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भवभूति का शास्त्र पांडित्य

भारतवर्ष में संस्कृत नाटय परंपरा के अग्रणी एवं प्रतिभाशाली नाटककार महाकवि भवभूति की नाट्य कृतियों का अनुशीलन करने पर नाट्यशास्त्र का एक अनूठा पांडित्य दृष्टिगोचर होता है। भवभूति के वंशजों में उनके पूर्व की 5 पीढ़ियां अपने पांडित्य कौशल के लिए विख्यात रही। अतः वंशक्रमानुगत रुप से यह शास्त्र पांडित्य भवभूति की कृतियों में सहज रूप से परिलक्षित होता है।

काव्य के दो भेद हैं श्रव्य काव्य एवं दृश्य काव्य। दृश्य काव्य नेत्र का विषय है तथा रूप से आरोपित होने के कारण रूपक कहा गया है।

दृश्य श्रव्यत्व भेदेन पुनः काव्यम द्विधा मतम् ।
दृश्यम तत्राभिंनेयम् तद रूप आरोपात्तु रूपकम्।। साहित्य दर्पण 6/1

दशरूपक में भी धनंजय ने ---अवस्था की अनुकृति को ही नाट्य कहा है

अवस्थानुकृति : नाट्यम् ।। दशरूपक 1/7

आचार्य भरत के मतानुसार ---नाना भावों से संपन्न, विभिन्न अवस्थाओं से युक्त ,नाटक में लोक वृत्त का अनुकरण रहता है।

नाना भावोप संपन्नम नानावस्थानतरात्मकम् ।
लोकवृत्तानुकरणम नाट्यमेतन्मया कृतम् ।। नाट्य शास्त्र वन 1/112

वस्तुतः इस विशाल विश्व फलक पर जो कुछ भी है , उन सब का चित्रण नाटक में रहता है अतः आचार्य भरत मुनि का यह कथन सर्वथा उचित ही है

न तत् ज्ञानम ,न तत्व तत शिल्पम
न सा विद्या न सा कला।
न सा योगो न तत्कर्म
नाट्य अश्मिन् यन्न दृश्यते । नाट्य शास्त्र 1/112

यही कारण है कि भवभूति ने भी अपनी अभिव्यक्ति को मुखरित करने हेतु श्रव्य विधा को ना चुनकर दृश्य विधा रूपको का ही चयन किया है इसका प्रमुख कारण नाट्य एवं काव्यशास्त्र के सर्वांगीण स्वरूप के प्रति भवभूति की असीम आस्था एवं शास्त्र पांडित्य प्रतिभा को ही माना जा सकता है।

गद्य खंडों के साथ गीत पदों का सम्मिश्रण भी भवभूति के नाटकों की अपनी विशेषता है । गद्य खंड के माध्यम से दर्शक कथा भाग से अवगत होते हैं जबकि मानव ह्रदय के सूक्ष्मतम भावों की अभिव्यक्ति छंदोंबद्ध पदों में ही होती है । इस प्रकार गद्य की समतल भूमि के मध्य से उद्भुत हुआ छंदमय पद नाटक को अधिक प्रभावशाली बना देता है। महाकवि भवभूति के नाटकों की मौलिक विशेषता वस्तुतः उनका काव्य में परिधान ही है। यह नाटक का सर्व सुंदर स्वरूप है ।


भवभूति की कृतियों में "महावीर चरितम" एवं "उत्तररामचरितम्" दो नाटक है एवं "मालती माधव" प्रकरण है। महाकवि के दोनों ही नाटक उच्च कोटि के एवं शास्त्र सम्मत कहीं जा सकते हैं। आचार्य विश्वनाथ द्वारा बताए गए नाट्य स्वरूप के अनुकूल ही दोनों नाटकों का कथानक प्रसिद्ध एवं रामायण से उद्भुत है । नायकों में धीरोदात्त नायक के सभी गुण विद्यमान हैं। महावीर चरित का मुख्य रस वीर रस है तथा निर्वहन संधि में अद्भुत रस की संयोजन की गई है। उत्तररामचरितम् में मुख्य रूप से करुण रस है तथा अद्भुत रस के विधान का बाहुल्य है। भवभूति जानते थे कि नाट्य शास्त्र के अनुसार ---नाटक का नाम उसमें निहित अर्थ का प्रकाशक होना चाहिए।

नाटकस्य गर्भितार्थ प्रकाशकम्। विश्वनाथ
साहित्य दर्पण 6/ 142

इस मान्यता के आधार पर ही महावीर चरितम शीर्षक से राम के वीर चरित्र का प्रकाशन होता है तथा उत्तररामचरितम् राम के उत्तर जीवन से जुड़ी घटनाओं का निरूपण करता है। मालती माधव प्रकरण होने के कारण शास्त्र मान्यता अनुसार साहित्य दर्पण (6/ 143 )नायक नायिका के नाम से जुड़ा हुआ है।
नांदी

