"मैं यकीन दिलाती हूँ रोहन, तेरे सिवा मेरी जिन्दगी में कोई नहीं था और न कोई है। मेरी बात को यकीन क्यों नहीं करतें ...?"-मोहनी ने दोंनो हाथ जोड़ते हुए अपने पति रोहन से बोली।
"अगर कोई नहीं था तो मैं जो सुनते आ रहां हूँ क्या वह गलत है?"
- रोहन ने गुर्राते हुए मोहनी से सवाल किया था, और मोहनी चुपचाप इन चुभती हुई सवाल को सुनकर शुन्य की ओर देखती रह गई थी।
रोहन को दो वर्ष पहले ही मोहनी से शादी हुआ था । दोनों की जिंदगी बहुत ही खुशी पुर्वक गुजर रही थी, तभी किसी ने रोहन और मोहनी की जिंदगी में जहर घोल दी।
वह कोई और नहीं थी, मोहनी की अपनी हीं बहन मिक्की थीं, जो मन ही मन रोहन की दिवानी थी।
वह चाहती थी कि मैं किसी न किसी प्रकार अपनी बहन और जीजा के जिन्दगी में ऐसी जहर घोलू की रोहन, मोहनी को हमेशा - हमेशा के लिए अपनी जिंदगी से निकाल - बाहर करे।
और मैं मोहनी की जगह, रोहन के जीवन में लें लूं।
बात उस समय की है जब मोहनी की शादी रोहन से पक्की हो गई थी,....। मोहनी उस समय कालेज की पढ़ाई लगभग समाप्त ही कर चुकी थी कि उसके पिता जगदीश बाबू ने रोहन से मोहनी के विवाह तय कर दियें थें।
रोहन देखने - सुनने में बहुत ही अच्छा लड़का था। कहीं से, कोई भी ऐब उसमें कोई निकाल नहीं सकता था।
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वह सरकारी नौकरी में था, इसलिए दहेज भी रोहन के घरवालों ने अच्छा खासा लिया था।
जगदीश बाबू अपनी बेटी मोहनी के लिए अपनी जिंदगी का जमा - पूंजी में से लगभग आधे रोहन को दहेज देने के रूप में खर्च कर दियें थें। और आधे अपनी छोटी बेटी मिक्की के लिए बचा कर रखे थें।
मोहनी और मिक्की के बाद जगदीश बाबू का एक लड़का भी था, जिसका नाम राहुल था जो अभी बहुत छोटा था।
जब मोहनी की बारात आयी तो सबसे ज्यादा कोई खुश थी तो वह थी मिक्की। मिक्की एक नजर रोहन को देखने के लिए इस तरह उतावली हो रही थी जैसा कि रोहन ही उसी का होने वाला पति हो।
खैर बारात भी आयी, और मोहनी को रोहन से विवाह भी हो गया। कुछ दिनों के बाद मोहनी अपने ससुराल से वापस मायके लौटी तो मिक्की दौड़ती हुए मोहनी के पास आयी, और आतें ही बोल पड़ी, - "दीदी जीजाजी नहीं आयें क्या?"
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"नहीं तो उनको अपने काम से फुर्सत हीं कहाँ हैं।" - इतना बोलकर मोहनी उस कमरा में चली गयी, जहाँ शादी से पहले वह रहा करती थी।
मोहनी का कमारा अब पहले जैसा नहीं रह गया था, जो तीन महीने पहले वह छोड़कर गयी थी। कमरा में बहुत कुछ बदल दिया गया था । न वह कैलेंडर ही दीवार पर लटक रहें थें जो मोहनी को कभी बहुत पसंद हुआ करतें थें, और नहीं खिड़की पर लगे हुए वो पर्दे थें, जो मोहनी ने अपने मन की खुबसूरती के हिसाब से लगाई थी।
"मिक्की मेरा कमरा का हुलिया किसने बदल दी....?" - मोहनी उस पलंग पर बैठती हुई बोली, जिसपर कभी किसी को जल्दी बैठने या सोने का वह इजाजत नहीं देती थी।
"मैंने बदली है दीदी।"
-मिक्की ने मोहनी की बातें सुनकर मुस्कुराती हुई बोल पड़ी।
"ये सब करने के लिए तुझे किसने बोला?"
