिया’ पर अधिकार के कारण यूरोपीय लोगों का एशियाई लोगों से व्यापार बंद हो गया अब नए समुद्री मार्गों की खोज होने लगी।कुतुबनुमा, गतिमापक यंत्र, वेध यंत्रों की सहायता से कोलम्बस, मैगलन एवं वास्कोडिगामा आदि साहसी नाविकों ने नवीन समुद्री मार्गों के साथ-साथ कुछ नवीन देशों अमेरिका आदि को खोज निकाला। इस कार्य में टैलेमी के पुस्तक अलमजेस्ट ने भी योगदान दिया । इस पुस्तक में स्थलीय भूभागो का क्षेत्रफल ,जलीय भी भाग से अधिक बताया गया था।जिसके कारण यूरोपीय लोग समुद्र को पार करने के लिए उत्सुक रहते थे।इन भौगोलिक खोजों के फलस्वरूप यूरोपीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। धन की बहुलता एवं स्वतंत्र राज्यों के उदय ने उद्योगों को बढ़ावा दिया। कई नवीन उद्योग शुरू हुए। स्पेन को अमेरिका रूपी एक ऐसी धन की कुंजी मिली कि वह समृद्धि के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। ईसाई-धर्म-प्रचारक भी धर्म प्रचार हेतु नये खोजे हुए देशों में जाने लगे। इस प्रकार अपने व्यापारिक हितों को साधने एवं धर्म प्रचार आदि के लिए यूरोपीय देश उपनिवेशों की स्थापना की ओर अग्रसर हुए और इस प्रकार यूरोप में उपनिवेश का आरंभ हुआ।

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