नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 66 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 66

66

आँसुओं की नमी ने विलास की बंद आँखों में हलचल पैदा कर दी | धीरे से आँखें खोलकर उन्होंने इंदु पर एक स्नेहयुक्त मुस्कान डालने की चेष्टा की | 

“आ गईं तुम ? मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था | ”विलास के क्षीण स्वर इंदु के कानों से टकराए | उसकी अश्रुपूरित बंद आँखें खुलीं | वह विलास के वक्ष से ऐसी बेल की भाँति लिपट गई जो टूटने की स्थिति में तत्पर हो | 

“इंदु ! मुझे माफ़ करना, मैं तुम्हारा साथ नहीं निभा पाया ---” स्वर टूट गए ।प्रिय से मिलन की प्यासी इंदु ने विलास को अपने आलिंगन में कसकर कैद कर लिया था, उस आलिंगन को अब कोई नहीं छुड़ा सकता था | आत्मा का आत्मा से मिलन हो चुका था | 

अचानक सब कुछ समाप्त हो चुका था | बहादुर व उसके परिवार का बुरा हाल था | बहादुर के लिए प्रो.पति-पत्नी ही उसके देवी-देवता थे और उनकी सेवा ही उनकी पूजा, उसका नित्य कर्म था | 

दोनों के पार्थिव शरीर शव-गृह में रखे गए | सारांश व समिधा के आने के पश्चात दोनों के संस्कार एक साथ किए गए | जीवन भर की साधना के पश्चात यह प्रेम का एक अप्रतिम उदाहरण था | किसने क्या खोया ? क्या पाया ? यह काल के गर्भ में समा गया था | सारांश, समिधा तथा इस परिवार की आत्मा से जुड़े हुए लोगों का सर्वस्व लुट गया था | 

तेरहवीं के दिन हंसराज वर्मा वकील साहब ने सारांश को एक वसीयत थमाई थी | इनको सारांश अपने बचपन से वकील चाचा कहता था | वसीयत पकड़ते हुए सारांश वकील चाचा से लिपटकर ज़ार-ज़ार रो पड़ा | विलास बेटे के लिए बहुत कुछ छोड़ गए थे, वहीं बहादुर व उसके परिवार तथा अपने घर पर सेवाएँ देने वालों के लिए भी प्रोफ़ेसर पर्याप्त धन छोड़ गए थे| क्या प्रोफ़ेसर विलास को अपने भविष्य का चित्र दिखाई दे गया था ? इसका उत्तर किसी के पास नहीं था, वकील चाचा ने बताया था कि लगभग छह माह पूर्व ही प्रोफ़ेसर ने इन्दु की अनुपस्थिति में अपनी वसीयत करवाई थी| 

बार-बार प्रश्नों में कैद सारांश का मन पिता के इस व्यवहार के बारे में सोचने को बाध्य हो जाता कि पापा का स्नेह व ममता उसके मन के किस कोने में छिपे बैठे थे? पापा उसके लिए इतना कुछ छोड़कर गए परंतु साथ ही ऐसी नुकीली कसक भी छोड़ गए जो आजन्म उसके भीतर चुभने वाली थी !सारांश के मन में बार-बार यही सोच उभरती, काश!वह पापा के मन की बात जान पाता| 

बहादुर का सारा परिवार इलाहाबाद छोड़कर सारांश के पास अहमदाबाद आ गया | इलाहाबाद में प्रोफ़ेसर के घर के अतिरिक्त उसने कहीं कोई काम नहीं किया था | वह समिधा को ऐसी स्थिति में छोड़ना भी नहीं चाहता था, उसका सर्वस्व प्रोफ़ेसर का ही परिवार था | सारांश की मन:स्थिति डांवाडोल थी, वह स्वयं एक ऐसे मोड़ पर था कि उसे कोई मार्ग सुझाई नहीं दे रहा था | उसके लिए अहमदाबाद का वातावरण नया था, वहाँ का काम नया था| हाल में उसे एक बँगले में ऊपर का तीन कमरों का घर मिला था, जिसे माँ अपने स्नेह व दुलार से सजा गई थी | 

संभव नहीं था वह सब लोगों को उसी घर में समेटकर रख सके, ऊपर से समिधा की गर्भावस्था ! वह बहादुर के परिवार को इलाहाबाद छोड़कर भी नहीं आ पा रहा था लेकिन बहादुर के परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित थी | जहाँ सारांश को नए दफ़्तर का प्रभारी ‘इंचार्ज’ बनाकर भेजा गया था वहीं दफ़्तर में उसे एक कैंटीन की व्यवस्था करने का आदेश आया | कहा जाता है कि भाग्यानुसार प्रत्येक मनुष्य की व्यवस्था हो जाती है | बहादुर का भाग्य ऐसा खिला कि उसकी सारी समस्याओं का समाधान होता चला गया | 

