प्यार के इन्द्रधुनष - 12 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 12

- 12 -

बारह बजे जब मनमोहन तैयार होने लगा तो रेनु ने टोका - ‘इतनी जल्दी जा रहे हो? डॉ. दीदी ने तो लंच के लिये बुलाया है। वे फ़्री हो गई होंगी क्या?’

‘अरे भई, आज वृंदा का ऑफ डे है, तभी बुलाया है। लंच तो बहाना है, ज़रूर कोई विशेष बात करनी होगी! .... फिर भी मैं फ़ोन करके उसे सूचित कर देता हूँ कि मैं आ रहा हूँ।’

जब मनमोहन डॉ. वर्मा के क्वार्टर पर पहुँचा तो डॉ. वर्मा का पहला प्रश्न था - ‘मनु, तुम घर से तो आधा घंटा पहले निकल लिए थे। रास्ते में इतनी देर कहाँ लगा दी?’

‘सॉरी वृंदा, तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी।.... रास्ते में ‘लाल टोपी’ वाले ने उलझा लिया।’

‘मतलब...?’

‘हुआ यूँ कि घर से निकलते समय मैंने हेलमेट तो पहन लिया, किन्तु डी.एल. लेना भूल गया। लालबत्ती चौक पर येलो लाइट थी, मैंने सोचा, अभी रेड लाइट तो हुई नहीं, तेज़ी से चौराहा पार कर लिया। दूसरी ओर खड़े सिपाही ने रोक लिया। उसने लाइसेंस माँगा। मैंने जेब टटोली। डी.एल. दूसरी पेंट में रह गया था। मैंने सॉरी कहा, किन्तु उसने कहा - चालान होगा। काफ़ी मिन्नत करने पर सौ रुपए दिए तो उसने छोड़ा। .... वृंदा, पुलिस भी कितनी करप्ट है! इनकी सेवा-पानी कर दो तो ठीक, वरना उलझे रहो।’

‘मनु, माफ़ करना, यहाँ मैं तुमसे सहमत नहीं। पुलिस को करप्ट कौन बनाता है? हम ही ना? यदि तुमने अपनी गलती के लिए चालान करवा लिया होता, तो न तो तुम्हें उसकी खुशामद करनी पड़ती और ना ही रिश्वत देनी पड़ती। तुमने चालान से बचने के लिए दोनों काम किए। एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमारा कर्त्तव्य है कि हम नियम-क़ानूनों का पालन करें।’

‘वृंदा, मैं तुम्हारा आभारी हूँ मुझे मेरी गलती का अहसास करवाने के लिए। मैं तुम्हारी सौगंध खाता हूँ कि आगे से कभी ऐसी गलती नहीं दुहराऊँगा।’

‘सौगंध-वौगंध की ज़रूरत नहीं मनु। अपनी असुविधा की परवाह किए बिना हमें अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। खैर, छोड़ो इन बातों को, यह बताओ कि हमारी गुड्डू कैसी है? अब तो रिस्पाँस देने लग गई होगी?’

‘हाँ, नटखट होती जा रही है। दस-पन्द्रह दिनों में रेनु थोड़ा और सँभल जाए, फिर तुम्हें खाने पर बुलाते हैं।’

‘मैं वैसे ही आ जाऊँगी, औपचारिक तौर पर बुलाने की ज़रूरत नहीं। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से मुझे फ़ुर्सत ही नहीं लगी। गुड्डू को देखने का बहुत मन करता है। ..... मनु, गुड्डू की विशेष देखभाल की आवश्यकता है। पहले हमारे समाज में डिलीवरी के बाद लेडीज़ को कुछ दिनों के लिए और नवजात शिशुओं को चालीस-पैंतालीस दिनों तक बाहरी सम्पर्क से दूर रखा जाता था। इसे हमारी पीढ़ी उनके दक़ियानूसी ख़्याल मानकर मज़ाक़ उड़ाया करती है, किन्तु इसके पीछे भी वैज्ञानिक सोच थी। उन दिनों मेडिकल फेस्लिटीज तो आम जनता की पहुँच से बाहर होती थीं, तो वे लोग इस प्रकार नवजात शिशुओं को संक्रमण से बचाते थे।’

