नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 63 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 63

63

अगले ही दिन रोज़ी व जैक्सन का भी आरक्षण हो गया और दो दिन बाद वे सब दिल्ली थे | समिधा विवाह के बाद पहली बार पापा के पास आई थी, वह भी बिना बताए | पापा के हर्ष का ठिकाना न था | उन्होंने अपनी बेटी-दामाद के साथ रोज़ी और जैक्सन का भी वैसा ही सत्कार किया जैसा अपने बेटी-दामाद का किया था | 

समिधा व सारांश को देखकर सूद आँटी इतनी प्रसन्न हो उठीं जैसे उनकी अपनी बेटी पहली बार ससुराल से आई हो | उनसे पूछकर पापा ने जो बेटियों को लेना-देना होता है, वह सब भी कर डाला | सूद आँटी व अंकल भी फूले नहीं समा रहे थे| उन्होंने समिधा व सारांश को कई मूल्यवान उपहार दे डाले | 

रिश्ते नाज़ुक छुअन होते हैं, मन को छू लेते हैं, मन में बैठ जाते हैं, पसर जाते हैं, मन की देहरी पर ज़िंदगी भर जमे रहते हैं | आवश्यक नहीं होता कि ये रिश्ते एक खून से ही बने हों ! ये किसीके भी साथ बन सकते हैं | इनकी न कोई सीमा होती है, न कोई बंधन और न कोई जात-पाँत !बस—ये तो एक-दूसरे की संवेदना से जुड़ जाते हैं, सबको अपना बना लेते हैं | 

दिल्ली में रोज़ी और जैक्सन घूमने गए परंतु सारांश पिता के प्यार की गरमाहट को समेटता समिधा के पापा के साथ हर पल बना रहा | उसने समिधा के पापा को यह एहसास पल भर को भी नहीं होने दिया कि वह उनका बेटा नहीं दामाद है| ऐसे जुड़ते हैं रिश्ते संवेदना से ! सुम्मी के पापा का मन बार-बार भर आता | काश ! उनकी पत्नी दयावती आज होती तो अपनी बेटी का सुख देखकर कितनी प्रसन्न व संतुष्ट होती किन्तु प्रत्येक वस्तु का समय सुनिश्चित होता है और उसका होना, न होना भी निश्चित होता है | 

“पापा! आप भी हमारे साथ चलिए न इलाहाबाद “सारांश ने अपने श्वसुर के समक्ष एक बच्चे की भाँति सहज रूप से प्रस्ताव रख दिया | 

“नहीं बेटा, इस बार आप लोग हो आइए, फिर कभी चलूँगा आप लोगों के साथ | ”

अपनी एकमात्र बिटिया के सुख को देखकर वे संतुष्ट थे, एकाकी जीवन उनका प्रारब्ध था | अभी उनकी नौकरी के कई वर्ष शेष थे और वे अस्वस्थ रहने लगे थे | 

संभवत: यह कहावत उन पर सटीक बैठती थी कि आदमी युवावस्था में तो किसी न किसी प्रकार अपनी मस्ती में रह लेता है पर प्रौढ़ावस्था में उसे किसी साथी की आवश्यकता महसूस होती है जिसके साथ अपने सुख-दुख बाँटकर वह हल्का हो सता है | 

दिल्ली से इलाहाबाद जाने के पूरे मार्ग में सारांश के मन पर नौ-नौ मन के पत्थर रखे हुए थे | वह सोच रहा था, अच्छा हुआ समिधा के पिता उनके साथ नहीं आए । कभी लगता अच्छा ही रहता यदि रोज़ी तथा जैक्सन की उपस्थिति में वे मिल लेते | घर पहुँचने से पूर्व सारांश अपने पिता के व्यवहार के बारे में शंकित ही रहा | एक ओर प्रसन्न था कि रोज़ी तथा जैक्सन भी साथ थे, दूसरी ओर एक आंतरिक घुटन उसे असहज कर रही थी | न जाने पापा उससे कैसा व्यवहार करेंगे ?उसे अपनी पत्नी व मित्रों के समक्ष शर्मिंदा तो नहीं होना पड़ेगा ?भय की एक चुभन उसके अन्तर को चीरती रही थी | 

मित्रों से बात करते समय वह कहीं खोया रहा, समिधा उसके भीतर का मंथन समझ रही थी | साथ ही वह सारांश के नकारात्मक विचार से अप्रसन्न भी थी | इतना भी क्या भय ? ठीक है, पापा सारांश को अधिक समय नहीं दे पाए परंतु वे पिता हैं, उन्हें सारांश से स्नेह न हो, यह कैसे हो सकता है ? बेकार ही सारांश के मन में पापा के प्रति एक गाँठ पड़ी हुई है, इसका खुलना बहुत ज़रूरी है | ये गाँठें ही तो नासूर बनकर मनुष्य को ताउम्र बेचैनियों से घेरे रखती हैं और रिश्तों में फोड़ा बनकर फूटती हैं | समिधा अपने इलाहाबाद के आने के निर्णय से बहुत प्रसन्न थी | 

