नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 60 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 60

60

उस दिन मौसम कुछ खुशगवार सा था, आकाश पर बदली छने के कारण वातावरण में अभी रोशनी नहीं भारी थी | विलास व इंदु दोनों बाग की ओर जाने वाले मार्ग पर चलने के आदी हो चुके थे अत: उन्हें हल्के अँधेरे में बाग तक पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई | दोनों अपने प्रतिदिन के स्थान पर पहुँचे ही थे कि पेड़ों के झुरमुट से कदमों की कुछ आहटें सुनाई दीं | होगा कोई उनके जैसा प्रात: भ्रमण का शौकीन ! दोनों बातें करते हुए बाग में घूमते रहे | अचानक बारिश ने ज़ोर पकड़ लिया और वे एक घने वृक्ष के नीचे जा खड़े हुए |

पता नहीं कब और कैसे, कहाँ से पाँच-छह लोगों का टोला निकाल आया | विलास और इंदु कुछ समझ पाते इससे पूरव ही इंदु को दो-तीन लड़के पकड़कर एक मोटे वृक्ष के पीछे ले जा चुके थे और विलास के मुँह पर पट्टी बाँधकर पालक झपकते ही एक दूसरे वृक्ष से बांध दिया गया था | विलास को बंधने के बाद इंदु को लाया गया | उसके भी मुख पर एक मोटे कपड़े से पट्टी बाँध दी गई थी और उसके कपड़े नोच-खसोटकर फेंक दिए गए थे |विलास की आँखें खुली रखी गईं थीं | पालक झपकते ही मानो क़यामत आ चुकी थी | विलास कुछ समझ पाने की स्थिति में आ पाता उसक्से पूर्व ही उसके सामने उसकी चटपटाती पत्नी पर चार-पाँच लोग जल्लाद की भाँति टूट पड़े थे |

विलास कसकर बाँधा गया था, वह कस्मसने के अतिरिक्त और कुछ भी न कर सका| वह खुलने के लिए जूझता रहा था, कुछ न कर पाने की स्थिति में उसने अपने नेत्र कसकर मूँद लिए थे | बेबसी के आँसू उसके चेहरे पर फिसलते रहे और वह छटपटाता रहा | दरिंदों ने कुछ ही देर में इंदु की कोमल देह को मसल डाला था और कुकर्म करके उसे एक सदी हुई वस्तु की भाँति एक ओर फेंक दिया था |हाथ –पाँव और मुख बंधे विलास की स्थिति एक पंगु सी बनकर रह गई थी |वह लांछित सा कुछ भी न कर पाने की स्थिति में छटपटा रहा था और इंदु की कोमल काया घास की हरियाली को लाल कर रही थी | बेबस इंदु के गुप्तांग से रक्त का फ़व्वारा छूटने लगा | बनमानुष से क्रूर पिशाचों ने इंदु की मखमली काया को तार-तार कर डाला था |

“प्रोफेसर ---अब कोई हिम्मत न करेगा हमारे सामने खड़ा होने की ! बड़ा आया समाज सुधार का ठेकेदार !”बनमानुषों ने हिकारत भारी दृष्टि से ऐसे देखा था मानो कोई जंग फतह कर ली हो और अपने कपड़े झाड़ते हुए विजयोल्लास करते हुए अपनी साइकिलों पर चढ़कर भाग गए थे |

कैसी नाज़ुक दहलीज़ थी वह उस उम्र की जिसमें विलास और इंदु के स्वप्न ठिठक गए थे | एक पति के लिए इससे शर्मनाक और क्या हो सकता था ? विलास का मन भर गया, वह इंदु के प्रति अपराध-बोध से बौना बना जा रहा था | इस विषय पर चर्चा करने जैसा कुछ था ही नहीं | माँ को बताना यानि उनके जीवन के बचे-खुचे दिनों पर ग्रहण लगाना!इतनी विवशता कभी किसीके सामने आई होगी क्या?क्या क्रे वह ?इंदु को गले लगाकर वह रातीं चुपके-चुपके सुबकता रहता | इंदु गुम हो गई थी | माँ तथा चंपा माँ दोनों बच्चों को अचानक गुमसुम देखकर परेशान हो गए | स्वाभाविक भी था, न जाने क्या हुआ दोनों के बीच ? दोनों माँए चिंतित होकर आपस में बच्चों की उदासी के बारे में चर्चा करतीं | कॉलेज की छुट्टियाँ चल रही थीं लेकिन युगल ने बाहर निकालना बिल्कुल ही बंद कर दिया था |

“माँ ! इलाहाबाद विश्वविद्यालय से फिर से पत्र आया है | वहाँ मेरी ज़रूरत है, बुला रहे हैं |”