"माँ ने और कौन? ऐसे भी तो तू यहाँ की रही नहीं, और मुझे अपना कमरा में पहले से ही घुटन महसूस होती थी, इसलिए तुझको जातें ही मैंने अपना कमरा बदल लिया।"
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दोनों बहनें बातें कर हीं रही थीं कि माँ हाथ में चाय का दो प्याले लिए हुए कमरा में आयी। तीन मांह में माँ भी बदल गयी थी। कभी सुबह - सुबह जिस चाय बनाने के लिए माँ मोहनी पर चिल्लाया करती थी, आज वही माँ स्वयं अपने हाथों से चाय बनाकर लायी थी मोहनी के लिए । माँ के हाथों से चाय का प्याला लेकर मोहनी स्वयं के अतीत में खोती चली गयी थी।
शादी से पहले वाला समय कुछ और ही था। कितनी आजादी थी। जो मन में आती थी सो करती थी । न कोई टोकने वाला था, और न कोई रोकने वाला।
जिन्दगी फर्राटे से चल नहीं, दौड़ रही थी। कॉलेज के दिनों से लेकर, घर की जिंदगी तक, सब कुछ मोहनी के हिसाब से था।
मोहनी को यह सब सोचते हुए एकाएक कुछ और याद आ गई। वह चाय को प्याला को बगल में रखी और कुछ अजीब नजरों से खिड़की के उस पार देखने लगी।
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उस पार, उसकी नजर एक दो मंजिला मकान पर जाकर टीक गई थी। मकान का निचला तला का वह खिड़की बंद थी, जो मोहनी के कमरा की तरफ खुला करती थीं।
मोहनी कुछ पल तक खिड़की की ओर देखती रही, फिर अपनी नजरें फेर ली। लेकिन उसका मन बार - बार उस खिड़की को ही देखने को कह रहा था।
जब - जब मोहनी अपना कमरा में आती, तब - तब वह खिड़की से बाहर की ओर देखती, लेकिन दो मंजिला मकान का वह खिड़की बंद का बंद ही था।
लगभग पाँच दिन मोहनी को यूं ही मायके में निकल गया, लेकिन वह खिड़की एक - दिन भी नहीं खुली।
मोहनी को यह समझ में नहीं आ रही थी कि उसे क्या हो गया है....?
क्या वह कमरा खाली करके चला गया, जो अक्सर खिड़की से झांक कर मुझको देखकर मुस्कुरा उठता था। लेकिन कभी वह कुछ बोलता नहीं था।
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जब मैं छत पर किसी काम से जाती, तो वह भी भागता हुआ अपने छत पर आता, लेकिन सामने कभी नहीं आता था। वह सीढ़ियों के पास से ही मेरे छत की ओर देखता।
और मुझे छत पर से नीचे उतरने से पहले हीं वह अपने छत पर से नीचे उतर आता था।
वो लगभग एक साल से ऐसा हीं करते आ रहा था, लेकिन न मैं आजतक उसका नाम जान सकी और न कभी वो सामने आने का हिम्मत जुटा पाया।
खैर, इसी सोच-विचार करते-करते पंद्रह दिन मोहनी को मायके में निकल गयें, और एक दिन ससुराल से बुलावा आ गया। मोहनी ससुराल चली गयी ..... ।
दो साल बाद...।
और फिर दो साल बाद मोहनी मायके वापस लौटी तब... ।
अबकी बार मोहनी के साथ में रोहन भी था...।
और...
