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बसेरा

दीपक शर्मा

शाम सात बजे बाबू जी अपने दफ्तर से लौटे तो उन्होंने मीना और मनोज को रोते हुए पाया- 'माँ अभी तक घर नहीं पहुँची हैं।
राकेश जरूर बाबू जी की स्कूटी की आवाज सुनते ही घर के अन्दर लपक लिया था। राग-आवेश का प्रदर्शन उसे कतई पसन्द न था। भाव-प्रवणता में अगर वह कभी बहता भी तो केवल कोप दिखलाने या रोष जतलाने।
'स्टॉप पर बस का पता किया? स्टॉप से वह बस माँ को सुबह ऐन आठ पच्चीस पर उठाती थी और शाम के ठीक पाँच पचपन पर छोड़ जाती थी। इस लोकल बस के फेरे के शुरू होते ही पिछले महीने से माँ अब टैम्पो छोड़कर बस में अपने संस्थान आने-जाने लगी थीं, जो वहाँ से बीस किलोमीटर की दूरी पर था। 'मैं वहाँ गया था, राकेश अन्दर से आ, निकला, कोई कुछ नहीं बताता...
स्टॉप की बगल में एक हलवाई की दुकान थी जो हर पन्द्रह-बीस मिनट पर बदल रहे अपने ग्राहकों को लेकर खूब मस्त रहता था। बाकी इधर जहाँ बाबू जी ने मकान बनवाया था, वहाँ अभी दूसरे नए मकान बन ही रहे थे।
'तुम भी वहाँ गयीं क्या? बाबू जी ने मीना से पूछा।
बहन-भाइयों में मीना बड़ी थी। तेरह साल की। राकेश बारह का था और मनोज पाँच का। 'नहीं मीना ने सिर हिला दिया। उस घबराहट में उन्हें याद दिलाना टाल गयी कि उन्हीं ने मीना को अपने स्कूल के बाद घर से निकलने के लिए मना कर रखा था।
'चलो, मेरे साथ चलो।
बाबू जी ने मीना से कहा, 'मालती भसीन के घर चलकर पता करते हैं।
माँ के सहकर्मियों में से वह केवल मालती भसीन के घर का पता ही जानते थे। माँ की तरह वह भी उसी संस्थान में क्लर्क थीं और उसी लोकल बस से संस्थान आती जाती थीं। उसका घर उनके घर से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर संस्थान की दिशा में था।
माँ की छुट्टी की अरजी देने बाबू जी वहीं जाया करते थे और जब भी जाते, मीना को संग ले कर जाते। माँ ही के कहने पर कि मालती भसीन बेचारी उधर अकेली रहती है। आप अकेले जाएँगे तो उसकी मकान मालकिन उसके लिए मुश्किल खड़ी कर देगी।
रास्ते में बाबू जी ने अपनी स्कूटी रोक कर हलवाई से बस की बाबत पूछा तो उसका  उत्तर मिला, हाँ! वह बस हमने दूर से आते हुए देखी जरूर थी, मगर उसे यहाँ रुकते हुए नहीं देखा।
'विमला आज मेरे साथ बस पर सवार न हुई थी। मालती भसीन उम्र में माँ से पाँच-छ: बरस छोटी लगती थीं लेकिन व्यवहार में बहुत तेज थीं, 'खाली होने में विमला को आज थोड़ा समय लग गया था और जैसे ही वह बस पर सवार होने को हुई, ड्राइवर बस आगे बढ़ा ले आया।
'मगर आपने जब उसे बस तक पहुँचते देख ही लिया था तो आपको बस रुकवा देनी चाहिए थी, बाबू जी की गरदन की नसें, तन गयीं और दोनों जबड़े भिंच गए। अजनबियों के संग वह बहुत जल्दी गुस्से में आ जाया करते।
'रुकाई थी, मालती भसीन थोड़ी उत्तेजित हो लीं, 'मैंने ही बस रुकवाई थी। पूरी कोशिश की थी विमला भी मेरे संग बस से घर पहुँच लें लेकिन बस ड्राइवर आज दुष्ट मूड में रहा। विमला लगभग दौड़ कर दोबारा बस तक पहुँची भी थीं लेकिन बस ड्राइवर ने बस फिर आगे बढ़ा ली थी। आप ऐसा नहीं करो, ड्राइवर से मैंने विनती की तो उसके पास बैठी कुछ सवारियाँ हँस पड़ी थीं। और ड्राइवर ने बस रोक कर विमला को पुकारा आइए मैडम, आप आज बस में बैठ क्यों नहीं रहीं?