इस प्रकार की सूचनाएँ व निमंत्रण विलास को मिलते ही रहते थे, इस बार अचानक इतना गंभीर क्योंहों गया विलास ?माँ तथा चंपा माँ दोनों बच्चों के चेहरे देखकर चिंतामग्न हो उठीं |

“आप लोग चिंता न करें, मुझे लगता है इंदु कुछ दिन अपने माता-पिता के पास रहना चाहती है | सोचता हूँ, कुछ दिन इंदु अपने घर बनारस रह लेगी और मैं विश्वविद्यालय की स्थिति जाँच-परख लूँगा |” विलास ने अपने चेहरे पर एक और चेहरा चिपका लिया और उन्हें विश्वास दिला दिया कि इंदु अपने माता-पिता से मिलना चाहती है |

कोई कैसे इतनी भयंकर दुर्घटना के बारे में कल्पना तक कर सकता है? वैसे भी माँ की प्रतिष्ठा पूरे शहर में इतनी थी अधिक थी कि उनके परिवार के किसी भी सदस्य के बारे में एक भी ज़ुबान नहीं खुलती थी | फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि अचानक दोनों बच्चों की खिलखिलाहट को मानो किसी की नज़र लग गई हो !

विलास की माँ उसके सूखे, पीले पड़े हुए चेहरे को देखकर घबरा उठीं |

“ठीक कह रहे हो बेटा, वैसे भी अभी छुट्टियाँ हैं | मेरी बेटी उदास हो गई है, इसे घुमा लाओ –“उन्होंने इंदु को स्नेहांचल में छिपा लिया |ममता का स्पर्श पाते ही इंदु बेकल होकर फूट-फूटकर रो पड़ी | जैसे उसकी आँखों से न जाने कितने पतनाले अचानक ही फूट पड़े हों |क्या हो गया था इस हँसते-खिलते फूल को ?

इस बारे में कोई और चर्चा नहीं हुई और दो ही दिनों में विलास और इंदु इलाहाबाद के लिए रवाना हो गए |इलाहाबाद से विलास को पहले से ही निमंत्रण तो प्राप्त था ही अत: काम की समस्या नहीं थी, समस्या थी विलास व इंदु की ज़िंदगी की ! ताश के पत्तों के घर के समान दोनों के जीवन की जिन्हें बिना बात ही एक अनदेखी चिंगारी में जीवन भर सुलगना था | एक महीने इलाहाबाद की चुप्पी में गुज़ारने के बाद इंदु बनारस गई |

इंदु की चुप्पी से व उदासी देखकर इंदु की माँ ने विलास से कई प्रश्न कर डाले | विलास चुप था | माँ घबरा गईं और इंदु को स्वास्थय –केंद्र ले गईं | पता चल वह माँ बनने वाली है | नाना-नानी की प्रसन्नता चरम सीमा पर थी तथा विलास व इंदु की खिन्नता एवं बेबसी अपनी चरम सीमा पर थी |

बेटी के माँ बनने की सूचना से इंदु की माँ लक्ष्मी इतनी विभोर हो गईं कि उन्होंने आनन-फानन में विलास के घर सूचना प्रेषित कर दी | हफ़्ते भर में ही माँ व चंपा माँ उनके समक्ष थीं | इतना खुशनुमा, प्रसन्नतापूर्ण वातावरण और विलास तथा इंदु के मन का सूना आँगन !

कैसी त्रासदी थी ! दोनों के मन में कैसा लूट लेने वाला शोर बरपा हुआ था जिसको दबाकर रखने में दोनों जूझ रहे थे | इंदु अपने गर्भ में स्नेहचिन्ह के स्थान पर लिजलिजे छिपकली जैसे संबंध ढोने के लिए बाध्य हो चुकी थी| और उसे मुस्कुराना था, प्रसन्नता का मुखौटा पहनकर घूमना था | विलास ने उसे प्यार किया था, ऐसा प्यार –जिसमें कुछ लेने की नहीं देने की चाह रहती है, सदा प्रसन्न रखने का संकल्प रहता है | वह अपने उस संकल्प पर ताउम्र खरी उतरी थी | अपने दृढ़-प्रतिज्ञ इरादों को ढोते हुए बेशक उसे कितना भी कष्ट क्यों न हुआ हो, वह अपने मन के बाहरी भाग शरीर के बगीचे को सहेजकर मुस्कुराते हुए रखने में सफ़ल हो सकी थी | यदि विलास का प्रेम उसके साथ न होता तो वह कभी भी अपनी प्रतिज्ञा में सफ़ल न रह पाती |

विलास उसका जीवन था, विलास ही उसका बंधन था । विलास से ही वह पूरी थी, विलास के बिना अधूरी !!