स्त्री.... - (भाग-16) सीमा बी. द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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स्त्री.... - (भाग-16)

स्त्री......(भाग -16)

कामिनी तो चली गयी थी। कामिनी के पिताजी ने एक आया रख दी, जो सिर्फ बच्चे को देखती थी......मेरी सास के लिए उनका पोता कान्हा, गोपाल और बाबू था पर कामिनी के लिए वो निशांत था...। मैं और माँ एक दो बार उनके घर गए बच्चे से मिलने.....वो ज्यादा देर बच्चे को उसकी दादी के साथ छोड़ती नहीं थी, झट आया को बुला कर बच्चे को ले जाने के लिए कह देती......उस दिन हम जैसे ही घर आने के लिए उठे तो कामिनी ने कहा...."भाभी अब आप भी बच्चा पैदा कर लो देखो न माँ जी को बच्चे के साथ खेलने के लिए यहाँ आना पड़ता है, आप का बच्चा होगा तो सासू माँ का दिल भी बहल जाएगा....ठीक कह रही हूँ न माँ जी"!! मेरी सास उसकी बात सुन कर बोली," ठीक कहा छोटी बहु, मुझसे यहाँ आया नहीं जाता बार बार....अब तुम ही आ जाया करना जब तुम दोनो को समय मिले और जानकी को भी अब बच्चे का सोचना चाहिए ये भी ठीक कहा".....!
उस दिन के बाद माँ ने वहाँ जाने को नहीं कहा...पर घर आ कर वो मुझसे बहुत झगड़ी थी। उनको लगा कि मुझे बच्चा पैदा नहीं करना क्योंकि मेरी सुंदरता कम हो जाएगी....मैं जानती थी ये गुस्सा कामिनी का घुमा कर वहाँ आने से मना करने का था और अपने पोते को ना देख पाने की तकलीफ.....इसलिए मेरा चुप रहना ही ठीक था। माँ मेरे कुछ न बोलने पर ज्यादा नाराज हो गयीं......धीरे धीरे वो बहुत चिड़चिड़ाने लगी थी, शायद छोटी बहु ने जो अपमान किया था वो उन्होंने दिल से लगा लिया था.......।
मन फिर रह रह कर वहीं जा रहा था, जहाँ मैं सपने में भी नहीं जाना चाहती थी या यूँ कहो कि जाने से बचती थी। बच्चे किस औरत को पसंद नहीं होते? कौन सी औरत अपने पति को अपने साथ नहीं देखना चाहती होगी...पर काम में ध्यान लगाना मुझे ज्यादा जरूरी लगा क्योंकि ये सब मेरे लिए सिर्फ ना पूरे होने वाले सपने भर हैं.....काश बच्चा पैदा करने के लिए आदमी की जरूरत न पड़ती या फिर कोई ऐसी शक्ति होती स्त्रियों के पास की जब वो चाहती माँ बन सकती बिना किसी पुरूष की मदद के....सोच कर हँसी आ जाती है अपने दिमाग में उल्टे पुल्टे विचारों के म्यूजियम से जो इन सालों में बन गया है.....माँ का हर दूसरे दिन वही सब कुछ कहना कुछ दिनों के लिए बंद हो गया था, क्योंकि सुमन दीदी ने दो जुडवां बच्चों को जन्म दिया था...एक बेटा और एक बेटी..। मैं मामी बन गयी और माँ नानी। एक ही बार में दीदी की फैमिली पूरी हो गयी थी.....।
मैं भले ही माँ नही बनी, पर मेरे पति की वजह से मुझे मामी, ताई और भाभी जैसे रिश्ते तो मिले थे...। दो बच्चे को संभालने के लिए दीदी ने तीन साल की बिना सैलरी की छुट्टी ले ली थी....। कुछ समय वो ससुराल रहती और कुछ दिन हमारे पास बस ऐसे ही मिल जुल कर बच्चों की देखभाल हो रही थी.....माँ ने घर में सत्यनारायण की पूजा रखवायी। सुनील भैया और कामिनी अपने बेटे के साथ आए, भैया तो वैसे भी आते रहते थे, पर माँ और बच्चा बहुत दिनों बाद ही मिल रहे थे......सुमन दीदी का भी पूरा परिवार आया था और मेरे पति के कुछ दोस्त। मैंने बुलाया तो सुजाता दीदी को भी था, पर उनकी तबियत ठीक नहीं थी तो वो नहीं आए।