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रागिनी

"चीन किस तरफ है?" बच्चे ने कुमाऊँ के पूर्वी हिमालय के पर्वतों की ओर नज़र फेरते हुए पूछा। पिथौरागढ़ के राजमार्गीय बाज़ार से आवासीय क्षेत्र में प्रवेश करते हुए वह छह वर्ष का बच्चा एक स्त्री के साथ चल रहा था। सौम्य शिशिर की सौम्य हिमवर्षा रात्रि के अन्धकार को श्वेत लावण्य से भर रही थी। यों तो बाज़ार भी बन्द थे, और हिमवृष्टि के कारण आवासीय क्षेत्र में भी लोग घर में ही बन्द थे। बस मार्गों पर लाइटें जल रही थीं, जिसके कृत्रिम हिरण्य प्रकाश में हिमवृष्टि भी हिरण्यवृष्टि प्रतीत होती थी। रात्रि के साथ ही ठण्ड और बढ़ रही थी। उन दोनों ने लम्बे स्याह कोट पहने थे, और बच्चा कुछ देर रुक-रुककर नीचे गिरी बर्फ से गोले बनाता और दूर क्षितिज पर फेंकता जाता था। बच्चे का प्रश्न स्वाभाविक था; क्योंकि वह इस नगर में नया था।


रागिनी ने पूर्वोत्तर की ओर सर उठाया और एक दृष्टि से उन श्वेत शाल में आवृत्त हिमालय के विशाल पर्वतों की ओर देखा। इन्हीं पर्वतों को देखकर वह युवा हुई थी। इन्हीं पर्वतों की स्मृतियाँ आज भी वह कैनवास पर उतार सकती थी। किन्तु... खैर, इतने वर्षों बाद भी वह दृश्य बिल्कुल वैसा ही था जो वह पहले रोज़ देखा करती थी। शायद यह दृश्य सहस्र वर्षों बाद भी नहीं बदलेगा, चाहे हमारी स्मृतियाँ बदल जाएँ... चाहे हमारे शरीर बदल जाएँ...


"उस तरफ।" रागिनी ने पूर्वोत्तर की ओर देखते हुए कहा।


"तो इसका अर्थ है कि अगर मैं यहाँ से सीधे-सीधे जाऊँ तो मैं चीन पहुँच सकता हूँ?" बच्चा उत्साही स्वर में बोला।


"हाँ, लेकिन ये पर्वत और उनकी तराइयों के जङ्गल तुम्हारा मार्ग रोककर हमेशा ही यहाँ खड़े रहेंगे।" रागिनी ने मुस्कुराते हुए कहा।


"ये पर्वत कब से यहाँ हैं?" बच्चे ने फिर से कुतूहलवश पूछा।


"लाखों वर्षों से। यों समझ लो कि वे हमारे आदिकाल से यहीं पर हैं।"


"इतने वर्षों तक वे इस तरह बिना हिले कैसे रह सकते हैं?"


"क्योंकि वे अचल हैं।" स्त्री ने उत्तर दिया।


"मतलब निर्जीव हैं!" बच्चे की आँखों में जिज्ञासा का तेज बढ़ रहा था।


निर्जीव! नहीं, निर्जीव शब्द इनके लिए ठीक नहीं। रागिनी आज भी उन कथाओं से परिचित थीं। बचपन में दादाजी कहते थे कि किसी युग में हिमालय के इन पर्वतों के पास पँख थे। वे अपनी इच्छानुसार विचरण करते थे, और इच्छानुसार अपना निवास तय करते थे। लेकिन फिर वे स्थावर हो गए। शाप था शायद उन्हें, अचल रहने का। एक ही जगह पर अन्त तक बसने का... इच्छानुसार उड़ने की, स्वैरविहार करने की अभिलाषा सब रखते ही हैं। लेकिन कई बार हमें भी इन पर्वतों की तरह स्थावर बनना पड़ता है।


"माँ, वे निर्जीव हैं न?" बच्चे ने फिर से कोमल स्वर में पूछा।


"मैं नहीं जानती। शायद, या शायद नहीं भी।" उसने कहा।


उसने फिर से उन पर्वतों की ओर देखा और दोनों निःशब्द निर्जन मार्ग पर बढ़ते चले गए। उन पर्वतों में अब भी चलित होने की अभिलाषा है या नहीं, इसका उत्तर तो केवल उनके पास ही हो सकता है। यदि वे इस शीतलता से दूर जाना चाहे तो इस क्षेत्र का क्या होगा?


कुछ समय तक ऐसे ही विचार करती वह चलती रही। फिर एक दुमञ्जिले मकान के पास रुकी और कुछ देर तक वहीं खड़ी रही।


"हम पहुँच गए?" बच्चे ने पूछा।


रागिनी ने उसकी निर्दोष आँखों में देखा और फिर उसके सामने घुटनों के बल बैठकर बोली, "तुम्हें याद है न, मैंने तुमसे क्या कहा था?"