‘वृंदा, तुम ठीक कहती हो। पुराने रीति-रिवाजों को बिना जाने-समझे, उनकी खिल्ली उड़ाना हम लोगों की नासमझी ही है।’

ये लोग बातों में व्यस्त थे। इसी बीच बहादुर सूप बना लाया। बातों को विराम लग गया। जब इन्होंने सूप बॉउल ख़ाली कर टेबल पर रख दिए तो बहादुर ने आकर पूछा - ‘डॉक्टर सॉब, खाना कितनी देर में लगाऊँ?’

‘पन्द्रह-बीस मिनट बाद।’

खाना खाने के उपरान्त मनमोहन जाने के लिए उठने लगा तो डॉ. वर्मा ने कहा - ‘मनु, जो बात करने के लिए तुम्हें बुलाया था, उसपर तो अभी मुँह भी नहीं खोला। बैठो, और तुम्हें लगता है कि रेनु तुम्हारा इंतज़ार कर रही होगी तो फ़ोन कर दो कि शाम तक आऊँगा।’

मनमोहन को हैरानी हुई कि डॉ. वर्मा उससे ऐसी कौन-सी बात करना चाहती है, जिसके लिए शाम तक रुकने को कह रही है। उसने घर फ़ोन करने वाली बात पर उत्तर दिया - ‘वृंदा, रेनु को पता है कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, इसलिए फ़ोन करने की आवश्यकता नहीं। यदि कोई ज़रूरत होगी तो उसका फ़ोन आ जाएगा। लेकिन, ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिए शाम तक रोक रही हो?’

‘मनु, तुम्हें याद है, छठी पूजन वाले दिन तुमने विमल की दु:खद दास्तान का ज़िक्र किया था। मैंने कई बार सोचा, किन्तु उसके जीवन में किस तरह का दु:ख व्यापा होगा, जिसके कारण वह तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी, गुड्डू के जन्म पर भी नहीं आया, लेकिन मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। दोस्ती तोड़ने वाला शख़्स तो वह है नहीं।’

‘ठीक कहती हो वृंदा। विमल उन लोगों में से नहीं है, जो सहसा दोस्त से किनारा कर लेते हैं। गुड्डू के जन्म पर वह बधाई देने अस्पताल आया था। जब मैंने तुम्हारे बारे में बताया तो तुरन्त चला गया था। मेरी मिन्नतों के बावजूद वह छठी पूजा पर नहीं आया, क्योंकि वह अपनी वर्तमान स्थिति के चलते तुम्हारे सामने नहीं आना चाहता था।’

‘मनु, बाक़ी बातें छोड़ो। मुझे उसके दु:ख का कारण बताओ। मैं बहुत उत्सुक हूँ उसके बारे में जानने को।’

‘वृंदा, कहते हैं कि मानव-जीवन का परिचालन ईश्वर के हाथों में है। वही सब मनुष्यों के जीवन का नियंता है। मनुष्य के जीवन में सुख-दु:ख उसके अपने कर्मों के अनुसार प्रतिफलित होते हैं। कभी-कभी किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि उसकी ही नहीं, सारे परिवार की ख़ुशियों को ग्रहण लग जाता है। व्यक्ति सोच भी नहीं सकता कि ऐसा क्यूँ हुआ? अपने कर्मों का विश्लेषण करता है तो कहीं कोई सूत्र नहीं मिलता, जिसकी वजह से जीवन-रूपी गाड़ी एकाएक पटरी से उतर गई। विमल और उसके माता-पिता धर्म में आस्था रखने वाले, कभी किसी का बुरा न चाहने वाले, अपने काम-से-काम रखने वाले प्राणी हैं।