बहादुर को सारांश के दफ़्तर में कैंटीन का काम मिल गया | साथ ही रहने के लिए कैंटीन के पास एक कमरा भी | बड़े शहर में छत कठिनाई से ही मिल पाती है | समिधा की गर्भावस्था में उसे भी देखभाल के लिए किसी की आवश्यकता थी | चंदा और उसकी माँ समिधा की देखभाल के लिए समिधा के पास आ गईं थीं और बहादुर व उसके बेटे दीवान ने उत्साह से कैंटीन का काम शुरू किया, वे नए सिरे से जीवन-युद्ध के लिए तैयार थे | 

दीवान की वकालत की पढ़ाई बीच में रह जाने का सबको अफ़सोस था परंतु पहले जीवन से जुड़ी समस्याओं के समाधान तलाशने थे | इस जीवन में किसको संघर्षों में अपनी आहुति नहीं देनी पड़ती ?बस, स्वरूप भिन्न होते हैं | नए स्थान पर बहादुर के परिवार के कारण सारांश को अब समिधा की चिंता नहीं रह गई थी | बहादुर की पत्नी सुमित्रा अनुभवी व समझदार थी | अब घर पर इन महिलाओं की उपस्थिति के कारण सारांश अपने नए दफ़्तर को अधिक समय दे सकता था | दीवान पिता के साथ कैंटीन काम भी करता और आवश्यकता पड़ने पर कार भी चलाता | सारांश के लिए नई शाखा को जमाना, उसकी व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती थी | उसे स्वयं को सिद्ध करना था और उसके लिए समय व ऊर्जा दोनों की आवश्यकता थी | 

इस समय सारांश का पिता बनने का उत्तरदायित्व भी बहुत बड़ा था | यह संसार का न जाने कैसा चक्कर है कि मनुष्य अपने अंत से परिचित है फिर भी नवांकुरों को जन्म देता रहता है | उनको फलते-फूलते देखना चाहता है| अपनी नई पीढ़ी पर अपनी ज़िंदगी न्योछावर कर देने के लिए तैयार रहता है | 

सारांश की देखा-देखी समिधा बाहादुर की पत्नी को सुमित्रा चाची कहती, सुमित्रा उसे बहुरानी कहने लगी थी | इंदु को सुमित्रा बहू जी कहा करती थी | सारांश के छुटपन से ही सुमितत्रा ने उसे बाबू कहकर पुकारा था | सुमित्रा अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी पर समझदार काफ़ी थी, वह सलीके वाली महिला थी| उसके घर पर रहने से सारांश काफ़ी निश्चिंत रहता | 

“जीवन इतनी तकलीफ़ें क्यों देता है ? माँ मेरे पास नहीं है ---मुझे विश्वास नहीं होता चाची “कभी-कभी सारांश अधिक भावुक हो उठता तब सुमित्रा से मन की बात कह देता| जहाँ तक संभव होता सारांश समिधा के सामने इस बात को नहीं छेड़ता था| 

“बाबू ! जो आया है, उसे जाना तो है ही –ये सब तो समय का चक्कर है, जो होना था वो तो हो गया पर बाबू इस समय बहूरानी का ध्यान रखना फर्ज़ है हमारा | आप परेशान होंगे तो वो आपसे ज़्यादा परेशान होंगी | सुमित्रा चाची की भाषा बेशक कमज़ोर थी पर उस भाषा में माँ के विचारों की झलक दिखाई देती थी | वह कहती थी कि ‘जो थोड़ा बहुत सीखा है बहू जी से ही तो सीखा है | ’सुमित्रा और चंदा समिधा के पास ही बनी रहीं | समय पर समिधा ने एक बेटे को जन्म दिया और उससे अगले वर्ष ही उसके जीवन में एक प्यारी सी बिटिया आ गई, बिल्कुल इंदु माँ जैसी ! सारांश ने जैसे माँ को अपने समीप पा लिया | 

बिटिया को देख सारांश फूला नहीं समाता था| उसे लगता इंदु ने समिधा के गर्भ से जन्म लिया है| उसकी आत्मा भर -भर जाती और नेत्र नम हो जाते | समिधा के पिता दिल्ली से उनके पास आते-जाते रहते थे | मानसिक व शारीरिक रूप से वे अब काफ़ी अशक्त हो गए थे |