"हाँ, मुझे विनम्र रहना है। शरारत नहीं करनी।" बच्चे ने ऋजुतापूर्वक उत्तर दिया।


"वे तुम्हारे पापा के सबसे अच्छे दोस्त हैं। और हम उनके पास तब नहीं---"


"माँ, क्या तुम्हें यह सुनाई दे रहा है?" बच्चे ने उत्तर दिशा में उसी घर की ओर उँगली करते हुए पूछा। वह घर उत्तराभिमुख था। और वह बच्चा भी उत्तराभिमुख खड़ा था। वहाँ से शायद सितार की मन्द आवाज़ आ रही थी। रागिनी ने अपनी आँखें बन्द की और उस नाद को सुनने का प्रयास किया। उसके पीछे से आनेवाली सितार की वह आवाज़ अब कुछ ज्यादा स्पष्ट थी। वह उस राग की कोमलता को पहचानती थी। लेकिन उसने ऐसे दो राग सीखे थे। और वाद्य पर बिना शब्द के दो समान रागों में फर्क करना बहुत कठिन होता है। लेकिन फिर वहाँ अवरूढ शुद्ध निषाद आया, और रागिनी अपनी दुविधा से मुक्त हो गयी।


'तिलककामोद...' उसने सोचा। लेकिन उस सङ्गीत की व्याकुल तरङ्गों को भी वह पहचान सकती थी। शायद स्वयं उनमें शब्द भी पिरो सकती थी...


"माँ?" बच्चे ने रागिनी की भृकुटी पर अड़े एक हिमकण को हटाते हुए कहा।


रागिनी ने सहसा आँखें खोलीं। आँखों की गर्मी से शायद उस हिमकण का कुछ जल उसके नयन से छलक गया था।


"कितना सुन्दर सङ्गीत है न?" बच्चे ने कहा।


"हाँ!" रागिनी के मुख पर सौम्य स्मित उभर आया। "चलें?" उसने खड़े होकर पूछा।


और वे दोनों उस सङ्गीत के स्रोत की ओर चल पड़े। घर का द्वार खुला था। रागिनी ने भीतर झाँका, लेकिन वहाँ कोई नहीं दिखा। पर तभी भीतर के अँधेरे से एक आवाज़ आयी।


"रागिनी!"


पूर्व में जल रही आग के पास श्रीमती त्रिवेदी हाथ में एक पुस्तक लेकर बैठी थीं। रागिनी को देखकर वह उठीं और सत्कारपूर्ण भाव से बोलीं, "आओ!"


"नमस्ते, आँटी जी।" रागिनी बोली।


श्रीमती त्रिवेदी ने उसका स्वागत किया। "अरे! तुम कहाँ छिप रहे हो?" उन्होंने बच्चे की ओर देखते हुए कहा। बच्चा रागिनी के पीछे छिपकर झाँक रहा था।


"षड्ज!" रागिनी ने उसे आगे लाते हुए कहा। वह अपनी माँ की ओर देखता रहा; मानो किसी सङ्केत की प्रतीक्षा कर रहा हो। रागिनी ने पैर छूने का सङ्केत किया और मन्द स्वर में कहा 'विनम्रता'...


"इन्हें पैर छूने के लिए न कहो। यह पीढ़ी मैत्री की अपेक्षा रखती है। ये बच्चे मैत्री से स्नेह करते हैं।" श्रीमती त्रिवेदी ने कहा। "चलो, मेरे साथ आओ। हम थोड़ी मित्रता कर लें।"


षड्ज ने फिर से रागिनी की ओर देखा। माँ की स्वीकृति मिलने पर वह आगे बढ़ा।


"आँटी जी! ऋषभ..."


"तुम सितार की ध्वनि सुन ही रही हो न! वह आज दोपहर ही लौटा है। दो हफ्तों से देहरादून गया था तो इस घर से सङ्गीत ही चला गया था। आज लौटा है तो रात कुछ ज्यादा मधुर लग रही है।" श्रीमती त्रिवेदी बोलीं।


"सोमवार को आपने जब कहा था कि वह अब सीधे रविवार को ही आएगा तो मुझे लगा था कि इस बार मुलाकात न हो पाएगी। अच्छा हुआ जो दो दिन पहले ही लौट आया।" रागिनी ने हँसते हुए कहा।


"मैंने उसे फॉन पर बताया था कि तुम आयी हो।"


"यह आपने बहुत अच्छा किया।"


"तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लाती हूँ।" श्रीमती त्रिवेदी बोलीं।


"नहीं, रहने दीजिए। इस समय चाय नहीं। मैं ज़रा ऋषभ से मिल लेती हूँ।" रागिनी ने कहा।


"ठीक है।" श्रीमती त्रिवेदी ने कहा, और फिर षड्ज की ओर देखकर बोलीं, "चलो तो! तुम अब मुझे अमरीका के बारे में कुछ बताओ।"


श्रीमती त्रिवेदी के कोमल व्यवहार से षड्ज के बालमन में अब उनके प्रति मैत्रीभाव जाग चुका था। यही तो उनका कौशल्य था। रागिनी को भी बचपन में उनसे इतना ही स्नेह मिला था। दूसरे शब्दों में, उसका आधा बचपन ही इस घर में बीता था। ऋषभ के पिता उसके गुरु थे। उन्हीं के सान्निध्य में वह यहाँ सङ्गीत सीखी थी। और यहीं से उनकी मैत्री हुयी थी।


रागिनी ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ने ही वाली थी कि उसकी नज़र वहाँ पूर्व की दीवार पर लगी हुयीं कुछ तस्वीरों पर पड़ी। उनमें से एक तस्वीर वह भी थी, जिसमें ऋषभ के पिताजी हार्मोनियम पर रागिनी को कोई गीत सीखा रहे हैं और ऋषभ उसी गीत को सितार पर बजाना सीख रहा है। रागिनी को आज भी वह दिन याद था। वह तब आठवीं में पढ़ती थी; और ऋषभ दसवीं में था। स्कूल के बाद सन्ध्या में दोनों सङ्गीत की शिक्षा लेते थे। ऋषभ उस से आयु में दो वर्ष बड़ा था। और... और गौतम भी...