‘कुछ अपवादों को छोड़कर विवाह के माध्यम से दो अनजान व्यक्ति एक-दूसरे के साथ जीवन-भर के रिश्ते में बँधते हैं। शायद इसीलिए विवाह को एक जुआ भी कहा गया है। चाल सीधी पड़ गई तो पौ बारह, वरना जीवन-भर का पछतावा। विमल के जीवन में विवाह ख़ुशियों का सबब बनने की बजाय उसे पूरी तरह से तोड़ देने वाली घटना बन गया। विवाह के कुछ दिनों बाद ही उसकी पत्नी अनामिका ने सिरदर्द का बहाना बनाकर अपने कमरे में खुद को बन्द रखना शुरू कर दिया। चाची ने विमल को कहा, इसे कुछ दिनों के लिए मायके भेज दे, शायद मम्मी के साथ रहकर इसका मन बहल जाए। पन्द्रह दिनों बाद विमल जब अनामिका को लिवाने ससुराल गया तो उसकी सास ने बताया कि अनामिका यहाँ तो बिल्कुल ठीक रही। वापस आने पर अनामिका तीन-चार दिन नॉर्मल रही, फिर उसका वही रूटीन शुरू हो गया। विमल ने बड़ी कोशिश की कि किसी डॉक्टर से कंसल्ट कर लेते हैं, लेकिन वह तैयार नहीं हुई। जब माहवारी के दिन निकल गए और माहवारी नहीं आई तो चाची ने विमल को समझाया कि बहू पेट से है, इसलिए यदा-कदा तबियत ख़राब हो सकती है। चाची ने तो अपने आप को समझा लिया, किन्तु अनामिका हर महीने-बीस दिन बाद ज़िद्द करके हफ़्ते-दस दिन के लिए मायके चली जाती।

‘खैर, किसी तरह समय बीता और विवाह के आठवें महीने अनामिका ने एक सुन्दर से बेटे को जन्म दिया। बेटे के जन्म की ख़ुशी में विमल के परिवार के किसी भी सदस्य के मन में कोई संशय नहीं उठा।’

संशय वाली बात पर डॉ. वर्मा ने मनमोहन को रोकते हुए पूछा - ‘मनु, यह संशय वाली बात तुम क्यों कह रहे हो?’

‘वृंदा, तुम तो डॉक्टर हो। आम धारणा है कि प्री-मैच्योर डिलीवरी में बच्चा नॉर्मल नहीं होता। ... बच्चा होने के बाद डेढ़-दो महीने तक अनामिका का बर्ताव ठीक रहा। फिर वही पुराना रूटीन शुरू हो गया। यहाँ रहते हुए अनामिका का सिरदर्द का बहाना करके अपने कमरे में बन्द रहना और फिर मायके चले जाना। एक बार मायके से आए हुए दो दिन ही हुए थे कि अनामिका नहाने के लिए बाथरूम में थी और विमल लगभग छ: महीने के बेटे को लिए बेड पर बैठा था कि अनामिका के मोबाइल पर व्हॉट्सएप की बीप सुनाई दी। अनामिका अपना मोबाइल हमेशा लॉक रखा करती थी, किन्तु उस दिन शायद लॉक करना भूल गई थी। विमल ने मोबाइल उठाया तो व्हॉट्सएप पर बहुत ही अश्लील एवं भद्दी भाषा में पिछली मुलाक़ात के चटकारे लेकर लिखे वर्णन और जल्दी दुबारा मिलने के लिए मैसेज को देखकर दंग रह गया। उसने उस नम्बर को खँगाला तो उस तरह की भाषा में अलग-अलग तारीख़ों में उसी तरह के अनेक मैसेज आए हुए थे। उसने फुर्ती से सभी मैसेज अपने नम्बर पर शेयर करके मोबाइल बन्द कर दिया। उसने स्वयं पर नियन्त्रण रखते हुए कुछ भी प्रकट नहीं किया। वृंदा, कितना मुश्किल रहा होगा विमल के लिए स्वयं पर नियन्त्रण रखना?’

