प्यार के इन्द्रधुनष - 31 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

प्यार के इन्द्रधुनष - 31

- 31 -

दीवाली का त्योहार त्रेता युग से मनाया जा रहा है। चौदह वर्षों के वनवास के अंतिम चरण में आसुरी शक्तियों के महानायक रावण का वध करने के पश्चात् भगवान् श्री रामचन्द्र, माता जानकी व शेषनाग के अवतार लक्ष्मण के अयोध्या पहुँचने पर समस्त प्रजा ने उनके स्वागत में दीपोत्सव मनाकर अपना हर्ष प्रकट किया था। तब से दीवाली ख़ुशियों के उत्सव के रूप में मनाने की परम्परा अनवरत चली आ रही है। इकलौती बेटी का आग्रह मानकर चौधरी हरलाल पत्नी सहित दीवाली से एक दिन पूर्व ही डॉ. वर्मा के पास आ गए थे। डॉ. वर्मा ने दीवाली की ख़ुशियाँ साझा करने की अपनी योजना पर पहले ही मनमोहन से विचार-विमर्श कर लिया था। उसी के अनुसार उसने घर को सजाया था।

दीवाली के दिन सबसे पहले पहुँचा मनमोहन रेनु और स्पन्दन को लेकर। मिलते ही डॉ. वर्मा ने स्पन्दन की ओर बाँहें फैलाईं। स्पन्दन ने भी उसे निराश नहीं किया। मनमोहन और रेनु ने हरलाल और परमेश्वरी के चरणस्पर्श किए। स्पन्दन साथ होने के कारण उन्हें पहचानने में कोई दिक़्क़त नहीं कि ये ही मनमोहन और रेनु हैं। इसलिए डॉ. वर्मा जब उनका परिचय करवाने लगी तो हरलाल ने कहा - ‘तुम्हीं मनमोहन हो ना?’

‘जी, अंकल जी। आपके दर्शन कर मैं गर्व महसूस कर रहा हूँ।’

‘ख़ुश रहो। परमात्मा तुम्हारी हर ख़्वाहिश पूरी करें।’

हरलाल के ऐसे आशीर्वाद का कारण था कि डॉ. वर्मा उन्हें बता चुकी थी कि मनमोहन आई.ई.एस. की परीक्षा में पहली सफलता प्राप्त करके दूसरे स्तर की परीक्षा देने वाला है। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार रेनु अपने साथ रंगोली बनाने का आवश्यक सामान लेकर आई थी, सो वह तो औपचारिक नमस्ते के आदान-प्रदान के पश्चात् रंगोली बनाने में जुट गई। जब नव-विवाहिता का श्रृंगार किये अनिता अकेली पहुँची तो डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘अनिता, विमल नहीं आया?’

‘दीदी, विमल तो शाम तक ही आ पाएँगे। त्योहार की वजह से पापा के साथ उनका दुकान पर रहना ज़रूरी है।..... रंगोली बड़ी सुन्दर बनी है। आपने बनाई है?’

‘यह कमाल तो रेनु का है। आते ही जुट गई थी। तुम्हारे आने से कुछ देर पहले ही फ़्री हुई है।’

तब अनिता ने रेनु जो उस समय रसोई में थी, के पास जाकर उसे दीवाली की शुभकामनाएँ और बढ़िया रंगोली के लिए बधाई दी। दोनों गले लगकर मिलीं।

रेनु - ‘बड़ी सुन्दर लग रही हो!’ साथ ही अपनी आँखों में लगे काजल से उँगली टच करके अनिता के कान के पीछे लगाते हुए कहा - ‘कहीं नज़र न लगे मेरी प्यारी देवरानी को।’

अनिता ने बेडरूम में झाँका। स्पन्दन बेड पर बैठी खिलौनों से खेल रही थी। अनिता उसे उठाने लगी तो वह रोने लग गई। स्पन्दन के रोने की आवाज़ सुनते ही डॉ. वर्मा बेडरूम में आई। उसने देखा कि अनिता को अपरिचित समझने के कारण स्पन्दन उसके पास न जाने के लिये रो रही है तो उसने कहा - ‘स्पन्दन बेटा, तुम्हारी मामी हैं। तुम्हें बहुत प्यार करेंगी।’

लेकिन स्पन्दन टस-से-मस न हुई। डॉ. वर्मा ने कहा - ‘अनिता, अभी इसे खेलने दो। थोड़ी और देर में फैमिलियर होने पर अपने आप तुम्हारे पास आ जाएगी।’