'गौतम इस बार फेइल होने वाला है, मैं बता रही हूँ।' एक सन्ध्या पर सङ्गीताभ्यास के बाद वह ऋषभ से कहने लगी। 'दसवीं को कोई इस तरह मज़ाक में लेता है क्या?'


'वह अनुत्तीर्ण नहीं होगा।' ऋषभ ने उसे समझाते हुए कहा था। 'तुम तो जानती हो कि वह आखिर में ही मेहनत करके पास हो जाता है।'


'सौभाग्य से... वह बस अपनी अच्छी किस्मत के कारण। लेकिन इस बार मुझे पूरा विश्वास है कि वह फेइल होगा।' रागिनी बोली थी।


'नहीं होगा। तुम्हें उस पर विश्वास न सही, मुझ पर तो है न! और वैसे भी हमने तय किया है कि जहाँ तक पढ़ेंगे साथ पढ़ेंगे। वह फेइल हो जाएगा तो मेरा क्या होगा?' ऋषभ ने कहा था।


'तुम पर विश्वास है इसीलिए तो तुम्हें बता रही हूँ। हम निराधारों के तुम्हीं तो आधार हो।' रागिनी ने सौम्य स्मित के साथ कहा था। 'अच्छा! हमारी समस्याओं का तो तुम समाधान करते हो, लेकिन तुम्हारी अपनी समस्याओं का क्या? तुम्हें कभी हमारी ज़रूरत महसूस नहीं होती?'


'यह शहर बहुत छोटा है, रागिनी। ज़रूरत तब महसूस होती है जब लोग एक-दूसरे से दूर रहते हों। तुम लोग तो यहीं मेरे साथ हों।' ऋषभ ने उत्तर दिया था।


'तुम तो इतने मीठे हो कि तुम्हें कभी कोई आपत्ति भी नहीं होती।' रागिनी हँसते हुए बोली थी। 'लेकिन जब भी तुम्हें हमारी ज़रूरत होगी तब हमें हमेशा ही अपने साथ पाओगे, यह मेरा वचन है।'


यह मेरा वचन है...


ऐसी एक-दो तसवीरें इतनी पुरानी यादें लेकर आती हैं कि कभी-कभी वेदना का कारण भी बन जाती हैं। एक आयु पर पहुँचने के बाद स्मृति के उन गलियारों की यात्रा करना सुखद होता है। लेकिन अगर उन स्मृतियों में समय की और सम्बन्धों की मर्यादाएँ हों, तब अक्सर लोग वह यात्रा करना पसन्द नहीं करते। उन तस्वीरों के ऊपर ऋषभ के स्वर्गीय पिताजी की तस्वीर लगी थी। कितने स्नेही थे वे! मधुर कण्ठ और सङ्गीत के उपासक! रागिनी की दृष्टि अब उनके बगल में लगी तस्वीर पर स्थिर हुयी... एक मधुस्मिता युवती पर... और क्षणभर के लिए रागिनी की आँखें वहीं ठहर गयीं।


ऋषभ के सितार पर अब भी तिलककामोद की वह धून चल रही थी। रागिनी सीढ़ियाँ चढ़ती हुयी ऊपर पहुँची, और सितार की ध्वनि का अनुसरण करती हुयी वह सीधी बारजा में गयी। ऋषभ की उँगलियाँ सितार पर अनवरत चल रही थीं। उसकी आँखें बन्द थीं। बारजा में बाहरी परिसर की शीतलता व्याप्त थी। और शिशिर की उस सौम्य हिमवर्षा में ऋषभ के सङ्गीत की लयबद्ध गति... रागिनी उस सङ्गीत को पूर्णतः सुनना चाहती थी। कितने वर्षों से उसने ऋषभ को सितार बजाते हुए नहीं सुना था! ऋषभ एक उत्कृष्ट सितारवादक था। वह कठिनतम रागों को सहजता से सितार पर उतार लेता था। उसका एक उदाहरण उसके सामने ही था। तिलककामोद और देस दोनों में आखिर अन्तर ही कितना है! दोनों में एकसमान गीतों का समुद्र मथा जाता है। ये दोनों ही राग रागिनी को अतिप्रिय थे। और... उसकी आँखों के सामने वर्षों पुरानी वह याद ताजा हो आयी:


"अगर तुम अपनी सन्तान को इसकी तरह सङ्गीतज्ञ बनाना चाहती हो तो अभी से सङ्गीत सुनना शुरू कर दो। कहते हैं गर्भावस्था में माँ की आदतों को शिशु जल्दी सीख लेता है।" नियति जब सगर्भा थी तब रागिनी ने उसे उपदेश देते हुए कहा था। फिर वह ऋषभ की ओर देखते हुए बोली थी, 'पिता के गुणों का सन्तान में होना बहुत ज़रूरी है।"


"मैंने तो यह शादी के बाद ही शुरू कर दिया था। अब तो राग पहचानना भी जानती हूँ।" नियति ने उत्तर देते हुए कहा था।


"अच्छा! तो कौन-से राग ज्यादा पसन्द हैं तुम्हें?" रागिनी जानती थी कि सङ्गीत के इतने अपरिचित व्यक्ति को यह प्रश्न पूछना उचित नहीं है। क्योंकि अक्सर वे केवल गीत से रागों का चयन करते हैं। उनके प्रिय गीत जिन रागों में होंगे, उन्हें ही वे अपने प्रिय बतलाएँगे।