माँ ने पूजा के लिए अपने गुरूजी को बुलाया था....सब अच्छे से हुआ....सुबह से शाम तक भागदौड़ करके बहुत थक गयी थी। सब के जाने के बाद जब गुरू जी ने मुझे और मेरे पति को अपने पास बुलाया और अपने हाथों से प्रसाद दिया और "पुत्रवत भव" का आशीर्वाद भी...!!! मेरे पति गुरूजी को छोड़ने चले गए और मैं सब काम समेटने लगी...। माँ को गुरूजी के दिए प्रसाद और आशीर्वाद पर यकीन था और मुझे अपनी बदकिस्मती का पर कुछ दिनों के लिए माँ ने कुछ भी कहना छोड़ दिया था।
तीन महीने तक प्रसाद और आशीर्वाद का फल मिलता न देख माँ फिर से अधीर हो गयी....। एक दिन सुमन दीदी भी आयी हुई थी तो माँ ने उनके सामने फिर वही बातें दोहराना शुरू कर दी, "मुझे तो लगता है कि तुझमें कोई कमी है, कल चल कर डॉ. को दिखा कर आते हैं"!!सुमन दीदी ने भी कहा भाभी एक बार डॉ से सलाह ले लेते हैं, अब तो काफी समय हो गया है!! "ठीक है दीदी"......मैंने कुछ कहने से बेहतर उनकी बात को मानना ठीक समझा। अगले ही दिन माँ मेरा चेकअप कराने ले गयीं....उन्होंने सब चेक करके बता दिया कि आपकी बहु बिल्कुल ठीक है, आप एक बार अपने बेटे को भी चेकअप के लिए कहिए....कमी उनमें भी हो सकती है। माँ ये सुन कर डॉ. पर ही गुस्सा हो गयी क्योंकि उनके हिसाब से आदमी में कभी कमी नहीं होती , सिर्फ औरतें ही बाँझ होती हैं.....पर मैं बाँझ नहीं ये तो उन्हें पता चल ही गया था तो आगे मैंने कुछ कहना सही नहीं समझा....। मेरी सास की कोई गलती नहीं थी क्योंकि नो जो उन्होंने देखा था बस वही जानती थी, पर माँ वहाँ से आने के बाद से गहरी सोच में थी.....।
माँ ने रात को रोज की तरह पहले खाना नहीं खाया, वो बेटे का इंतजार करती रही। उनके आने के बाद हम सबने खाना खाया और माँ ने डॉ की बात बतानी शुरू कर दी.....वो हम दोनों पर ही गुस्सा हो गए। "अब बच्चा नहीं हो रहा तो मैं क्या करूँ? बेटा एक बार तू किसी अच्छे से डॉ से मिल ले.....पता तो चले कि क्या परेशानी है, आगे उम्र बढनी है, मर्द तो जवान रहता है, पर औरत नहीं"। माँ की बात सुन कर," ठीक है माँ" कह कर उठ कर कमरे में चले गए। रसोई समेट कर मैं भी अपने कमरे में गयी तो वो कंप्यूटर के सामने बैठे काम कर रहे थे....थोड़ी देर काम करके वो सोने के लिए पलंग पर आ गए......"सुनों आप एक बार माँ के लिए ही डॉ के पास जा कर टेस्ट करवा लिजिए".... "मैं किसी डॉ. के पास नहीं जा रहा, हमारे बीच एक अरसे से कोई रिश्ता ही नहीं तो बच्चा कैसे होगा! तुम्हे घमंड है अपनी खूबसूरती का तो मैं भी तुम्हारे सामने गिड़गिड़ाने वाला नहीं"! उन्होंने बिना मेरी तरफ देख कर कहा। "ये गलत है आप जानते हैं...आप जो पुड़िया खाते थे, वो मैंने एक बार जहाँ से खरीदते थे, वहाँ देखा था आपको?? ये जो ऐसे झोलाछाप होते हैं वो सिर्फ लूटते हैं, इलाज नहीं करते.....उससे बेवजह का जो जोश आप मैं आता था वो भी कुछ नहीं कर पाता था, तो फिर उसको भी क्यों करना" ?? मैंने एक कड़वे सच को कहने की हिम्मत जुटा ही ली थी....."बस एक औरत को सेक्स ही तो नहीं करना होता पति के साथ!! भावनात्मक रिश्ता भी आपने बनाना जरूरी नहीं समझा। आप तो मुझसे ज्यादा पढे लिखे हैं ,फिर आप नहीं जानते की आपकी परेशानी का हल कहाँ मिलेगा? आपने कोशिश ही नहीं की"! अभी मैं आगे कुछ कहती कि उनका जोरदार तमाचा मेरे गाल पर पड़ा...