नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 56 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 56

56

कई दिनों से वह समिधा से नहीं मिल सका था | उस दिन रविवार था और दफ़्तर का आधा दिन ! माँ से सुबह ही बात हुई थी माँ ने उसे समिधा से स्पष्ट बात करने के लिए कहा था | सारांश ने समिधा की सारी परिस्थिति से उन्हें अवगत करा दिया था | इंदु समझ गई थी मातृविहीन कन्या का लालन-पालन किस परिवेश में हुआ होगा, उसमें पिता से उसके लिए अपने प्रेम की बात करना सरल नहीं था | उसने सारांश को आश्वासन दिया और कहा कि सबसे पहले उनके रिश्तों की स्पष्टता भी आवश्यक थी | समिधा की भी उसके साथ जीवन-यापन में इतनी रुचि है अथवा वह केवल उसकी मित्र बनकर ही रहना चाहती है ? यदि समिधा इस रिश्ते से सहमत होती है तो वह उसके पिता से बात करके स्वयं उनसे अपने बेटे के लिए रिश्ता माँग लेगी | 

सारांश शाम को समिधा से मिलने के लिए दूरदर्शन पहुँच गया | अभी वह आज्ञापत्र बनवाकर मुख्य द्वार में प्रवेश कर ही रहा था कि लगभग भागकर आती हुई रोज़ी से टकरा गया | इस ज़ोरदार टकराहट से पहले तो दोनों भन्ना उठे फिर एक-दूसरे को देखकर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े | रोज़ी इतनी शीघ्रता से आ रही थी मानो उसकी गाड़ी छूट जाएगी | उसका ध्यान न जाने किधर था | टक्कर लगने पर वह कुछ कड़वा बोलने ही वाली थी कि उसे देखकर ठिठक गई | अचानक उसके चेहरे पर पड़ी हुई सलवटें चेहरे की मुस्कुराहट में परिवर्तित हो गईं | वह मुस्कुराकर सारांश का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई गेट के बाहर खड़े एक युवक के पास ले गई | 

“समिधा को तो मैंने मिलवा दिया है –तुम शिकायत करोगे --लो, मीट –जैक्सन “रोज़ी का मन - तन मानो चहक रहा था | 

“ओह ! तो यह बात है !” सारांश ने जैक्सन से हाथ मिलाते हुए रोज़ी को शरारती दृष्टि से देखा | 

“ मिलते हैं –तुम मुझसे मिलने तो आए नहीं हो, समिधा से मिलने आए हो न ?”उसने शरारत से आँखें मिचकाईं | 

“जाओ, वह कमरे में ही होगी | हम चलते हैं –बाय—जल्दी मिलते हैं | ”वह जैसे पवन में उड़ी जा रही थी | 

सारांश मुसकुराता हुआ अंदर चला गया | ये प्रेम भी कैसे पंख उगा देता है | वह स्वयं भी तो अब अपने पंखों को खोल देने के लिए बेसब्र हो भीतर ही भीतर कंपकंपा रहा था | उद्विग्नता ने उसके पूरे शरीर में थर्राहट भर दी थी जिसे उसने न जाने कैसे वश में किया था | समिधा के बारे में सोचने से ही उसका मन धड़कने लगता, धड़कनें उसके भीतर प्रेम-राग अलापने लगतीं | रोज़ी की जल्दबाज़ी देखकर मुस्कुराहट उसके चेहरे पर प्रथम किरण सी बिखर आई | मुस्कुराते हुए वह समिधा के क्वार्टर की ओर चल दिया | 

सारांश ने समिधा को अपने आने की सूचना नहीं दी थी, अचानक अपने दरवाज़े पर उसे देखकर वह चौंक गई, उसका दिल धक-धक करने लगा | समिधा के दरवाज़ा खोलते ही सारांश ने बेताब हो उसे अपनी मज़बूत बाहों में भर लिया | समिधा को कुछ सोचने, समझने का अवसर भी प्राप्त नहीं हो सका | एक दूसरे में समाए हुए ही दोनों चार कदम भीतर आ गए | सारांश के प्यासे अधर समिधा के अधरों से जाने कब जा मिले थे | सारांश के इस अप्रत्याशित व्यवहार व उसके कठोर युवा आलिंगन के स्पर्श ने समिधा के भीतर मदहोशी भर दी थी | चुंबन की गरमाहट ने क्षण भर में ही दोनों को वस्तु स्थिति से अवगत करा उनका मोहपाश तोड़ दिया | दोनों की आँखें लज्जा के भार से झुक गईं थीं पर दिल की धड़कन एक-दूसरे में समाई जा रही थीं | 

धीरे-धीरे वे एक-दूसरे की बाहों से अलग हुए और बिना कुछ कहे समीप बैठ गए | समिधा का मुख प्रथम चुंबन की आभा से दहक रहा था | कई क्षणों तक गुम बैठकर, सारांश ने अपने धड़कते दिल को संभालकर माँ के साथ हुई सब बातें समिधा को बताईं | उसने बहुत गंभीरता से समिधा के समक्ष अपना पुराना प्रस्ताव दोहराया और उससे उत्तर माँगा | प्रेम की प्रथम फुहार से स्निग्ध सौंधी खुशबू से सराबोर बरसात से समिधा के मुख में बताशे से घुल रहे थे परंतु होठों पर ताला पड़ा था | सारांश ने उठकर खुले दरवाज़े को बंद किया | प्रेम की प्रथम झौंक में दरवाज़ा खुला ही रह गया था | वापिस आकर सारांश ने स्नेह की कोमल छुअन से समिधा के काँपते शरीर को थामा और उसके साथ कमरे में पड़े सोफ़े पर जा बैठा | दोनों का दिल प्रेम की ताल पर बहक रहा था | 