"देस और तिलककामोद!" नियति ने जब उत्तर दिया तब रागिनी के चेहरे पर एक विस्मय-सा छा गया था। उसकी आँखें तुरन्त ही ऋषभ की ओर मुड़ीं। ऋषभ जानता था कि रागिनी को कौन-से राग सबसे अधिक प्रिय थे। किन्तु वही दो राग नियति के भी प्रिय होंगे, यह रागिनी ने कभी नहीं सोचा था। "और ऋषभ ने मुझे ज्ञात सारे राग सुनाए हैं, तब जाकर मैंने इन दोनों का चयन किया है।" नियति ने स्पष्टता देते हुए कहा।


ऋषभ ने रागिनी के विस्मय पर जब 'हाँ' में सर हिलाया था तो रागिनी एक विलक्षण भाव से हँस पड़ी थी। उसके हृदय में तब यह प्रश्न हुआ था कि क्या यह एक संयोग है कि ऋषभ की पत्नी में सङ्गीत के ज्ञान के अलावा वे सारी बातें बिलकुल वैसी ही हैं जैसी उसमें हैं!


"और ऋषभ कहते हैं कि उन्हें केदार सबसे ज्यादा पसन्द है," नियति बोली। "लेकिन वास्तव में--"


"मालकौंस..." नियति और रागिनी दोनों साथ में ही बोलीं। "मालकौंस उसे सर्वाधिक प्रिय है।" रागिनी ने नियति का वाक्य पूरा करते हुए कहा।


एक और संयोग...


"तुमने भी यह देखा है न!" नियति प्रसन्नतापूर्वक बोली।


"हाँ... अनेकों बार देखा है।" रागिनी ने कहा था। "क्योंकि केवल एक यही राग था जो मुझे बाबूजी ने नहीं, ऋषभ ने सिखाया था। बाबूजी कहते थे, 'महादेव की कृपा से अब मैं यह कह सकता हूँ कि मेरा बेटा मुझसे अधिक कुशल है।' उनके ही कहने पर ऋषभ ने मुझे मालकौंस की शिक्षा दी थी।"


इतने वर्षों बाद आज आँखों के सामने से वह दृश्य गुज़रा तो रागिनी की आँखें सजल हो उठीं। तभी, ऋषभ की उँगलियाँ सितार पर धीमी हुयीं और कुछ ही क्षणों में उसने अपनी आँखें खोलीं। नियति के सर्वाधिक प्रिय रागों का अभ्यास अक्सर उसे उन पुराने दिनों की याद दिला देता था। नियति को देस की ठुमरियाँ बहुत पसन्द थीं। और वह गीत उसको सबसे ज्यादा पसन्द था जो रागिनी ने स्वयं लिखा था, और ऋषभ ने सङ्गीतबद्ध किया था:


आज शरद की निशा सुहागन, शुभ्र किया शृङ्गार;

वेणु के सुर पास बुलाए, जाऊँ जमुना पार।


ऋषभ के उन नेत्रों में रिक्तता का अम्लान दर्पण था, जिसे रागिनी देखनेभर से पहचान गयी। लेकिन वह जानती थी कि ऋषभ के हृदय के खालीपन को भर पाना अब सम्भव नहीं था। वैसे तो ऋषभ हमेशा से ही एकाकी जीवन जीता था। लेकिन नियति के बाद वह अब वास्तव में अकेला था। बिल्कुल अकेला... फिर भी अपना यह दुःख वह किसीके सामने प्रकट नहीं होने देगा। और रागिनी यह जानती थी। इसीलिए उसने वर्षों बाद की अपनी इस भेंट को स्मितपूर्ण बनाने का सङ्कल्प लिया था।


"तिलककामोद, हाँ!" रागिनी कोमल स्मित के साथ बोली।


ऋषभ ने बड़े विस्मय से उसकी ओर देखा। वे दोनों अब चालीस वर्ष की आयु के समीप थे। रागिनी सडतीस की थी। लेकिन व्यक्ति जब तीस वर्ष का जीवन बीता लेता है, तो उनके जीवन से शैशव सम्पूर्णतया ऊब जाता है। ऋषभ ने रागिनी को पिछली बार देखा था तब वह तीस वर्ष की थी। और अभी तक उसके रूप में कोई परिवर्तन नहीं आया था। लेकिन रागिनी की दृष्टि में ऋषभ के रूप में परिवर्तन था। साधारण परिवर्तन नहीं, बल्कि बड़ा परिवर्तन। ऋषभ का मुख देखकर ही वह थोड़ी सहम गयी। वह समय से प्रताड़ित दिख रहा था। पिछली बार से कई अधिक...


"पहचान लिया!" ऋषभ ने हँसते हुए कहा।


"पहचानती कैसे नहीं? सङ्गीत का रिश्ता काफी घनिष्ठ होता है।" रागिनी उसके निकट जाकर बैठी। "इतनी जल्दी हम सङ्गीत नहीं भूलने वाले।"


"हम तो नहीं भूलेंगे लेकिन तुम्हारा पता नहीं।" ऋषभ उसकी ओर देखकर बोला। "अन्तिम बार कब गाया था?"