“सारांश ! मैं सच ही बहुत भाग्यशाली हूँ जो मुझे तुम जैसा जीवन-साथी और माँ-पापा जैसे सास-श्वसुर मिले हैं | ” समिधा ने कितनी बार यह बात सारांश से दोहराई थी | वह पापा के बारे में कुछ इस प्रकार बात करना चाहती थी कि सारांश को उसका पूछना न चुभे | 

ये रेशम से नाज़ुक रिश्ते बहुत जल्दी उलझ जाते हैं | समिधा अपने श्वसुर व अपनी सास के बीच के रिश्ते को देखकर कुछ ऐसी ही समझी थी, | संभवत: किसी छोटी बात पर मनमुटाव होने से कोई गाँठ उनके दिलों में इतनी पक्की हो गई है जो खुलने का नाम ही नहीं ले रही है | वह अपने सास-श्वसुर के जीवन –बगिया में फिर से बहार भर देगी, उसने मन ही मन सोचा | 

सारांश प्रसन्न तो था ही, आश्चर्यचकित बहुत था | पापा ने उसे अपने गले से लगा लिया था | उसे पापा से गले मिलने की कोई स्मृति नहीं थी | हाँ, उसे पापा के बालपन का साथ बार-बार याद आता और वह मायूस होता रहता | न जाने क्यों जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, वैसे-वैसे पापा उससे दूर होते गए | यह उसके लिए एक रहस्य था | उसके सभी मित्रों के पिता उनके बड़े होने पर उनके समीप आ गए थे | उसने कहावत सुनी हुई थी कि जब बेटे के पैर में पिता का जूता आने लगता है तब बेटे के साथ मित्रता का व्यवहार किया जाता है | उसके पैर में तो बहुत जल्दी उसके पिता का जूता आने लगा था परंतु उसे मित्रवत क्या पिता-पुत्र के मृदुल व्यवहार से भी दूर रहना पड़ा था | 

“पापा कितने प्यार से आपके गले मिले थे सारांश !”समिधा ने वापिस आकर सारांश से पापा के स्नेह का ज़िक्र करते हुए कहा था | 

“हूँ ---यह सब तुम्हारा प्रताप है | इस बार पापा के व्यवहार को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया हूँ लेकिन बहुत खुश हूँ –सच ! समिधा, यह तुम्हारे कारण ही संभव हो सका है | ”सारांश वास्तव में खुश था पर उसके मन में अपने पिता के रिश्ते को लेकर अनगिनत प्रश्न थे जिनके उत्तर माँ को या तो मालूम नहीं थे अथवा वे उसे बताना नहीं चाहती थीं | 

“कभी, किसी गलतफ़हमी में मनुष्य का जीवन अटककर रह जाता है | हो सकता है पापा अपने काम के लिए कुछ अधिक ही गंभीर हों इसीलिए वो तुम्हें व माँ को अधिक समय न दे पाए हों !” समिधा सदा सारांश के मन से पापा के लिए नकारात्मक भावना निकालने का प्रयास करती रही थी | 

बहुधा हम दुख-सुख की बात करते रहते हैं पर उस आनंद को भूल जाते हैं जो हमारे भीतर है | सच्चा सुख उसी आनंद में है जो हमें भीतर से स्फुरित करता है | सारांश की अपने पिता के छोटे से बदलाव से आनंदानुभूति होने लगी थी, बहुत प्रसन्न था वह !

“मैं इस बार के ट्रिप से बहुत खुश हूँ | जैक्सन और रोज़ी को पापा और माँ ने कितना स्नेह दिया, अच्छा था अगर दिल्ली से पापा भी चलते | सारांश के चेहरे पर कुछ अलग सी रौनक दिखाई देने लगी थी मानो उसकी कोई खोई हुई वस्तु प्राप्त होने के आसार हों | 

माँ एक बात पूरे विश्वास से कहा करती थीं ---

‘जहाँ चाह-वहाँ राह‘उसकी इस सोच को आगे बढ़ाने में अब इंदु माँ थीं | वह न तो अपना काम छोड़ना चाहती थी, न ही अध्ययन और न ही सारांश को ! वह ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो गई थी जहाँ से जाने के लिए मार्ग का चयन करना उसके लिए कठिन हो रहा था | सारांश का तबादला अहमदाबाद हो गया था | 