'उधर स्तब्ध खड़ी विमला फिर दौड़ पड़ी थी। ड्राइवर और वे सवारियाँ ठठाने लगी थीं, जरा दम लगा कर दौड़िए। पूरा दम लगा कर दौड़िए। बस की तमाम खुली खिड़कियाँ और दोनों खुले दरवाजों पर सवारियाँ जमा होने लगी थीं और मैंने उन्हें फटकारा भी, 'यह कोई तमाशा है क्या?
'लेकिन मेरी बात का असर ऐन उल्टा हुआ था। इस तीसरी बार भी जैसे ही विमला बस में दाखिल होने को हुई ड्राइवर बस फिर आगे बढ़ा ले आया... चौथी बार उसके बस रोकने पर फिर न ही मैंने दिलचस्पी दिखाई और न विमला ने। खिड़की से मैंने विमला को उल्टी दिशा में कदम भरते हुए देखाÓ, कह कर मालती भसीन चुप हो गयी।
'घर चलें क्या? बाबू जी ने मीना से पूछा।
हाँ, 'मीना ने फौरन हामी भर दी। मालती भसीन की बात से बाबू जी की बढ़ रही अस्थिरता को उसने दूर भगाना चाहा, 'माँ ने जरूर टैम्पो कर लिया होगा, और अब घर पहुँच ही रही होंगी।
लेकिन जब वे घर लौटे तो माँ अभी भी घर न पहुँची थीं।
'माँ खो गयीं क्या? मनोज रोने लगा।
'खोएँगी कैसे? बाबू जी ने मनोज को अपनी गोदी में उठा लिया, 'तुम्हारे रहते? राकेश के रहते? आशा के रहते?
'आप और आपके रहते? मीना बाबू जी की पीठ से जा चिपकी।
बाबू जी के कन्धे खूब  चौड़े थे। बाँहें भी खूब तगड़ी थीं। एक ही बारी में वह राकेश और मनोज को अपने दाँए और बाँए कन्धों पर एक साथ आसानी से उठा लिए करते। अपनी पढ़ाई के दिनों में वह हाथ की कुश्ती में कई इनाम जीत चुके थे। 'भूख लगी है? बाबू जी ने मनोज से पूछा।
'हाँ, मनोज ने सिर हिलाया।
घर में खाना माँ ही बनाया करतीं, अपने संस्थान जाने से पहले और फिर संस्थान से लौटने पर। 'जब तक तुम चाय बनाओ, बाबू जी ने मीना की ओर देखा, 'मैं बाजार से कुछ लाता हूँ।
उन तीनों को बाबू जी ने मक्खन लगे बन के साथ सहज ही में चाय पी लेने को बोला और खुद बिना कुछ खाए-पिए बाहर निकल लिए। इस आदेश के साथ कि वे तीनों भाई-बहन खूब चौकस रहेंगे और घर का दरवाजा किसी भी बेगाने के लिए न खोलेंगे। आबादी के नाम पर अभी उस उजाड़ इलाके में दस-पाँच झुग्गियाँ ही थीं, जहाँ जिन्दगी भरण-पोषण के बिना गुजर जाती थी।
'माँ, यह ड्यूटी छोड़ क्यों नहीं देतीं? मालती भसीन की बात सुन कर मनोज पर रुलाई की जगह गुस्सा हावी होने लगा।