"पॉइण्ट नॉटेड।" रागिनी ने दलील स्वीकारते हुए कहा।


"रात को ऐसे गाना गाओगी तो वैसे भी अमरीका वाले पुलिस बुला लेंगे।" ऋषभ ने हँसते हुए कहा। "वैसे सीएटल कैसा है? सुना है तुम लोग अब सीएटल में हों।"


"अच्छा है। काफी गीला है, लेकिन ठीक है।" रागिनी ने उत्तर दिया।


"गीला है! बारिशें तुम्हें कब से परेशान करने लगीं?" ऋषभ ने विस्मित होकर पूछा।


"जब से पैतीस के पार हुयी हूँ तब से।"


"अभी इतनी भी बूढी नहीं हुयी हो... अभी तो सीएटल वालों की किस्मत फूटनी बाकी है।" उसने हँसते हुए कहा।


"शर्म करो।" रागिनी हँसते हुए बोली। "वैसे वहाँ पहाड़ों वाली बात नहीं।"


"वह तो ऐसा है, मैडम, कि एक बार आप हिमालय की गोद में निवास कर लें तो पूरी दुनिया ही अधूरी लगने लगती है। और फिर तुम तो पैदा ही यहाँ हुयी हो।" ऋषभ ने कहा।


"रस्किन बॉण्ड के विधान को अपनी तरह से बोलकर मुझे उलझाने का प्रयास कर रहे हो?" रागिनी भृकुटियाँ चढ़ाती हुई बोली।


"तो रस्किन बॉण्ड सीएटल में भी प्रसिद्ध है?"


"बकवास बन्द करो और यह बताओ कि इतने दिनों से कहाँ थे? दस दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। एक दिन भी देरी से आते तो पता नहीं--"


"इसीलिए तो आया हूँ। सुना है कल नैनीताल जा रही हो। और फिर वहीं से दिल्ली?" ऋषभ ने पूछा।


"हाँ, जाह्नवी की शादी के लिए ही तो भारत आए हैं। गुरुवार को शादी के बाद शुक्रवार दिल्ली चले जाएँगे। और फिर वहीं से... घर..."


घर बोलते वक्त रागिनी के मन में कुछ उलझन थी। और ऋषभ ने उसके हृदय को उसी एक स्वरपरिवर्तन से भाँप लिया।


"घर?" ऋषभ ने प्रश्नार्थ लगाते हुए विस्मय व्यक्त किया।


"यानी सीएटल।" रागिनी ने मन्द स्वर में उत्तर दिया। "वहीं जाएँगे न!"


"घर तो तुम्हारा यहाँ भी है।" ऋषभ के स्वर में गाम्भीर्य था।


"है। लेकिन वहाँ रहना अब सम्भव नहीं।" रागिनी ने कहा।


"क्यों? जीवन तो यहाँ भी बीता सकते हैं।"


"काश कि यहाँ रह पाती! लेकिन सब छोड़कर अब यहाँ तो नहीं बस सकते न! यह जगह अब बहुत छोटी लगती है, ऋषभ।" रागिनी के इस 'ऋषभ' वाले सम्बोधन में एक कारुण्य था। ऋषभ ने शायद उसे पहचाना था लेकिन फिर भी उसने वह अनदेखा कर दिया।


"ये शब्द तुम्हारे नहीं हो सकते। क्योंकि जिस रागिनी को मैं जानता हूँ उसे तो हिमालय से बहुत प्रेम था।" ऋषभ ने कहा।


"आज भी है।" रागिनी वैसे ही करुण एवं मन्द स्वर में बोली। "तुम जिस रागिनी को जानते हो वह आज भी वैसी ही है। लेकिन मैं स्वयं को इन पर्वतों से बाँधकर तो नहीं रख सकती न?"


"जिन पर्वतों में लोग मुक्त होने का मार्ग ढूँढ़ते हुए आते हैं, वे भला किसी को कैसे बाँध सकते हैं, रागिनी?" ऋषभ ने कहा।


रागिनी के मन में अब उदासीनता छा गयी। क्या वह स्वैरविहार करना नहीं चाहती थी? क्या वह इन पँखहीन पर्वतों के आश्लेष में फिर से स्वयं को डुबाना नहीं चाहती थी? लेकिन चाहने से क्या होता है? उसका जीवन अब कहीं ओर है।


"यह शायद तुम्हें अपने मित्र को समझाना चाहिए।" रागिनी व्याकुल स्वर में बोली। ऋषभ ने सहज ही उसका तात्पर्य जान लिया।


"समझाने के लिए उसका यहाँ होना भी तो ज़रूरी है।" ऋषभ ने कहा।


"अगर वह यहाँ होता तो शायद हम आज ऐसी बातें नहीं कर रहे होते।" रागिनी ने कहा। "तुम दोनों तो बिल्कुल एक जैसे थे न! फिर आज तुम दोनों में इतना अन्तर क्यों?"


"हम दोनों आज भी एक जैसे ही हैं, रागिनी। बस उसका ध्येय अब मुझसे अलग है।" ऋषभ ने कहा।


"नहीं। मैं तुम दोनों को अपने आप से भी ज्यादा जानती हूँ। और इतने वर्ष उसके साथ रहने के बाद मैं यह निश्चय से कह सकती हूँ कि उसमें परिवर्तन आए हैं। यह वह गौतम नहीं है, जिससे मैंने शादी की थी... जिससे मैंने प्रेम किया था..." रागिनी ने करुणस्वर में कहा।


इस पर ऋषभ ने निःशब्द रहना ही उचित समझा। रागिनी के मन में विलक्षण प्रश्न उठने लगे। उसके और गौतम के बीच कुछ तो बदला था। लेकिन वह उस परिवर्तन के कारण को, उसके मूल को पहचानने में असमर्थ थी। वह गौतम से प्रेम करती थी। और उस प्रेम का स्वीकार भी उसने सर्वप्रथम ऋषभ के सामने ही किया था। अपनी समस्त समस्याएँ लेकर वह उसी के पास तो आती है। और शायद आज भी वह इसीलिए उसके पास आयी है।


ऋषभ को निरुत्तर देखकर उसने फिर से पूछा, "रिश्तों में इतना परिवर्तन क्यों आता है, ऋषभ?"