मोहनी जब दो साल के बाद मायके लौटी तो वह बहुत ही खुश दिखाई दे रही थी, तथा साथ में रोहन भी।
दो साल में इस शहर में बहुत कुछ बदल गया था। जो मोहनी के मकान के इर्द-गिर्द पहले खाली और परीत खेत दिखाई देतें रहतें थें, आज उनमें नये-नये बहुमंजिले मकान बन गयें थें। बड़े - बड़े अपार्टमेंट से लेकर माॅल तक हवा में सिर उठाये बदलते हुए शहर के परिवेश का साक्षी बन रहें थें।
और जहाँ तक मिक्की की बातें करें तो...
मिक्की भी पहले से ज्यादा दो साल के अंदर ही बड़ी दिखाई देने लगी थी। उसका शरीर पहले से कहीं ज्यादा हस्टपुस्ट हो गई थी। मिक्की की बड़ी - बड़ी आँखों में देखने से ऐसा लगता था कि वह पुरी दूनिया को अपने आँखों की गहराई में समेट लेगी। मिक्की की आवाज में इतना जादू था कि रोहन तो मिक्की की सुरीली आवाज को सुनतें ही स्वयं को रोक नहीं पाता था।
जब मिक्की ने रोहन को देखकर मुस्कुराती हुई अपनी बहन मोहनी से बोली थी, - "अबकी बार न जीजू, मैं आपको यहाँ से जल्दी नहीं जाने दूंगी और नहीं दीदी को समझे की ना समझें...।"
तब मिक्की को इस मधूर विनय भरी बातों पर रोहन ने मुस्कुराते हुए आँखों ही आँखो में ज्यादा न बोलने की सलाह देते हुए आगे उस दिशा की ओर बढ़ चला था, जिधर मोहनी के पिता जगदीश बाबू कुर्सी पर बैठे हुए समाचार पत्र पढ़ रहें थें।
रोहन को पता था कि जो मिक्की मुझसे मोबाइल फोन पर घंटों प्रेम भरी बातें किया करती है, कहीं मोहनी के सामने कुछ और न बोल दे तो समस्या बन जायेगी, इसलिए उसके सामने से फिलहाल हट जाना ही उचित होगा।
यह सोचते हुए....
रोहन ने आगे बढ़कर जगदीश बाबू को पैर छूकर आशिर्वाद लिया, और आशिर्वाद लेने के बाद बोल पड़ा. - "डैड मोहनी को इसी शहर में.... ।"
रोहन इससे ज्यादा कुछ और बोल पाता उससे पहले,
"मैं जानता हूँ... बैठिए।" - कुछ इसी अंदाज में विजय बाबू ने रोहन से बातें की जैसे कि वो रोहन से कोई ज्यादा खुश नहीं हों।
जगदीश बाबू की बातें सुनकर रोहन पर क्या असर हुआ ये तो रोहन ही जानें, लेकिन वो सामने लगे कुर्सी पर बैठते हुए एक व्यंग्यात्मक भाव चेहरा पर अवश्य ले आया था।
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इधर...
मोहनी को इसी शहर में शिक्षिका की नौकरी लग गई थी, जिसके कारण वह कुछ दिनों तक मायके में हीं रहने का मन बनाकर ससुराल से मायके आयी थी।
और....
रोहन ने भी लगभग एक महीने की छुट्टी कार्यालय से लेकर ही आया था, अतः वह भी एक मांह तक घरजवाई बननेवाला था।
मोहनी सुबह आठ बजने के बाद मायके से विद्यालय के लिए निकल जाती, और देर शामतक घर वापस लौटती थी, जिसके कारण उसे कुछ भी पता नहीं होता था कि उसके पीठ पीछे उसकी बहन और उसका पति कौन सा गूल खिला रहें हैं।
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मोहनी को स्कूल जातें ही रोहन और मिक्की दोनों शुरू हो जातें। दोनों हँस - हँसकर बातें करतें और बहुत खुश दिखाई देतें।
रोहन और मिक्की के ये हरकत न जगदीश बाबू को अच्छा लग रहा था, और नहीं उनकी पत्नी को। इसलिए कभी- कभी एकांत में जगदीश बाबू की पत्नी, मिक्की को समझाने लगती, - "देखो दिन पे दिन तू कोई बच्ची नहीं होती जा रही हो। अब सयानी हो गई हो। दिन भर जमाई बाबू के साथ घर में ही - ही करती रहती हो न, सो अच्छी बात नहीं है।"
लेकिन भला मिक्की किसको बात को मानने वालों में से थी, जो अपनी माँ की बात मान लेती।
और तो और...