'छोड़ेंगी क्यों? मीना ने कहा, 'हमें वह अच्छा लालन-पालन देना चाहती हैं, दूर तक पढ़ाना चाहती हैं।
'मैं तो दूर तक न पढूँगा। राकेश ने कहा, 'इधर मेरी दसवीं खत्म हुई नहीं कि उधर मैंने अपनी दुकान खोली, नहीं।
'ताऊ जी जैसी? नौकरीशुदा बाबू जी के विपरीत उनके ताऊ जी पंसारी थे। उनकी दुकान उन्हें मुनाफा भी खूब अच्छा देती थी और हर दूसरे-तीसरे साल उनकी दुकान का सामान भी दुगुना होता जाता।
'फिर ताऊ जी? राकेश ने मनोज का कान उमेठ दिया।
उन परिवारजन में ताऊ जी के लिए केवल राकेश ही श्रद्धा रखता था। बल्कि इधर इस नयी आबादी में आने से पहले ताऊ जी की दुकान उनके पुराने मकान के एकदम सामने पड़ती थी फिर भी घर का सारा सामान बाबू जी दूसरी दुकान से ही लाया करते थे। ताऊ जी के यहाँ से भूलकर भी नहीं।
'दसवीं के बाद मुझे तो कॉलेज जाना है, भाइयों का ध्यान मीना ने बाँट देना चाहा,  'कॉलेज के बाद फिर यूनिवर्सिटी।
'चल चुप कर, राकेश और खीझ गया, लड़कियों को ज्यादा नहीं पढ़ना चाहिए।
'बाबू जी और माँ तो ऐसा नहीं कहते, मीना ने प्रतिवाद किया, 'ऐसा नहीं सोचते।
'उन्हें कुछ नहीं मालुम, राकेश बोला।
'तो फिर किसे मालुम है? मीना ने छेड़ा, 'ताऊ जी को?
ताऊ जी ने अपनी चार बेटियों में से पहली दोनों बेटियाँ अरह-उन्नीस साल की उम्र में ब्याह दी थीं। जवाब में राकेश अभी मीना पर झपटा ही था कि बाबू जी की स्कूटी घर के बाहर आन खड़ी हुई। माँ उनके साथ थीं। जिस टैम्पो पर सवार हो कर माँ संस्थान से चली थीं, उसकी ब्रेक दूसरे-तीसरे किलो मीटर पर फेल हो गयी थी। उनकी उस नयी आबादी की तरह संस्थान की तरफ भी डेढ़-दो किलोमीटर का रास्ता उजाड़ था और ऐसे में रास्ते में जो चार-पाँच टैम्पो माँ को आते-जाते दिखाई दिए भी थे वे सवारियों से भरे ही मिले थे।
ब्रेक को दुरुस्त करने में टैम्पो वाले को एक घंटा तो लगा ही था फिर आगे शहर की तरफ पहुँचने पर रास्ते में किसी एक जुलूस में जुटी भीड़ ने देर में और देर कर दी थी। 'देखा आपने? माँ को घर आया देख और रास्ते में सामने आए अवरोध का उल्लेख सुनते ही राकेश बाबू जी की तरफ मुड़ लिया, 'माँ को उधर इतनी दूर भेज देते हो। कोई कुछ भी तमाशा खड़ा कर दे तो?
'क्या बोल रहा है? मीना ने उसे टोका, 'माँ को बाबू जी उधर भेजते हैं? उनकी मर्जी शामिल नहीं?