"मनुष्य तो परिवर्तनशील होते हैं, रागिनी। समय के साथ हममें बदलाव आते ही हैं। सम्बन्धों को इन्हीं बदलावों के साथ चलकर जीवनयात्रा करनी होती हैं।"


ऋषभ के ऐसे अटपटे उत्तर से रागिनी को सहसा आभास हुआ कि यहाँ ऋषभ से कुछ छिपा नहीं है। वह सब जानता है।


"तुम जानते हो, है न?" रागिनी ने उसकी आँखों में देखकर पूछा।


रागिनी के स्वर में एक परिचित-सा स्पन्दन था। ऋषभ की शोकाकुल आँखों ने ही बता दिया कि वह रागिनी और गौतम के सम्बन्ध में बढ़ रहे तनाव से परिचित है। और उसका कारण... उस विषय में तो उसे कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।


"कुछ दिनों पहले उसका फोन आया था। काफी विषण्ण लग रहा था।" ऋषभ ने कहा।


"तो इसीलिए तुम एक दिन जल्दी लौट आए।" रागिनी ने अब निःसहाय होते हुए कहा। "अपने मित्र के लिए।"


"वह चाहता है कि मैं तुमसे बात करूँ। तुम्हें समझाऊँ। उसे ना कहकर मैं उसे और दुःखी नहीं करना चाहता था। लेकिन मैं नहीं जानता कि मैं तुम्हें क्या समझाऊँ। तुम दोनों का सम्बन्ध मेरे अनुभव से आगे निकल चुका है, रागिनी। वैवाहिक जीवन के इस भाग को मैं कभी जान ही नहीं पाया। फिर कैसे?" ऋषभ ने कहा।


ऋषभ का वह अन्तिम वाक्य पुनः पुरानी बातों को सञ्जीवन कर गया। एक क्षण पहले ऋषभ के पक्षपात का जो भाव रागिनी के मन में उमड़ा था, वह सहसा सागर की लहरों की तरह टूट गया। वह इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी जब वे दोनों पहली बार मिले, तब भी वह उसके सामने अपने वैवाहिक जीवन की समस्याएँ लेकर बैठ गयी! गौतम भी इतना कठोर कैसे हो सकता है कि अपने सबसे अच्छे मित्र को इस तरह का उत्तरदायित्व दे दिया, जो उन दोनों को कम, और ऋषभ को अधिक दुःख देगा? जब ऋषभ को उनकी आवश्यकता थी तब तो वे वहाँ नहीं थे। फिर अब कैसे?


"ऋषभ!" रागिनी करुणस्वर में बोली। "क्या तुम मुझे माफ कर पाओगे?" इतना कहते ही उसकी आँखें भर आयीं।


"किस लिए?" ऋषभ ने शुष्कस्वर में पूछा।


"तुम जानते हो किस लिए। हमारे जीवन के सारे सुख-दुःख में तुम हमारे साथ रहे, लेकिन तुम्हारे दुःख में हम तुम्हारे साथ नहीं थे।" रागिनी के हृदयाश्रु अब आँखों से बहने लगे।


"इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं थी। वह समय ही ऐसा था कि किसी का यहाँ होना सम्भव नहीं था।" ऋषभ के स्वर में कोई कम्पन नहीं था। "तुम स्वयं को दोष मत दो।"


"मेरी आँखों के सामने आज भी नियति का केवल हँसता हुआ चेहरा है। मैं उस स्मृति को कभी भूलना नहीं चाहती।" रागिनी बोली।


ऋषभ के स्मृतिपट पर सहसा नियति की अन्तिम अवस्था का चित्र सञ्जीवन हो उठा। वह भी यही चाहता था कि उसकी स्मृति में आजीवन ही नियति का केवल हँसता हुआ चेहरा रहे। किन्तु यह सम्भव नहीं था। अच्छी स्मृतियों के साथ-साथ उसके हृदय में वे वेदनायुक्त स्मृतियाँ भी हमेशा रहेंगी। वह गर्भवती थी जब...


"माँ... कहाँ हो तुम?" एक छोटे बच्चे के स्वर ने ऋषभ को विचलित कर दिया।


षड्ज दौड़ता हुआ बारजा में आया। ऋषभ की आँखें क्षणभर के लिए उस बच्चे के चेहरे पर जा ठहरीं। अपनी माँ को देखकर उस बच्चे के चेहरे पर उभरे स्मित को वह पलभर निहारता रहा। षड्ज रागिनी से इस तरह लिपट गया जैसे वर्षों से उससे दूर रहा हो। रागिनी ने अपने अश्रु उसकी आवाज़ सुनने के साथ ही पोंछ लिए थे। लेकिन ऋषभ ने देखा कि सात वर्ष के षड्ज की आँखों में उसके पिता की, गौतम की, छवि स्पष्ट दिखती थी। और तभी ऋषभ के अन्तस्तल पर सहसा एक और स्मृति उभर आयी:


"नियति, तुम ही इसके लिए कोई नाम रख दो। क्योंकि तुम्हारी सन्तान का नामकरण मुझे करना है। आखिर अब कुछ ही महीनों की तो बात है।" रागिनी ने अपने नवजात पुत्र को नियति के हाथों में देते हुए कहा था। "अमरीका में चाहे इसे कोई जो बुलाए, लेकिन इसका नाम तो देशी और विशिष्ट होना चाहिए।" रागिनी ने हँसते हुए कहा था।उस समय ऋषभ वहीं खड़ा उन्हें देख रहा था।


नियति ने उस नवजात की ओर एक दृष्टि की और तुरन्त बोल उठी, "छोटा गौतम है यह तो!"


