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पहला - मेरी कविताएँ

मेरी नींद
सारा दिन जागूँ तो, बेजान-सी हो जाती हूं।
साँस लेती हूं, पर निढ़ाल-सी हो जाती हूं।
एक आँख लगने का इंतज़ार है, मुझे
फिर सांस लेती मेरी ये आँखें है, जिन्हें मैं अक्सर बोलते सुनती हूं, एक गूंगी ज़बान में।
सारा दिन थकती हैं, ये पढ़ते हुए
सारा दिन थकती हैं, ये देखते हुए

फिर एक रात का अंधेरा आता है
फिर वो सारी नींद उड़ा ले जाता है।
जो मैं दिन के उजाले में, आँख बंद भी करलूँ
वो फिर नही आती दुबारा, मुझे सुलाने को।
जो मैं एक क्षण के लिए, आराम भी करलूं
वो फिर नही आती दुबारा, मुझे सुलाने को।
मेरी नींद को अब मैं क्या नाम दूं ?
मेरी आँखें थक जाती है इसे समझाने को।
हर रात की यही शिकायत है, मुझे
हर रात की यही इनायत है, मुझे

मेरी नींद! जो तू न आई अब मुझे
मेरी नींद! जो तू न समझ पाए मुझे
फिर देख एक क्षण आएगा, जब तू मुझे पुकारेगी
फिर देख एक रात आएगी, जब तू मुझे संभालेगी
तब मैं तुझमें विलीन हो कर , तुझ जैसी ही होना चाहूंगी।
मेरी नींद को, नींद बनाकर तुझमें ही खोना चाहूँगी।
मेरी नींद को, नींद बनाकर तुझमे ही खोना चाहूँगी।।

Shalvi Singh
iwrit_ewhatyouthink

ईर्ष्या ( jealosy )

"कि वक़्त बीतता गया, ये सोचते सोचते यहीं औरों के जख्म भर गई ये उन्हें सहते"
कभी ईर्ष्या के भाव में आती और दूसरों में अहँकार भरी नफऱत को उनके घमंड भरे प्रभाव से भिगो जाती।

फिर कभी मनुष्य के भाव में लुप्त हो बड़े ही जटिलता से उन्हें अंधकार भरे कोने की जगह दिलाती।

कहती कुछ नही पर अपने होने का हमेशा खुद से एहसास कराती।

किसी स्वभाव रहित दो चेहरों से बने मनुष्य की क्या व्याख्या दू मैं ?
क्योंकि उसने तो खुद से ही इसे जन्म दिया है।
इसलिए आज भी उदहारण रहित हम महाबली दशानन जो सब में श्रेष्ठ थे, जो आज भी समायोजित है, खासकर जो अहँकारी रूपी नफ़रत की भावना रखते हों, उनके अंदर वो आज भी वोही लॉ जलाते जा रहे जो कल उन्होंने सीता स्वयंमर में किया था।
अपनी ईर्ष्या - और ताकत के घमंड से वो सब कुछ पा लेनी की ताकत भी रखते थे, पर एक दिन सब समाप्त हुआ, सब विलुप्त हुआ वो दशानन तो मिटगये पर उनकी अहँकार भरी ईर्ष्या बांट गए।
जो समझ सके उन्होंने समझा और न समझने वालों ने उसे स्वीकार रहित जीवन का मूल आधार बना लिया।

उसी तरह आज सामाजिक बधनो में भी हम ईर्ष्या का प्रभाव महसूस कर सकते पर अफसोस आपस के रिश्ते कही पीछे छूटने के डर से उन्हें अंधेखा कर कहीं गुमा देते।
जिस तरह विनाशकारी विपरीत बुद्धि हमे गहरी नदी में डुबाने का प्रयास करती, बिल्कुल उसी तरह हम उसकी जलन और पापनाशक नकारात्मक सोच में खोते जाते हैं।

इसलिए अपने स्वभाव के प्रति सौम्य रहकर अपने मन से ईर्ष्या रूपी रोग का बहिष्कार कीजिये।
कभी योग से तो लाभ ध्यान से अपने जीवन का उद्धार कीजिये।
स्वभावरहित सेवा भाव से एक ही चेहरे का निर्माण रखिये जो आपको आत्मबोध कराएगा, कुछ खुद में तो कभी दूसरों के लिए जीवन सफल बनाएगा - जीवन सफल बनाएगा

Shalvi Singh


बाकी सबकुछ अधूरा सा रह गया

आज आधी पूरी सी रह गयी है, वो ख्वाबों की मेरी दुनिया जो तेरे संग कभी देखी थी मैंने
आज अधूरी सी हो गयी है वो दुआ जो तेरे संग की मांगी थी मैंने
अरे! मांगी तो वो कसमें भी थी, जो हमनें खायी थी तुम्हारे साथ
और हाँ! वो वादे, उन्हें कैसे भूल सकती हूँ, जो कभी किये थे एक- दूसरे से और इन सब में, सबसे ज्यादा वो ख्वाइशें जो मेरे मन में थी कभी
और हाँ, वो प्यार जिसे हम पूरा करना चाहते थे।
आज वो सब-कुछ अधूरा सा रह गया
और अगर कुछ पूरा हुआ भी है तो वो है, हो रहा इस समाज में डर का ढोंग
इस समाज से बंधी बेड़ियाँ परम्पराओं की,
अगर पूरे हुए भी हैं, तो बस उन चार लोगों के कभी न खत्म होने वाले ताने
इसलिए बाकी सब कुछ अधूरा से रह गया।।

Shalvi Singh

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