'राकेश से बहस मत करो। बाबू जी राकेश से दब जाते थे। 'विमला के आने-जाने को लेकर उसकी चिन्ता सही ही तो है।
'चिन्ता सही है तो फिर आप उन्हें घर पर क्यों नहीं बिठलाते? राकेश चीखा।
'घर बैठ जाऊँगी तो तुम तीनों उन ऊँचे स्कूलों में पढ़ पाओगे क्या? माँ भी चीख पड़ीं। बद्मिजाजी में वह राकेश से कम न थीं। और वैसे भी जब भी अपने संस्थान से लौटतीं, बद्मिजाजी  को साथ लिए ही लौटतीं।
'हमें ऊँचे स्कूलों में नहीं पढ़ना। ऊँची पढ़ाई हमें ऐसे नहीं करनी...।
'इस नए समय में तो ऊँची पढ़ाई बहुत जरूरी है, बेटे, बाबू जी ने राकेश की पीठ घेरनी चाही, 'ऊँची पढ़ाई ही आपको अच्छा जीवनयापन दे सकती है।
'कहा न? मुझे ऊँची पढ़ाई नहीं चाहिए। अच्छा, जीवनयापन नहीं चाहिए, राकेश ने बाबू जी की बाँहें झटक दीं और उनसे दूर जा खड़ा हुआ।
'तो क्या चाहिए? माँ ने अपने हाथ हवा में लहराए। 'घर पर माँ  मिलनी चाहिए हर मिनट, हर पल। माँ नहीं मिल सकती। हर मिनट, हर पल घर पर माँ नहीं मिलेगी। माँ के हाथ-पैर, माँ के दिलोदिमाग का दायरा घर के कामकाज निपटाने तक सीमित नहीं रह सकता। उसे परिवार में आश्रित बन कर नहीं रहना है। एक सहभागी बनना है। माँ उत्तजित हो लीं।
'और इसमें हर्ज ही क्या है, बेटे? बाबू जी का गला भर आया, हम नए समय में रह रहे हैं। नए समय को अपने घर में बसेरा देना चाहते हैं। उसके पूरे उतार-चढ़ाव के साथ, पूरी सुविधा-असुविधा के साथ।
'मतलब? राकेश फिर चीखा, 'माँ कल भी उसी बस में जाएँगी?
'नहीं कतई नहीं बाबू जी ने सिर हिलाया, 'जब तक वह स्कूटी चलाने का अभ्यास करेंगी, मैं ही उसे अपनी स्कूटी पर वहाँ छोड़ने-लिवाने का काम करूँगा।
'स्कूटी का?Ó नींद की तरफ सरक रहा मनोज रोमानी रंग में रंगे बाबू जी के इस प्रस्ताव पर एकाएक उछल पड़ा, 'आप माँ के लिए दूसरी स्कूटी लेंगे?
'स्कूटी के लिए लोन तो मेरा संस्थान ही मुझे दे देगा, माँ ने गर्व से राकेश की ओर देखा।
'स्कूटी का अभ्यास तो तुम भी कर सकती हो, बाबू जी ने मीना से कहा, 'तुम साइकल जो अच्छा चला लेती हो।
'राकेश भी तो, मीना ने राकेश को पारिवारिक मस्ती के जोश में सम्मिलित करना चाहा। मीना और राकेश दोनों के पास अपनी-अपनी साइकल थी जिस पर वह अपने स्कूल जाया करते। मनोज भी उन्हीं के स्कूल में पढ़ता था तथा कभी मीना उसे पीछे बिठा लिया करती तो कभी राकेश।
'मुझे अभ्यास की कोई जरूरत नहीं, राकेश ने अपनी गरदन को एक बल खिलाया, 'बाबू जी की स्कूटी पर हाथ आजमा चुका हूँ।
'हाथ आजमाने के लिए मेरी स्कूटी भी तुम्हारे लिए हाजिर रहेगी। माँ अपनी बद्मिजाजी से बाहर आन निकलीं।
'देख लूँगा। राकेश भी मिलाप की मुद्रा में प्रविष्ट हो लिया।

बी-35, सेक्टर सी, अलीगंज,
लखनऊ - 226024 (उ.प्र.)

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