"गौतम द्वितीय रख दो फिर।" ऋषभ ने विनोदी स्वर में कहा था।


"माँ कहती हैं कि बाबूजी ने इनका नाम द्वितीय स्वर पर रखा था। ऋषभ।" नियति ने कहा। "मेरे लिए तो एक पुरुष में होने वाले सारे गुण ऋषभ में हैं। मेरे लिए वे सर्वोत्तम पुरुष हैं। लेकिन मैं चाहूँगी कि तुम्हारा पुत्र उनसे भी उत्तम बनें। इसीलिए मैं चाहूँगी कि इसका नाम स्वरों में प्रथम 'षड्ज' हो... यदि तुम लोगों को पसन्द हो तो।"


"इससे बेहतर नाम शायद मैं भी न सोच पाती।" रागिनी ने सौम्य स्मित के साथ अपनी स्वीकृति देते हुए कहा था।


"और गौतम से तो पूछ लो।" नियति ने कहा था।


"ऐसे जटिल कामों का जिम्मा तो वह हमेशा ऋषभ पर डालकर जाता है। वैसे भी उसने कहा है कि हम जो निर्णय लेंगे वह उसे स्वीकार्य होगा।" रागिनी ने हँसते हुए कहा था।


और तभी एक स्वर के साथ ऋषभ जाग गया।


"आप यह बहुत अच्छा बजाते हैं।" षड्ज सितार की ओर ऊँगली करते हुए बोला। ऋषभ के विषण्ण मुख पर सहसा हास्यरेखाएँ उभर आयीं।


"अच्छा! तुम सीखना चाहोगे?" ऋषभ ने पूछा।


"हाँ।"


"तुमसे ही इसका आरम्भ होता है।" ऋषभ ने कहा।


"मतलब?" बच्चे को उसका अर्थ समझ नहीं आया। लेकिन इससे पहले कि वह अपना कुतूहल शान्त कर पाता, रागिनी ने उससे कहा, "अगले वर्ष से तुम्हारी तालीम शुरू होगी, तब बताऊँगी। अभी नीचे जाकर दादी के साथ बातें करो।"


षड्ज अपनी माँ की आज्ञा का पालन करते हुए पुनः नीचे चला गया।


"काफी आज्ञाङ्कित लड़का है।" ऋषभ ने कहा।


"और अपने बाप की तरह शैतानी भी।" रागिनी हँसती हुई बोली।


"तुम जिस रिश्ते से भागने की कोशिश कर रही हो, यह उसका ही एक भाग है, रागिनी।" ऋषभ ने गम्भीर होते हुए कहा। "हमारे यहाँ विवाह पश्चिमी संस्कृति की तरह नाज़ुक नहीं होता। और तुम्हारा तो होना भी नहीं चाहिए। तुमने तो उससे शादी की है जिससे तुम प्रेम करती हो।"


रागिनी को हृदय के किसी एक कोने में शायद इस अन्तिम वाक्य पर सन्देह था। व्यक्ति जिस समय जिस परिस्थिति में जिसे चुनता है, वह हर समय हर परिस्थिति में उसे ही चुने यह आवश्यक तो नहीं! और शायद उसका यही भय उसे इस सोच पर ले आया है। उसे भय था कि कहीं उसका चुनाव गलत सिद्ध न हो जाए। और यह कोई पहली बार नहीं था कि उसे इस बात पर सन्देह हुआ हो। इस शङ्का का बीज शायद बारह वर्ष पहले बोया गया था, जब किसीने उससे कहा था... या शायद उससे भी पहले... जब उसे पहली बार गौतम के प्रति आकर्षण का बोध हुआ था। रागिनी को आज भी वह दिन याद था:


"गौतम तुम से प्रेम करता है इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है, रागिनी।" रति ने कहा था। "और तुम भी यही कहती हो कि तुम गौतम से प्रेम करती हो। लेकिन व्यक्ति जिस समय जिस परिस्थिति में जिसे चुनता है, वह हर समय हर परिस्थिति में उसे ही चुने यह आवश्यक नहीं है। क्या गौतम और तुम्हारा जीवन सच में एक दूसरे में घुल सकता है?" बारह वर्ष पहले रति ने उससे यह प्रश्न किया था। "तुम्हारे लिए प्रेम के अलावा ऐसा क्या है जो जीवन को पूर्णता देता है? और वह पूर्णता कौन दे सकता है? इस पर विचार करके ही कोई निर्णय लेना।"