अनिता ने दुबारा उसे उठाने का प्रयत्न नहीं किया। उसके सिर पर हाथ फेरकर उसके गाल थपथपाए और डॉ. वर्मा से पूछा - ‘लंच के लिए कुछ करना हो तो बताओ दीदी।’

‘रसोई तो रेनु के हवाले है, उसी से पूछ लो।’

रेनु से जब अनिता ने पूछा तो जवाब मिला, सब कुछ तैयार है। तुम माँ जी के पास बैठो।’

हरलाल और मनमोहन तो पहले ही बातों में मशगूल थे। अनिता के आने पर परमेश्वरी जो अब तक अकेली बैठी थी, को भी बातें करने के लिए साथिन मिल गई। स्पन्दन इन्हीं के पास बैठी अपने खिलौनों के साथ खेलने में मग्न थी। खाना शुरू करने से पहले रेनु ने स्पन्दन को दूध के साथ परमेश्वरी द्वारा तैयार की गई चूरी खिलाई और उसे सुला दिया।

जब सब का खाना हो गया और स्पन्दन जाग गई तो सब दीवाली की रौनक़ देखने के लिए बाज़ार में आ गए। बाज़ार में बहुत भीड़ थी। कभी एक की बाँहों में तो कभी दूसरे की गोद में स्पन्दन दुकानों पर सजी रंग-बिरंगी झालरों तथा झिलमिलाती बेलों को देख-देख कर बहुत ख़ुश हो रही थी। रेडीमेड गारमेन्ट्स की दुकान के आगे से गुजरते हुए हरलाल ने डॉ. वर्मा को कहा - ‘वृंदा बेटे, गुड्डी के लिये हमारी ओर से बढ़िया-सी ड्रेस ले लो।’

‘पापा, आप ही पसन्द करो अपनी दोहती के लिए।’

‘बेटे, आजकल के फ़ैशन की तुम लोगों को अधिक जानकारी है। तुम्हीं देख लो।’

मनमोहन जो उनसे अलग चला गया था, फुलझड़ियाँ, चक्करियाँ तथा अनार आदि ख़रीद कर गारमेन्ट्स की दुकान पर ही पहुँच गया, जहाँ स्पन्दन के लिए ड्रेस पसन्द की जा रही थी। ड्रेस लेने के बाद मनमोहन की पहल पर सभी ने चाट भण्डार में प्रवेश किया और अपनी-अपनी पसन्द का ऑर्डर दिया। इस प्रकार बाज़ार में तीन घंटे का समय व्यतीत होते पता ही नहीं चला। दुकानों के आगे शामियाने लगे होने तथा त्योहार के कारण सूरज छिपने से पहले ही दुकानदारों ने बिजलियाँ जला ली थीं। डिज़ाइनर लाइटों की जगमगाहट को देखकर स्पन्दन गोद में उछल-उछलकर तथा हाथ ऊपर उठाकर अपनी समझ से उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रही थी। मनमोहन ने उसे डॉ. वर्मा की गोद से लेकर अपने कंधों पर बिठा लिया। आधेक घंटे बाद परमेश्वरी ने कहा - ‘वृंदा, अब हमें घर चलना चाहिए। दो वक़्त मिल रहे हैं, इस समय घर में भी रोशनी होनी चाहिए।’

‘वह तो वासु ने कर दी होगी माँ। फिर भी अब घर चलते हैं। लक्ष्मी-पूजन का समय भी हो रहा है।’

इन लोगों को कुछ ही देर हुई थी बाज़ार से लौटे हुए कि विमल भी आ गया। वह भी हरलाल और परमेश्वरी से पहली बार मिल रहा था। उन्होंने उसे विवाह की बधाई दी और सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए आशीर्वाद दिया। अनिता जो अब तक सबके साथ होते हुए भी अनमनी-सी थी, विमल के आने पर उसके चेहरे पर भी रौनक़ आ गई। इसे लक्ष्य करके डॉ. वर्मा ने कहा - ‘भइया, तुम्हारे आने से पहले भाभी बुझी-बुझी थी, तुम्हारे आते ही देखो ना, चेहरा कैसे खिल उठा है!’