मैं दर्द से कराह उठी...माँ को आवाज न जाए सोच अपने मुँह पर हाथ रख लिया। "बेशर्म औरत तेरे लिए मैंने क्या नहीं क्या? तुझे पढाया, आजादी दी अपने हिसाब से रहने की और मुझसे ही जबान लड़ाती है" !! उनका मुँह भी चलता रहा और हाथ भी.....मैं चुपचाप मार खाती रही। जब वो थक कर हाँफने लगे और बेड पर बैठ गए तो मैं धीरे से उनके पास गयी और घुटनों पर बैठ उनकी आँखो में आँखे डाल कर कहा...."जो मेरे लिए किया वो आपकी कमी को छुपाने के लिए एक रिश्वत थी, पर मैंने आपकी अच्छाई समझी और अपना मुँह बंद रखा पर आज चुप रहने का कोई कारण नहीं, हाथ उठा कर आपने साबित कर दिया कि आप सिर्फ और सिर्फ अपनी कमी को जितना टाल सकते थे, उतना टालते रहे......और वो झोलाछाप दवा खा कर जो आप करते थे वो भी बस एक दिखावा था या मुझ पर एहसान करने की कोशिश......पर असल में अपनी गलती को थोड़ा कम करने की सोची समझी साजिश थी" ...मेरी बात सुन कर वो फिर गुस्से में भर गए..."तेरे कहने का मतलब क्या है"? "मेरे कहने का मतलब आपको अच्छे ढंग से समझ आ गया है...इतने भोले नहीं हो आप जो गाजर मूली या केले से बच्चे पैदा होते हैं, समझते हों?
मैंने कभी टोका नहीं तो सोचा होगा कि कम पढी लिखी जानकी को क्या पता होगा ये सब" ??? अब उनकी नजरे झुकी हुई थीं......वो उठे और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए । मैं हाथ मुँह धो कर आयी तो उनको ऐसे बैठे देख कर कहा..
"मैं चाहती तो आपकी माँ को सब बता सकती थी, पर मैं चुपचाप उनकी कड़वी बातें सिर्फ इसलिए सुन रही थी क्योॆकि वो सुनील भैया के बेटे को, अपने पोते को खिला नहीं पा रही हैं तो वो दुखी हैं, दादी बन कर भी वो दादी वाली खुशी महसूस नहीं कर रहीं तो उनकी तकलीफ को समझती हूँ, आप बेफिक्र रहिए, मैं उनको खुद कभी ये बात नहीं बताउँगी, आप बताना चाहें तो बताना नहीं बताना हो तो भी कोई बात नहीं.......ऐसा कई औरतो के साथ पहले भी हुआ होगा और होता होगा और होता रहेगा भी.....चुप रहना हम औरतों को जन्म होते ही सीखाना शुरू कर दिया जाता है तो मैं भी चुप ही रहूँगी"....वो चुपचाप बेड पर हमेशा की तरह पीठ करके लेट गए.....पर मैं तो उस दिन हर बात बोलना चाहती थी, उनका मुझ पर हाथ उठाना मेरे स्वाभिमान और अभिमान दोनो के लिए भारी पड़ रहा था। वो मुझे सुन रहे थे और मैं बोलती जा रही थी," आज भी मैंने डॉ. से मिलने के लिए अपने लिए नहीं माँ के लिए कहना चाह रही थी, आप एक कदम तो बढाते हम बच्चा गोद ले सकते थे या क्या पता कुछ और रास्ता निकल आता....मैं एक बार फिर से हमारा रिश्ता ठीक करना चाह रही थी, पर आप पुरूष हैं आपका अहं अपनी कमी को स्वीकार करने ही नहीं दे रहा तो मुझे भी अब कोई इच्छा नहीं है इस मरे हुए रिश्ते में जान डालने की"....कह मैं चुप हो गयी और कमरे में अजीब सा सन्नाटा पसर गया....रात कब बीत गयी और सुबह कब हुई पता नहीं चला। सारी रात बस यूँ ही कट गयी आगे का सोच कर....पास रखी घड़ी देखी तो सुबह के 4 बज रहे थे, मैं कमरे से बाहर आ कर बॉल्कनी में बैठ गयी, इतनी चहल पहल रहती है मानों ये शहर कभी सोता ही नहीं.......!!
क्रमश:
स्वरचित
सीमा बी.