रागिनी ने अब ऋषभ की ओर दृष्टि की, शायद एक अलग अपेक्षा से। वह तो ऋषभ को बचपन से जानती थी। जिस ऋषभ में नियति को, जो उसे केवल कॉलेज से जानती थी, उसे यदि ऋषभ में सर्वश्रेष्ठ पुरुष के गुण दिख सकते हैं, तो क्या उसे स्वयं उसमें वे गुण कभी नहीं दिखे? और यदि उसे दिखते भी तो क्या ऋषभ उससे प्रेम कर सकता? शायद नहीं। क्योंकि ऋषभ ने उसे केवल अपनी घनिष्ठ मित्र ही माना है। इसीलिए तो वह नियति से प्रेम कर बैठा। किन्तु फिर नियति और रागिनी में समानताएँ भी अत्यधिक थीं।


'क्या नियति में उसने मुझे देखकर-' रागिनी ने अपने इस विचार को वहीं पर रोक दिया। वह आगे बढ़ना नहीं चाहती थी। वह स्वयं को वह आशा देना नहीं चाहती थी। हो सकता है कि यदि समयानुसार इस कहानी में कोई मोड़ आया होता तो उनका वर्तमान ही कुछ भिन्न होता। लेकिन इस 'यदि' में अब एक दशक से अधिक वर्षों का अंतर था।


"तुम्हारे उस निर्णय पर चाहे तुम्हारा कोई दायित्व न रहा हो, लेकिन तुम्हारे इस निर्णय पर दो और जीवन का उत्तरदायित्व है। अगर तुम्हें एक बार गौतम से प्रेम हुआ है, तो वह दोबारा क्यों नहीं हो सकता? यदि तुम उसमें एक बार जीवनसाथी देख सकती हो, तो दोबारा क्यों नहीं?" ऋषभ ने कहा।


ऋषभ ने सत्य ही तो कहा था। अगर व्यक्ति ने एक बार किसीसे प्रेम किया हो तो उसका कोई कारण अवश्य होता है। चाहे वह कारण इतना बड़ा न हो कि वह उन्हें राधाकृष्ण का प्रेम दे सके; लेकिन वह कारण उसे फिर से गौतम के समीप ला सकता है। रागिनी ऋषभ के साथ के उस अनिश्चित भविष्य की ओर यदि चलना भी चाहती तो उस पर अडिग न रह पाती। और ऋषभ का क्या? वह तो वैसे भी एक अनन्त वेदना में था। क्या वह उस भविष्य को स्वीकार करता जो उसने कभी देखा ही नहीं? नहीं, इससे बेहतर था उस निश्चित भविष्य की ओर प्रयाण करना, जिसमें वह एक बार पहले भी सफल ही चुकी है। वह सम्भव है। किन्तु इन कुमाऊँ की पहाड़ियों में नहीं। सीएटल में...


वह जानती थी कि यहाँ, हिमालय की इस अनन्त नीरवता में, केवल एक ही प्रेम सम्भव है। ऋषभ और नियति का। जो अनन्त अन्तर से भी विचलित नहीं होता। हिमालय के इन हिमशैलों की स्थावरता का एक रहस्य यह भी है कि वे मानवों से श्रेष्ठ हैं। इनमें युगों-युगों तक निवास करने वाला शिव और पार्वती का शिवप्रेम है। इनमें प्रेम सत्त्व की धारा है।


"तुम प्रयास करोगी?" ऋषभ ने पूछा।


रागिनी का मार्ग स्पष्ट तो नहीं था, किन्तु उसने अनिश्चित गन्तव्य वाले मार्गों को पहचान लिया था। इसलिए उसका चयन अब सहज था। उसने निःशब्द ही 'हाँ' में शीश हिलाया और फिर कुछ देर तक वह हिमवर्षा को देखती रही। जब ऋषभ पुनः सितार उठाने लगा तो वह बोली, "ऋषभ!"


ऋषभ ने रुककर उसकी आँखों में देखा। रागिनी की आँखों में अश्रु झिलमिला रहे थे।


"भाग्य का खेल मेरी समझ से पर है। लेकिन तुम्हारी वेदना से पीड़ा मुझे भी हुयी है।" रागिनी ने करुणस्वर में कहा। "इस वेदना में कब तक जीते रहोगे?"


"यह वेदना नहीं; प्रतीक्षा है।" ऋषभ ने मन्दस्वर में उत्तर दिया।


ऋषभ ने सितार पर अपनी उँगलियाँ रखीं और आँखें बन्द करके नियति के साथ अपनी उस स्मृति को याद करने का प्रयास किया जो उसे सबसे अधिक आनन्द देती थी। और जब मधुस्मिता नियति का वह स्नेहार्द्र चेहरा उसके हृदय पर छा गया तब उसने अपना सर्वाधिक प्रिय राग छेड़ा।


रागिनी यह देखती रही और उसके स्मृतिपटल पर एक और दृश्य उभर आया:


"तुम जानती हो मालकौंस की कथा?" रागिनी ने नियति से पूछा था, उस दिन, जब दोनों साथ बोले थे कि ऋषभ का सर्वाधिक प्रिय राग मालकौंस है।


"नहीं..." नियति ने उत्तर दिया था।


"वेदना से विचलित शिव के मन को शान्त करने के लिए स्वयं शैलजा के कण्ठ से इस राग की उत्पत्ति मानी जाती है।" रागिनी ने उससे कहा था।


यहाँ, रागिनी अन्ततः ऋषभ के सङ्गीत में शब्द पिरोते हुए गाने लगी।


"सियनयनों को स्मरते राघव, नयन बहाए नीर...

शोकाकुल रघुवीर..."


-: इति :-

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