‘दीदी, परिहास ही सही, लेकिन यदि यह सच है तो मुझे ख़ुशी है कि मैंने आपके विश्वास की लाज रखी है।’

‘अरे वाह भइया, बड़ी गहरी बात कह दी! तुम दोनों सदैव इसी तरह हँसते-मुस्कुराते रहो।’

मनमोहन जो डॉ. वर्मा के बेडरूम में स्पन्दन के साथ खेल रहा था, विमल को आया देखकर उनकी तरफ़ आ रहा था कि डॉ. वर्मा के कहे अंतिम शब्द उसके कानों में पड़े। उसने डॉ. वर्मा को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘बड़े-बड़े आशीर्वाद दिए जा रहे हैं। थोड़ा-बहुत इस नाचीज़ के लिए भी रख लेना।’

‘तुम्हारे लिए जो मेरे मन में है, उसको प्रकट करने की ज़रूरत नहीं।’

इसके बाद मनमोहन ख़ामोश हो गया तो विमल ने कहा - ‘अब बोलती बन्द क्यों हो गई मेरे भाई?’

‘भई, जब बहन-भाई एक तरफ़ हैं तो मेरी क्या औक़ात कि बहस में पड़ूँ? चलो, एक-एक कप चाय हो जाए। क्यों विमल, चाय तो पीओगे ना?’

‘हाँ भाई, मैं तो सोचकर ही आया था कि आप सबके साथ मिलकर चाय पीऊँगा।’

डॉ. वर्मा ने एक-एक करके सबसे चाय के लिए पूछा। उसके पापा और माँ ने मना कर दिया। तब उसने बाक़ी लोगों के लिए चाय बनाने के लिए वासु को कहा।

चाय पीते हुए डॉ. वर्मा ने कहा - ‘विमल, अंकल-आंटी जी भी आ जाते तो और अच्छा लगता।’

‘मैंने तो कहा था, किन्तु पापा कहने लगे कि त्योहार के दिन घर को ताला नहीं लगाना चाहिए जब तक कि कोई बहुत मज़बूरी न हो। इसलिए मैंने ज़्यादा ज़ोर नहीं डाला।’

मनमोहन - ‘फिर तो हमें भी घर पर रहना चाहिए था।’

विमल - ‘तुम्हारी बात और है। तुम्हारा एकल परिवार है, हमारा संयुक्त। पापा की बात एकल परिवार पर लागू नहीं होती। दीदी ने जब हम सब की ख़ुशी के लिए दीवाली इकट्ठे मनाने का फ़ैसला लिया है तो हम सब को तो आना ही था। इस बहाने अंकल-आंटी जी का आशीर्वाद भी मिल गया।’

जब सभी चाय पी चुके तो डॉ. वर्मा ने ड्राइंगरूम का दरवाज़ा खोलकर देखा, निर्मल काला आकाश ठसाठस तारों से भरा था तो धरती पर मानव द्वारा जलाए गए असंख्य दीयों तथा रंग-बिरंगी लाइटों की जगमगाहट चहुँओर फैली हुई थी। दोनों अपनी-अपनी तरह से सौन्दर्य बिखेर रहे थे। ऐसे ही अद्भुत नज़ारे को देखने के लिए सभी को बाहर बुलाते हुए उसने कहा - ‘आओ, कुदरत और मानव की रची अद्भुत लीला को देखें और खाना खाने से पहले आतिशबाजी का आनन्द लें, क्योंकि खाना खाने के बाद तो हो सकता है, स्पन्दन सो जाए। उसके जागते हुए ही आतिशबाजी कर लेते हैं, क्योंकि यह विशेष दीवाली तो स्पन्दन की ख़ुशी के लिए ही मनाई जा रही है।’

सभी उठकर बाहर आ गये। हरलाल और परमेश्वरी के लिए लॉन में कुर्सियाँ लगा दी गईं। मनमोहन पटाखों का थैला उठा लाया।

डॉ. वर्मा ने स्पन्दन को गोद में उठाया और मनमोहन से फुलझड़ी जलाने के लिए कहा। जली हुई फुलझड़ी हाथ में लेकर जब वह उसे गोल-गोल घुमाने लगी तो रंग-बिरंगी चिंगारियों को देख स्पन्दन ख़ुश होकर अपने हाथ बढ़ाकर पकड़ने की कोशिश करने लगी। डॉ. वर्मा ने उसका गाल चूमते हुए कहा - ‘ना बेटा, ना। हाथ आगे नहीं बढ़ाना।’

उसके बाद मनमोहन ने एक अनार निकाला और अनिता को देते हुए कहा - ‘लो भाभी, इसे तुम जलाओ।’