वह उल्टे सीधे अपनी माँ को ही जवाब दे देती, - " अपना जीजा से न मज़ाक करें तो किससे करें..... तू हर बात में शक ही करने लगती हो.... ।"
जगदीश बाबू की पत्नी, मिक्की की इस बात पर यह सोचकर चुपचाप रह जाती कि घर में जमाई बाबू आयें हुए हैं, तो वो अपनी जवान बेटी के साथ ज्यादा तू - तू - मैं - मैं करेगी तो वों अनादर समझ लेगें। उन्हें लगेगा कि हमें यहाँ रहना सास-ससुर को अच्छा नहीं लग रहा है ।
इतना ही नहीं, और जगदीश बाबू की पत्नी यह बात बखूबी जानती थी कि अगर जमाई बाबू नराज हो गयें तो हो सकता है कि वो मेरी बेटी मोहनी से बदला लें। कोई भी माँ यह कैसे पसंद करेगी की मेरे कारण, मेरी बेटी का पति, मेरी बेटी को दुःख दे।
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लेकिन जो होना है सो तो होकर ही रहेगा न। माता-पिता को चाहे जो सोचना है सोच ले, भाग्य में मोहनी को विधाता ने कुछ और ही लिख दिया था।
रोहन और मिक्की का हँसी - मजाक वाला जीजा - साली का रिश्ता कब परवान चढ़ा, यह तो मोहनी को भनक तक नहीं लग पायी। मोहनी तो अपने काम में व्यस्त रहती, और इधर रोहन, मिक्की में व्यस्त रहता।
समय के साथ....
यह रोहन का लगाव, मिक्की से हर सीमा पार करते हुए, वो सीमा भी पार कर गया जिसे उसे पार नहीं करना चाहिए था।.
एक दिन जब मोहनी घर पर नहीं थी, तब रोहन ने अपनी सारी हदें पार करते हुए मिक्की के सामने शादी करने का प्रस्ताव रख दिया।
जिसे मिक्की ने बड़ी खुशी से स्वीकार कर ली, लेकिन इन दोनों के बीच सबसे बड़ा कोई काँटा था तो वह थी मोहनी।
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इसलिए मिक्की ने- रोहन को मोहनी से तलाक लेने के लिए सलाह देते हुए बोली, - "अगर आप दीदी को तलाक दें दे... तो मैं जीवन भर क्या, जन्मों - जन्मों तक, आपको साथ देने का प्रोमिस करती हूँ ... ऐसे भी दीदी कि शादी कोई दीदी के मन से ठोड़िए आपको साथ हुई थी....!"
मिक्की के द्वारा बोली गई अंतिम वाक्य पर रोहन चौकते हुए बोला था, - "क्या...!?"
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"शायद दीदी को एक लड़का से अफेयर था।"
मिक्की को इतना बोलते ही....
रोहन आश्चर्य भरे दुःख के साथ, बिफरते हुए मिक्की से बोल पड़ा , - "नहीं मिक्की नहीं, मोहनी ऐसी नहीं है! "
तब मिक्की ने रोहन के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए, फुसफुसाहट भरे आवाज में बताना शुरू की, -" बात एक डेढ साल पहले का है। बगल में एक लड़का रहता था जीजू ... जो अब यहाँ नहीं रहता है.. ... वो दीदी के शादी के बाद पागल सा हो गया था.... ऐसे वो लड़का तो दीदी के बारे में कुछ भी... कभी भी नहीं बोला था.... और नहीं दीदी ने ही कभी किसी से कुछ उसके बारे में बोली थी, लेकिन मोहल्ले वाले को भला कौन मुँह रोक सकता है ? वो दबी जुबान में अक्सर बोला करते थें, उस लड़का को बारे में जिसका नाम ऋतु राज था कि ऋतु राज मोहनी के चक्कर में पागल हो गया। मोहनी को जब ऐसा ही करना था तो वो किसी और से शादी क्यों की... दीदी के प्यार में पागल हो चुका ऋतु राज को, मोहल्ले वाले अक्सर दीदी से जोड़कर बातें खुब करतें रहें हैं। "
" क्या... ???"