नाट्यशास्त्र के नियमानुसार नाटक का प्रारंभ मंगलाचरण से होना चाहिए जिसे नादी की संज्ञा दी गई है। आचार्य भरत के अनुसार नांदी को आशीर्वचन युक्त एक ऐसा मंगल गान कहा गया है जो देव ,द्विज ,राजा, दर्शकों एवं अभिनेताओं के कल्याण अर्थ किया जाता है।


आशीर्वचन संयुक्ता नित्यम यस्मात प्रियुज्यते।
देव द्विज नपादीनाम तस्मात् नांदी इति संज्ञिता। । नाट्यशास्त्र 5/24


साहित्य दर्पण कार विश्वनाथ ने भी नांदी को आशीर्वाद की कामना से किया गया स्तवन गान ही बताया है। महाकवि भवभूति ने अपने नाटकों में नांदी को शास्त्र सम्मत ता के साथ ही एक अनोखे रूप में प्रस्तुत किया है। महावीर चरितम का या नांदी श्लोक
अथ स्वस्थाय देवाय नित्याय हत प्राप्मने ।
त्यक्त क्रम विभागाय चैतन्य ज्योतिषे नमः ।। महावीर चरितम 1 /1
इसमें नाटककार ने बड़े ही पांडित्य पूर्ण ढंग से आशीर्वचन के साथ ही कथानक का भी संकेत देकर मानव एक ही सूत्र में दो मोती पिरो दिए हैं और नांदी के दोनों रूप--शुद्ध एवं संकेता त्मक --दोनों को एक ही में समाहित कर दिया है। उत्तर रामचरित कथा मालती माधव मे भी नांदी में यही पांडित्य दिखाई देता है। तीनों ही नाटकों में--- नांद्यन्ते सूत्रधार : ---शैली की संयोजना कर सूत्रधार के पूर्व ही मंगल श्लोक की प्रस्तुति कर दी गई है।


भरत वाक्य

नाटककार भवभूति नाट्यशास्त्र के इस नियम से भली-भांति अवगत थे कि मंगलाचरण अथवा नांदी से प्रारंभ करने के समान ही नाटक का अंत भी मांगलिक श्लोक अथवा "भरत वाक्य"से किया जाता है जिसे प्रशस्ति भी कहते हैं

प्रशस्ति शुभ शसनम दशरूपक 1/54


तीनों ही नाटकों के अंत में भरद्वाज के द्वारा पृथ्वी का पालन करने, राष्ट्र को प्रचुर धन-धान्य से संपन्न करने, राम कथा द्वारा सबका पाप शमन करने ,लोकमगल एवं सर्व जगत का कल्याण करने की प्रार्थना की है। महावीर चरितम 7/42 मालती माधव 10/125 उत्तररामचरित 7/21


कथावस्तु

नाट्य शास्त्र के अनुसार कथावस्तु दो रूपों में विभक्त की गई है आधिकारिक एवं प्रासंगिक।

इतिवृत्तम द्विधा चैव बुधस्तु परिकल्पयेत्।
आधिकारिकमेकम तु प्रासंगिकमथा परम्।। नाट्यशास्त्र 19/2

कथावस्तु के सूच्य अंगों को "अर्थोपक्षेपक" कहां जाता है। यह 5 होते हैं 1 --विष् कभक, 2 प्रवेशक, 3 चूलिका , 4 अंकास्य, 5 अंकावतार। भवभूति के नाटकों में इन पांचों ही सूच्य अंगों का शास्त्र सम्मत व पांडित्य पूर्ण ढंग से नियोजन किया गया है। उनके तीनों नाटकों में शुद्ध एवं मिश्र विष्कम्भक की योजना मिलती है । महावीर चरितम के पांचवें अंक में , तथा मालती माधव के पांचवें छठे एवं नवमें अंक में एवं उत्तररामचरित के दूसरे एवं तीसरे अंक के प्रारंभ में शुद्ध विष्कम्भक की योजना की गई है। उत्तररामचरित के चतुर्थ अंक का मिश्र विष्कम्भक विनोद एवं स्वाभाविकता की दृष्टि से अत्यंत सुंदर प्रतीत होता है। तृतीय अंक में द्रवणशीलता जब दर्शकों को करुण रस मैं निमग्न कर देती है तत्पश्चात मृदुल हास्य से परिपूर्ण विष्कम्भक
की योजना नाट्य एवं रंगमंचीय दृष्टि से भवभूति के पांडित्य का एक उत्तम उदाहरण कही जा सकती है।

भवभूति के नाटकों में चूलिका का प्रयोग भी अत्यंत औचित्य पूर्ण ढंग से किया गया है। महावीर चरित के चतुर्थ अंक में नेपथ्य से परशुराम पर राम की विजय की सूचना दी जाती है
(नेपथ्ये)
भो भो वैमानिका: ! प्रवर्त्यंताम मंगलानि।
कृशाश्वान्तेवासी जयति दिनकर कुलेन्दु: विजयते ।। महावीर चरितम 4/1