सारांश ने समिधा को उसकी इच्छा पर छोड़ दिया था, वह जैसा चाहे करे | बंबई में रहना चाहे वहाँ रहे या अहमदाबाद उसके साथ चलना चाहे तो और भी अच्छा ! समिधा ने अपने पिता की मजबूरी के दिन देखे थे, जीवन कब, किसे ठेंगा दिखा दे, इसका कोई समय नहीं होता और जीवन बहुत बहुमूल्य है, इसका एक-एक क्षण ! उसके माँ-पापा की स्थिति कुछ ऐसी थी कि परिवार के पोषण के लिए पति-पत्नी को भिन्न स्थानों पर रहना उनकी मज़बूरी थी –क्या यह उसकी मज़बूरी है ? उसने यही दुविधा इंदु के समक्ष रख दी | 

“तुम बिलकुल सही सोच रही हो बेटा ।समय-समय की बात होती है | तुम्हारी ऐसी कोई मज़बूरी नहीं है ।तुम्हें अपनी गृहस्थी पर अधिक ध्यान देना चाहिए, यह मेरी सोच है | तुम्हारे ऊपर इसे थोपने का मेरा कोई इरादा नहीं है | वैसे तुम व सारांश जो भी निश्चित करोगे, वही सही होगा | दूसरे शहर में भी तुम्हारे लिए, तुम्हारी इच्छानुसार कुछ अवश्य ही मिल जाएगा | 

‘Where there is a will, there is a way’तुम समझदार हो बेटा | ’इंदु माँ के इन शब्दों से गर्त में समाई माँ के शब्द उसकी स्मृति में महकने लगे ‘जहाँ चाह, वहाँ राह।ऐसे ही माँ की महक कहीं से भी उभर आती थी | कभी किसी घटना से, कभी किसी चित्र से, मौसम के बदलने से और अब इंदु माँ के माध्यम से मानो उसकी अफ्नी माँ के शब्द शीतल झरने से बहती शीतलता प्रदान कर जाते थे | 

एक महका हुआ शीतल समीर का झौंका समिधा को घेर लेता और वह अधिक संवेदनशील हो उठती | इंदु ने समिधा को अपरोक्ष रूप से कम शब्दों में सब कुछ समझा दिया था जिसकी गंभीरता को समिधा समझ गई थी | 

“सारांश ! मैं अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर तुम्हारे साथ चल रही हूँ | ”

“तुम उस नौकरी को छोड़ रही हो जिसके लिए तुमने इतने पापड़ बेले ? सारांश से सब कुछ ही तो साझा किया था समिधा ने ! इसीलिए सारांश की इच्छा थी समिधा खूब भली-भाँति सोच ले, वह अपनी इच्छानुसार यदि अपने काम के सिलसिले में बंबई में भी रुकना चाहे तो भी सारांश को कोई आपत्ति न थी | 

अहमदाबाद में अभी दूरदर्शन की स्थापना भी नहीं हुई थी कि उसके स्थानांतर के बारे में सोचा जा सकता | अभी उसे नए सिरे से स्थापित होना था लेकिन इंदु माँ से बात करके यह स्पष्ट हो चुका था कि अपने सामने आए मार्गों में से उसे किस मार्ग पर चलने का चुनाव करना है | अपने रिश्ते के साथ समझौता करने का उसका कोई इरादा नहीं था | साथियों से बिछुड़ने का दुख था परंतु सारांश जैसे पति के साथ अपना सुख, अपना आनंद, जीवन जीने की शिद्दत, यह उसके लिए महत्वपूर्ण थे| 

इंदु पुत्र के विवाह के पश्चात दो बार बंबई आ गई थी और घर-गृहस्थी के आवश्यक साजो-समान से पुत्र व पुत्रवधू का घर सजा गई थी | अब उस सबको अहमदाबाद साथ ले जाने के लिए उन्हें तैयारी करनी थी | बच्चों की सहायता करने इंदु दौड़ी चली आई | 

“सच, माँ यही होती है | ” समिधा सास के गले लगकर भावुक हो जाती थी | इंदु के स्नेह व ममता का आँचल इतना विस्तृत था कि उसमें सब कुछ समा जाता, सब रिश्तों की गर्माहट, जीवन की कसमसाहट, सबको वह अपने आँचल में छिपकर रखती| 

सारी भावनाएँ, संवेदनाएँ उसके पल्लू में ऐसे बँधी रहतीं जैसे किसी दक्ष गृहणी की साड़ी के पल्लू के किनारे पर छुट्टे पैसे बंधे रहते हैं | जब आवश्यकता हो पल्लू की गाँठ खोली और निकालकर दे दिए | समिधा को इंदु का बार-बार का ममता के आँचल में समेट लेना बहुत अच्छा लगता | उसे लगता वह एक नन्हा बच्चा है जो चाहे कितना भी भूखा हो, किसी भी पीड़ा से रो रहा हो माँ की गोदी की ममताली सुगंध मिलते ही ऐसे चुप हो जाता है जैसे ममता के साए तले सुख की निश्चिंत निद्रा ! उसे न तो कोई चिंता रहती थी माँ के आगोश में दुबककर न कोई परेशानी, न कोई पीड़ा !