-मिक्की के द्वारा बोली गई पुरी बात को सुनकर, रोहन के मुँह से एकाएक यह शब्द फूट पड़ा था, और साथ में चेहरा पर कुछ पल के लिए दुःख के साथ - साथ गुस्सा का भी भाव दिखाई देने लगे थें।
और उसको बाद रोहन अपने होठों पर एक जहरीली मुस्कुराहट के साथ, मन में एक भयंकर संकल्प लेते हुए धीमी आवाज में मिक्की से बोलना शुरू किया, -" नहीं.नहीं. ..ठीक है माई स्विट हार्ट, तब तो मोहनी को मेरी जिन्दगी में रहने का कोई अधिकार ही नहीं बनता.... ऐसे भी मुझे कुछ - कुछ लगता था कि मोहनी ने मुझे इतनी आजादी क्यों दे रखी है.... वो औरों की तरह मुझसे विहैब क्यों नहीं करती... .. मैं कहीं भी जाऊँ.... किसी से भी बात करूं... लेकिन उसको कोई फर्क ही नहीं पड़ता था.... बस जब देखो तब वो किताबों में ही खोई रहती थी... मुझे क्या पता था कि मोहनी के ह्रदय में कोई और रहता है...।
अब समझ में आया, वो तो बस मेरे साथ माँ-बाबू जी के द्वारा थोपी गई रिश्तें को निभाने में लगी हुई थी. ..।
कोई बात नहीं, जल्दी वो मेरी जिन्दगी से हट जायेगी। "
रोहन एक - एक शब्द गुस्से में चबाते हुए बोले जा रहा था, और इधर मिक्की रोहन की बातें सुनकर मन ही मन बहुत खुश होती जा रही थी, लेकिन वो अपने चेहरे पर खुशी का भाव नहीं ला रही थी।
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इसके बाद...
- मिक्की ने अपना सिर रोहन के कंधों पर रखते हुए बोली,-" मैं तो आपको उसी दिन से चाहने लगी थी जिस दिन आपको पहली बार मैंने देखी थी, लेकिन मैं क्या करती,... आप तो मोहनी दीदी के भाग्य में थें न, इसलिए अपनी चाहत को अपने हीं अंदर दबाये रखने में हीं भलाई समझी और स्वयं से समझौता कर ली.. ।"
मिक्की को इस बात पर रोहन ने मिक्की को स्वयं से अलग करते हुए बोल पड़ा, -" कोई बात नहीं.. मैं हूँ न... बस तू देखते जाना... मैं मोहनी के साथ क्या करता हूँ । "
इतना बोलकर रोहन मिक्की के कमरा से बाहर निकल पड़ा।
और रोहन को गुस्से में बाहर जाते देख, मिक्की एक जहरीली मुस्कान होठों पर लाती हुई बुदबुदा उठी थी, -" दी दी... इसको बोलते हैं जहर...। ये हो ही नहीं सकता न... जिस चीज़ पर मिक्की हाथ रख दे, वो चीज़ चाहे कितनी भी किमती क्यों न हो.... मिक्की के कदमों में आ ही गिरेगी .... ।
और ये रोहन कौन सी गली का हैं..। मैं तो वो नागिन हूँ रोहन बाबू जिसका जहर दाँत में नहीं, जिस्म के सौंदर्य में रहती है... और तुने तो मेरे सौंदर्य को जी भरकर पीया है.... तो समझ लो तेरा हाल क्या होने वाला है ! "
समाप्त