सातवे अंक में सीता की अग्नि परीक्षा की सूचना भी चूलिका द्वारा दी जाती है। महावीर चरितम 7/3 उत्तररामचरित के सातवे अंक में एक अन्य सूच्य अंग "गर्भांक" की योजना द्वारा निर्वहन संधि में अद्भुत रस का सुंदर निर्वाह किया गया है।


अभिनय प्रकार

शास्त्रों में नाट्य अंग अभिनय के चार प्रकार माने गए हैं । महाकवि भवभूति ने इन चारों ही प्रकार ---आंगिक, वाचिक, आहार्थ एवं विशेषकर "सात्विक" अभिनय संकेतों का प्रयोग अपने नाटकों में सर्वत्र किया है ---सक्रोधम् , सावेगम् , सोल्लासम् , सस्नेहम आदि ।

चरित्र चित्रण

कथावस्तु की भांति नाटक का एक अन्य अनिवार्य तत्व नायक है जो संपूर्ण घटनाओं का नेतृत्व करता है। शास्त्रानुसार नाटक में वर्णित नायक के गुणों पर ही रचना की उत्कृष्टता निर्भर करती है । नाट्यशास्त्र के नियमों के अनुसार ही भवभूति के नाटकों के नायक नायिका भी प्रख्यात दिव्य व्यक्तित्व वाले, धीरोदात्त , प्रतापी उदात्त गुणों से संपन्न दिखाई देते हैं। चरित्र अथवा पात्र के संपूर्ण मनोवैज्ञानिक तत्वों का विश्लेषण नाटककार की अपनी विशेषता है। भवभूति ने अपने पात्रों के हृदयगत भावों को बड़ी बारीकी से तराशा है। महावीर चरित उत्तररामचरितम् के धीरोदात्त नायक राम में


शोभा विलासो माधुर्यम ,गांभीर्यम स्थैर्य तेजसी ।
ललितोदार्यमित्यष्टौ सात्विका: पौरुषा गुण :।। दशरूपक 2/10

यह समस्त गुण विद्यमान होने पर भी भवभूति ने उनका अनिंद्य
रूप प्रस्तुत करने हेतु रामायण के राम की मानवोचित् दुर्बलताओ का परिहार कर ,उन्हें ऐसा विराट मन प्रदान किया है जो दूसरों के दोष के प्रति पराण्गमुख है, कर्तव्य के प्रति सजग है ,लेकिन व्यक्तिगत संबंध की भावभूमि पर अत्यंत संवेदनशील है। भवभूति ने अपने नाटकों मैं मानव चरित्र के हर कोण को अंकित किया है । महत्ता और औदार्य के आदर्श राम और सीता, मुग्धा प्रेमिका मालती एवं धीर शांत माधव, धीरोद्धत्त परशुराम व रावण ,राजनीतिज्ञ मंत्री माल्यवान, वीर वाली, मित्र सुग्रीव एवं मकरंद स्वाभिमानी राजा जनक, अनुगामी लक्ष्मण, वीर बालक लव कुश एवं चंद्र केतु ,स्नेहनी वासंती एवं लवंगीका आदि भवभूति के ऐसे पात्र हैं, जिनका चरित्र मानव जगत के अनेक रूपों का प्रतिनिधित्व करता है।

रस सिद्धि

नाटक के तीन प्रमुख तत्वों--- वस्तु, नेता और रस मैं रस सिद्धि का पांडित्य दर्शाए बिना विश्लेषण अधूरा ही माना जाएगा। आचार्य भरत ने रस को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान देते हुए कहा है

न हि रसादृते कश्चिदत्प्यर्थ: प्रवर्तते। नाट्यशास्त्र 6/33

अभिनव गुप्त ने तो रस को ही नाटक स्वीकार कर लिया है

तेन रस एवं नाट्यम नाट्यशास्त्र
अभिनव भारती टीका 6/ 15, 16

आचार्य विश्वनाथ ग्रंथ का आरंभ ही--- वाक्यम रसात्मकम काव्यम ---साहित्य दर्पण 1/1

से करते हैं । भाव के बिना रस की स्थिति नहीं है ।
न भाव हीनो अस्ति रस:। साहित्य दर्पण 3/ 232--- 234

और हम यह भी जानते हैं कि भवभूति भाव मर्मज्ञ कवि थे । भवभूति ने अपने नाटकों-- महावीर चरितम मालती माधव और उत्तररामचरितम् में क्रमशः वीर रस श्रंगार रस और करुण रस की अभिव्यंजना की है। उत्तररामचरितम् में कारुण्य धारा के प्रवाह को अक्षण्ण बनाकर एक नए प्रतिष्ठाता के रूप में सम आदरणीय बन गए हैं। नाटक की सुखद परिणति शास्त्र सम्मत होने के कारण शास्त्र पांडित्य का एक अनूठा उदाहरण है।

अंततः कहा जा सकता है कि नाट्य शास्त्र की मान्यताओं के अनुसार अपने तीनों ही नाटकों में कथावस्तु ,नायक एवं रस की दृष्टि से शास्त्र पांडित्य का अनोखा समन्वय प्रस्तुत करने में भवभूति पूर्णत : सफल रहे हैं।


इति

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