मैं तो ओढ चुनरिया - 34 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 34

मैं तो ओढ चुनरिया -

34


उस आदमीनुमा लङके का दिखाई देना तो बंद हो गया पर सवाल अपनी जगह कायम थे कि उस दिल के मरीज लङके ने किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया या नहीं । उसे दिल की दवा मिली या नहीं । तभी किसी पङोसन के हार्ट अटैक से मरने की खबर मिली तो ये बेचैनी और बढ गयी ।
उन्हीं दिनों बाबी पिक्चर थियेटर में लगी । ऋषि और डिंपल के इश्क के चर्चे आम हो गये । अब सङकों पर लङके जोर जोर से मैं शायर तो नहीं और हम तुम इक कमरे में बंद हों गाते नजर आने लगे । मानो पूरे शहर पर इश्क का भूत सवार हो गया हो । केशव नगर में रहने वाले लङके ने बाकायदा हमारी कक्षा में पढनेवाली लङकी को प्रणयनिवेदन कर दिया । मूर्ति के घरवालों को पता चला तो उन्होंने बीच चौरस्ते सतीश की जूतों से पिटाई कर दी पर सतीश पर तो फिल्मों का भूत सवार था । वह मार खाता और मूर्ति से प्रेम का ऐलान करता जाता । जब वे लोग मार मार कर थक गये तो उसे वही सङक पर छोङकर चले गये । सतीश फिल्मी स्टाइल में चिल्लाता रहा – मूर्ति आई लव यू । पूरे शहर में इस घटना की चर्चा रही फिर सुना कि मूर्ति के घरवाले उसकी शादी सतीश से कर रहे हैं । मूर्ति अभी नौवी में पढ रही थी । उसकी आँखें रो रो कर सूजी पङी थी । इस पूरे घटनाक्रम में उसका कोई कसूर नहीं था पर सजा उसे ही मिली । उसकी पढाई छुङवाकर अक्षयतीज के अबूझ साहे में उसके फेरे सतीश के साथ कर दिये गये । आखिर पूरे शहर में इतनी बदनामी होने के बाद और चारा भी क्या था । सतीश तब ग्यारहवीं में पढता था । दो तीन साल फेल होने के बाद उसकी पढाई भी छुङवा दी गयी और साइकिलों की दुकान करवा दी गयी । तबतक वह दो बच्चों का बाप बन चुका था ।
इस घटना का बेटियों के मां बाप पर गहरा असर हुआ । कई लङकियों की पढाई खत्म हो गयी । कई लङकियों की असमय शादी कर दी गयीं । जो बाकी लङकियाँ अभी स्कूल जा रही थी , उनको स्कूल तक लाने ले जाने के लिए उनके माताजी , पिताजी या भाई ने जिम्मेदारी ले ली । लङके अब चौराहों पर झुंड बनाकर दूर से बेबसी से देखते रहते । कोई कमैंट न कर पाते ।
इस बीच मैं ग्यारहवीं में आ गयी थी । अब तक कालेज में सिर्फ पूरे महीने के नाश्ते जो आम तौर पर मुरमुरे और भुने चने होता , के दो रुपये देने होते थे पर ग्यारहवीं की फीस थी पूरे बारह रुपये । अब क्या हो । ऐसे में कीमती नामके एक टाफी और लैमनचूस बनाने वालों ने सात रुपये हर महीने देने का वादा किया । अब पाँच रुपये का इंतजाम करना ही बाकी था । ये मैं सिलाई , कढाई से पूरा कर लेती । जिस महीने माँ या पिताजी रुपये दे देते , मेरे पैसे गुल्लक में जमा हो जाते । इस तरह मेरी ग्यारहवीं और बारहवीं पूरी हो गयी । उस जमाने में पास परसैंटेज कोई पूछता ही न था । सिर्फ डिवीजन पूछी जाती । फस्ट है या सैकेंड या थर्ड और भई इसके बीचोबीच एक और भी डिवीजन हुआ करती थी गुड सैकेंड जो पचपन प्रतिशत से शुरु होकर साठ प्रतिशत तक होती थी तो हम गुड सैकेंड से दोनों कक्षाएँ पास कर गये । उस बीच भाई साढे चार साल का हो गया था । उसे दाखिल कराया जाना था और हम भी सोलह साल के हो चुके थे । इसलिए हमारा स्कूल , कालेज छुङवा लिया गया । भाई को पाँच रुपया महीना की फीस पर घर के पास ही खुले एक पब्लिक स्कूल में दाखिल करवा दिया गया ।