उसने समिधा के कंपकँपाते हाथों को अपने पुरुष के सुदृढ़ हाथों में थामकर बिना एक भी शब्द कहे उसे एक भरपूर आश्वासन दिया और उसकी पीठ सहलाते हुए धीमे से अपने सीने से काफ़ी देर तक लगाए रखा | दोनों को संयत होने में काफ़ी देर लग गई थी, दोनों एक-दूसरे से लजा रहे थे | सारांश ने उस दिन समिधा से खुलकर सारी बात कर लीं और उसके पिता व सूद आँटी का फ़ोन नंबर भी ले लिया | अब वह अपने जीवन-साथी के प्रति आश्वस्त था | माँ का साथ और अपने शीष पर उनका स्नेहिल ममता भरा हाथ उसके जीवन की सबसे बड़ी तथा महत्वपूर्ण उपलब्धि था | माँ के बिना उसका जीवन एक निरीह बालक जैसा था | जीवन की इस नवीन, सुंदर उपलब्धि में माँ का आशीष ही उसका संबल था | उसे पूरा विश्वास था कि समिधा जैसी सरल, योग्य तथा प्रतिभाशाली जीवनसाथी के साथ उसका जीवन सरल, सहज व खुशनुमा फुहार बनकर गुज़र सकेगा | उसने समिधा के चेहरे पर स्वाभाविक लज्जा का आलोक व संतुष्टि के चिन्ह देखे और उसके भीतर आलोड़ित आंदोलन शांत होने लगा | एक प्रसन्नता भरी संतुष्टि लेकर वह वापिस लौटा | 

प्रेम की सुगंध को पवन की आवश्यकता नहीं होती, वह बिना दिशा-संकेत के चारों ओर प्रसरित हो जाती है | वह बिना बताए ही आँखों से, श्वासों से, तन के पोर-पोर से छ्लक-छ्लक जाती है | बाहर का मौसम कैसा भी रूठा क्यों न हो, दिल के मौसम में एक नशा सँजोए रहती है | 

इस समय सारांश तथा समिधा के मन में एक नई, अनजानी, खूबसूरत सुगंध प्रसरित थी | वे कभी भी, किसी भी समय भविष्य के सपनों में गुम हो जाते | समिधा ने उससे मिलना अब कम कर दिया था | उस दिन के सुखद स्पर्श से समिधा को अपने बहकने का भय लगने लगा था | वह पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी थी कि सारांश ही उसके जीवन का आधार, उसका प्यार, उसका मनुहार, उसके मन व तन का शृंगार है | सारांश के मनुहार पर वह कभी थोड़ी बहुत देर के लिए उससे सार्वजनिक स्थल पर मिलती पर उसके सामने कुछ बात न कर पाती | दोनों कनखियों से एक-दूसरे को देखते, हाथों का स्पर्श महसूस करते और शीघ्र ही लौटने का प्रयत्न करते, जो दोनों के लिए ही कठिन होता | वे दोनों जीवन के राग का गीत सुन रहे थे, ऐसा गीत जो धड़कनों की ताल पर गूँजता रहता | 

इस खूबसूरत अहसास को, इन पलों को जीना यानि ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत नियामत पाना ! समिधा की एकाकी उदास रातों में अब रातरानी महकने लगी, उसकी चाल में नशा थिरकने लगा, आँखों में लज्जा की नरमाई भर उठी | वह बिना बात ही दर्पण में बार-बार देखती, मुस्कुराती और अपनी आँखों में लज्जा के लाल डोरे देखकर उसे लगता, वह सचमुच सुंदर है और दर्पण से ही शरमा जाती | समिधा अपने आप से भी लजाने लगी थी, वह अपने आपसे ही छिपने लगी | न चाहते हुए भी वह बार-बार दर्पण के सामने जा खड़ी होती, फिर आँखें नीची करके दर्पण में ऐसे देखती मानो उसके समक्ष सारांश बैठा हो | 

कैसा अद्भुत अहसास था ! पर पापा ! जब पापा के बारे में सोचती उसका यह अहसास ऐसे तिड़कने लगता जैसे उसके भीतर किसीने नाज़ुक दीवार पर कोई चीज़ ज़ोर से टकरा दी हो और उस पर तरेड़ पड़ गई हो, उस पर उदासी छाने लगती | कैसे और क्या बताए अपने उस पिता को जिसने कुछ समय पूर्व ही अपना साथी खोया था | बेशक पापा कई वर्षों तक अकेले रहे थे पर उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व ही तो ‘घर’के सुख को महसूस किया था | 

माँ के जाने के बाद उसका कर्तव्य बनता था पापा की सार-संभाल करने का परंतु वह पापा को अकेला छोड़ आई थी, ऊपर से अपने प्यार की आँख-मिचौली !अब छिपाएगी भी तो कब तक ?निर्णय तो लेना ही होगा | सोचकर ही समिधा के दिल की धड़कनें मानो निकलने को हो जातीं | पर यह प्यार था और शरीर की ऐसी ज़रूरत जिसके बिना शरीर तो था पर धड़कन न थी | समिधा में पिता के प्रति आत्मग्लानि का भाव पनपने लगा और घबराहट के उपरांत भी उठते-बैठते सारांश के सपनों में खोने लगी | 

अपनी स्वयं की कमज़ोर धड़कनों के तहत सारांश के साथ उसने बाहर जाना बहुत कम कर दिया था | जब तक उसके जीवन का कोई निर्णय न हो जाए । उसका अधिक मिलना-जुलना ठीक नहीं था लेकिन दिल का क्या करे ? उस पर किसका वश चलता है ? निर्णय न होने तक अपनी भावनाओं, संवेदनाओं, संवेगों पर वश रखना आवश्यक था |