‘भाई साहब, आप ही जलाओ। मुझे डर लगता है।’

डॉ. वर्मा - ‘अनिता, जलाओ इसे। इसमें डरने वाली क्या बात है? यह कोई बम तो है नहीं।’

फिर भी अनिता तैयार न हुई तो मनमोहन ने रेनु को अनार और मोमबत्ती पकड़ा दिए। उसने तुरन्त अनार जला दिया। अनार में से ऊपर को उठती चिंगारियों को देख स्पन्दन दोनों हाथों से तालियाँ बजाने लगी।

स्पन्दन को तालियाँ बजाते देखकर हरलाल ने कहा - ‘भई, कुछ भी कहो, पटाखे-फुलझड़ियों का असली लुत्फ़ तो बच्चे ही उठाते हैं।’

डॉ. वर्मा - ‘पापा, आप ठीक कहते हैं। मुझे बचपन की दीवाली की याद आ गई। गाँव के खुले माहौल में पटाखे फोड़ने का अलग ही मज़ा होता था।’

आधा-एक घंटा लॉन में बैठने के बाद हरलाल ने उठते हुए कहा - ‘वृंदा की माँ, मुझे तो भूख लग रही है। तुम्हारा क्या विचार है?’

‘मैं भी खाना खाने के लिये तैयार हूँ।’

माँ-पापा को खाने के लिए तैयार देखकर डॉ. वर्मा ने वासु को आवाज़ दी और कहा - ‘वासु, तुम माँ और पापा को खाना खिलाओ, हम आधेक घंटे में खाएँगे।’

खाना खाने के बाद मनमोहन और विमल ने डॉ. वर्मा को शानदार दीवाली-मिलन के लिए धन्यवाद दिया और विदा ली।

.......

सोने से पूर्व हरलाल और परमेश्वरी, दिनभर जो उन्होंने देखा-परखा था, पर विचार करने लगे। डॉ. वर्मा का विमल को धर्म-भाई बनाना उन्हें अच्छा लगा, क्योंकि विमल तथा अनिता ने उनके प्रति जो आदर-सत्कार दिखाया, उससे वे बहुत प्रभावित हुए तथा ख़ुश थे। उन्हें ख़ुशी थी कि विमल वृंदा के सुख-दु:ख में पूरा साथ देने वाला लड़का है। स्पन्दन को गोद लेने के वृंदा के फ़ैसले पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं था, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि वृंदा स्पन्दन को दिलोजान से चाहती है और प्यार करती है। उन्हें तसल्ली थी कि मनमोहन और रेनु स्पन्दन को पूरी तरह से वृंदा के सुपुर्द करने के बाद कभी उसपर अपना अधिकार नहीं जताएँगे, क्योंकि रेनु फिर से गर्भवती है। उन्हें मलाल इस बात का था कि उन्होंने ग़लत धारणाओं के कारण मनमोहन जैसे सच्चरित्र और प्रतिभावान लड़के को वृंदा के जीवन से दूर कर दिया। हरलाल ने कहा - ‘वृंदा की माँ, काश कि हम सामाजिक रूढ़ियों के वशीभूत होकर निर्णय न लेते! वृंदा और मनमोहन की जोड़ी कितनी अच्छी लगती! मैं आज समझा हूँ कि केवल उम्र में बड़ा होने से ही कोई व्यक्ति अधिक समझदार नहीं हो जाता। हमने वृंदा और मनमोहन के एक-दूसरे के प्रति लगाव की गहराई को समझे बिना ही नकार दिया। हमसे वृंदा के प्रति बहुत बड़ा अन्याय हो गया, लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।’

‘वृंदा के पापा, आप इतना अफ़सोस ना करो। मुझे तो ख़ुशी इस बात की है कि मनमोहन और वृंदा में अब भी बहुत अच्छी दोस्ती है। दोस्ती रिश्तों के बंधन से मुक्त होती है और इस प्रकार अधिक कारगर साबित हो सकती है। हमारे बुढ़ापे में वृंदा के साथ मनमोहन और विमल का सहारा भी हमें मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।’

‘तुम्हारी बात लगती तो सही है। ..... आज सारा दिन गहमागहमी रही, आज तो नींद भी बढ़िया आएगी,’ कहकर हरलाल ने करवट बदली और कंबल से शरीर ढक लिया। परमेश्वरी भी पीछे नहीं रही। शीघ्र ही दोनों घोड़े बेचकर सो गए।

॰॰॰॰॰