वैसे भी जबसे सारांश उसके जीवन का अंग बना था वह अपने प्रति आश्वस्त हो चुकी थी | सारांश ने पत्नी को इतने विस्तृत पंख दे दिए थे कि उसके उड़ान की दिशा दिग्भ्रमित हो जाती और वह दुविधा में पड़ जाती | उन क्षणों में इंदु माँ उसके पास होती थीं | वे उसके लिए हर पल थीं, बस उसके कुछ कहने भर की देर होती | 

रिश्तों का शरीर के पास होना आवश्यक नहीं होता, आवश्यक होता है मन की बात समझ पाना | इंदु माँ सबके मन की बात, सबकी परेशानी ही तो समझती रही थीं, सबकी परेशानियों से जूझती रही थीं, सबकी समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रयत्नशील रही थीं परंतु क्या उन्हें कभी वास्तव में कोई परेशानी नहीं रही थीं ? क्या वे हाड़-माँस की बनी न होकर काष्ठ की बनी थीं ? जो भी हो यह प्रतिमा सबके लिए ढाल बनकर खड़ी हो जाती थी | जैसे उसका अपना तो कुछ था ही नहीं| अलाद्दीन के चिराग की भाँति सारी समस्याओं के हल थे उनके पास किंतु चिराग तले के अंधेरे में किसीने झाँकने का प्रयास किया है क्या ?

माँ की सहायता से सब काम करने में बहुत आसानी हो गई | इस बार माँ अपने साथ घर के रसोइये के उन्नीस-बीस वर्ष के बेटे दीवान को ले आई थीं | माँ ने बहादुर के परिवार को अपने यहाँ पीछे बने ‘सर्वेण्ट्स क्वार्टर ‘में रखा हुआ था | दीवान की एक सोलह वर्षीया बहन भी थी | प्रोफ़ेसर दोनों बच्चों को पढ़ा रहे थे | 

बहादुर ने इस वर्ष बी.ए करके लॉ में प्रवेश लिया था | बचपन से ही इंदु के साथ रहने के कारण उसमें इतना सलीका व तहज़ीब थी कि वह देखने वालों को प्रथम दृष्टि में दिखाईं दे जाती कि उसका लालन-पालन तथा देख-रेख किसी सभ्य वातावरण में हुई है | दीवान प्रोफ़ेसर को अपना पिता ही मानता था | नेपाल से आकर बहादुर ने पूरी ज़िंदगी इस घर में स्वादिष्ट भोजन बना-बनाकर अपनी सेवा दी थी | बहादुर व उसका परिवार सदा उनका गुणगान करता | उनके लिए यह प्रोफ़ेसर का परिवार ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक वरदान था | 

कभी-कभी सारांश तथा दीवान की भेद-रेखा को देखकर इंदु का मन कुम्हला जाता था | प्रोफ़ेसर दीवान से इतने प्रेम व सहानुभूति से बात करते कि अपने पुत्र सारांश का पिता-विहीन होना इंदु के मन में टीस पैदा कर देता | माँ सदा बच्चे के पिता के बारे में जानती है | यहाँ तो माँ का गौरव प्राप्त करने के पश्चात भी इंदु नहीं जानती थी कि उसके लाडले बेटे का पिता कौन है? ज़िंदगी की इतनी तल्ख़ सच्चाई का सामना उसे अपने बच्चे के जन्म से ही करना पड़ा था और ताउम्र इस कटु सत्य से अकेले ही जूझना था | इसमें कोई शक नहीं था कि विलास का दर्द बहुत बड़ा था, उसे एक ऐसे बच्चे को अपना नाम देना पड़ा था जो उसका अंश था ही नहीं | प्रो. ने उसके नामकरण के समय उसे सारांश नाम दिया था | इंदु ने कोई आपत्ति भी नहीं की थी, बस—वह सोचती रही थी किसका ‘सार’ और किसका ‘अंश’? जीवन की भूल-भुलैया में उसका स्वयं का सार तो खो ही गया था | हाँ! पर उसका अंश उसके पास था, वही उस अंश की माँ थी और वही पिता भी |