इसके साथ ही नानी का जिन्हें हम सब भाबी कहते , राग शुरु हो गया । मेरे जीते जी रानी की शादी कर दो । मैं बी देख जाऊँ । साठ साल की उम्र हो गयी है अब साँसों का क्या भरोसा । कभी भी टैं बोल जाएगी । विमान आएगा लेने और मैं चली जाऊँगी । वे पता नहीं किन किन रिश्ते नातेदारों को खत लिखवाती फिर पंद्रह दिन उनके जवाब का इंतजार करती रहती । अगर जवाब सकारात्मक होता तो दो केले या दो बिस्कुट , ऐसी ही कोई खाने पीने की चीज लिफाफे में डाले चली आती । एक हाथ में लिफाफा होता , दूसरे हाथ में छोटी सी झज्जर जिसमें उनके घर के नलके का ठंडा पानी भरा रहता । नानी ने पूरी जिन्दगी हमारे नलके का पानी नहीं पिया । खाना तो बहुत दूर की बात है । वे आती । करीब घंटा बर बैठती । बातें करती और चलते हुए एक या दो रुपये माँ की हथेली पर रखकर कहती – बिटिया तेरी चारपाई पर बैठी थी न तो उसका किराया पकङ । फिर दस पैसे या चवन्नी मुझे पकङा देती । ले खरच लेना ।
उन्हें मेरी शादी की बहुत जल्दी मची थी । महीने में एक दो दिन वे माँ को साथ लेकर लङका देखने चल पङती । इस सफर में कभी मामा उनके साथ होते , कभी पिताजी पर कभी कभी वे दोनों अकेली भी जाया करती । हर बार लौटकर वे माँ के साथ लङके के गुण दोष विचारती पर बात कहीं बन नहीं रही थी । इस बीच मैंने नानी के साथ कई तीर्थ किये । हरिद्वार , ऋषिकेश , इलाहाबाद , बनारस , कुरुक्षेत्र । कुरुक्षेत्र नका आखिरी तीर्थ स्थान था । तब सूर्यग्रहण लगा था । छोटे मामा से उन्होंने पास माँगा । मामा ने उन्हें पास लाकर दे दिया । नियत दिन नानी और मैं ट्रेन में सवार हुए । कुरुक्षेत्र पङुँचे तो साम होने वाली थी । उन्होंने ब्रहमसरोवर में स्नान किया । मंदिर में दर्शन किये । गीताभवन में किसी पंडितजी की कथा चल रही थी , वहाँ बैठकर कथा सुनी और वहीं टेढे होकर आधे सोए आधे जागे रात बिताई । सुबह साढे चार बजे उन्होंने मुझे उठाया – उठ नहाने चलें ।
क्या नानी रात को तो नहाए थे
अरी चल । ग्रहन लगने वाला है ।
अब लेटना मुश्किल है , समझ में आते ही मैं उठ गयी । हम एक बार फिर ब्रहमसरोवर गये । वहाँ स्नान करने वालों की भीङ थी । सब जल्दी से जल्दी स्नान करके पुण्य कमाना चाहते थे । बङी मुश्किल से हम घाट तक पहुँचे । नहाये भी धक्का मुक्की में । नहाकर नानी वहीं माला जपने बैठ गयी । मैं इधर उधर देखती बैठी रही । भूख के मारे बुरा हाल था पर कहती किसे । यहीँ पिताजी होते तो दौङकर मेरे लिए गरमागरम पूरियाँ ले आते पर अब तो सब्र का घूँट ही भरना था । आखिर दस बजे ग्रहण खत्म हुआ । हम एक बार फिर सूतक उतारने के लिए नहाये । नहाने से भूख और तेज हो गयी थी । ऊपर से ग्यारह बत रहे थे । मैंने हार कर नानी से कहा – नानी बहुत तेज भूख लग रही है । कलेजे में दर्द हो रहा है । नानी ने इधर उधर देखा । एक आदमी अपना चूल्हा जला रहा था । उसका नौकर पास ही बैठा आटा गूँध रहा था । हम वहीं रुक गये ।

शेष अगली कङी में ...