‘हाँ, जैसा तुम बता रहे हो, ऐसे में तो कोई भी आपा खो सकता है! लेकिन विमल के सेल्फ कंट्रोल की तारीफ़ करनी पड़ेगी। ... विमल की ससुराल कहाँ है और उसकी ससुराल में कौन-कौन हैं?’

‘कैसी ससुराल? अब तो याद करके भी मन ख़राब होने लगता है। …. अनामिका की मम्मी दिल्ली में रहती हैं। उसका चाचा ही उसकी मम्मी की देखभाल करता है। उसके अपने परिवार में तो और कोई नहीं है।’

‘तुम्हारी बातों से लगता है कि विमल और अनामिका के बीच अब कोई सम्बन्ध नहीं।’

‘वृंदा, जब बताने लगा हूँ तो सब कुछ बताऊँगा।’

‘मनु, तुम्हें नहीं लगता कि चाचा ही इस सारे मामले की जड़ था?

‘चाचा जड़ तो नहीं था, क्योंकि उसका अपना परिवार भी है। लेकिन, उसकी शह ज़रूर थी।’

‘फिर क्या हुआ?’

‘उस दिन शाम को विमल मुझसे मिलने आया। थोड़ी देर बैठने और इधर-उधर की बातों के बाद जब मंजरी दीदी रसोई में बिजी थी तो कहने लगा - चल यार, कहीं घूम कर आते हैं। तेरे साथ अकेले में कुछ ख़ास बात करनी है। मैंने दीदी को कहा कि मैं विमल के साथ जा रहा हूँ तो उसने रसोई में से ही कहा - मैं खाना तैयार कर रही हूँ। विमल भी यहीं खाना खा लेगा। मेरे कुछ कहने से पहले ही विमल ने कह दिया - दीदी, आज तो मैं यहाँ वापस नहीं आऊँगा। मेरे लिए खाना मत बनाना। और हम घर से बाहर आ गए। मैंने पूछा - कहाँ चलना है तो कहने लगा, ‘ब्लू बर्ड’ चलते हैं, वहाँ शांति से बैठकर बातें की जा सकती हैं।

‘ब्लू बर्ड’ पहुँचे तो जैसा अक्सर सरकारी होटल-रेस्तराँ में होता है, डाइनिंग हॉल बिल्कुल ख़ाली था। हम लेक साइड की विंडो के पास वाली टेबल पर बैठ गए। काफ़ी देर तक जब कोई नहीं आया तो वेटर को आवाज़ देकर बुलाया और चाय का ऑर्डर दिया। उसके बाद मैंने पूछा - अब बता, क्या बात है? तो उसने अपने मोबाइल पर व्हॉट्सएप खोलकर मेरे सामने कर दिया। एक-एक करके सभी मैसेज मैंने पढ़े। जैसा तुम्हें बताया, सब में बड़ी ही गंदी भाषा में लगभग एक-सी बातें। मैंने पूछा - अनामिका से पूछा या चाचा जी से बात की, तो उसका उत्तर ‘ना’ में था। मैंने कहा - इस तरह बात नहीं बनने की। चाचा जी ने दुनिया देखी है। उन्हें सारी बातें बताकर जैसी सलाह वे दें, उसी के अनुसार अगला कदम उठाना चाहिए।

‘विमल के घर पर अनामिका के होते हुए चाचा जी के साथ अकेले में खुलकर बात करना सम्भव नहीं था। इसलिए हमने फ़ैसला किया कि अगले दिन मैं ऑफिस से छुट्टी ले लूँगा और विमल चाचा जी के साथ दुकान पर आधा घंटा पहले आ जाएगा। जब चाचा जी को व्हॉट्सएप मैसेज दिखाए बिना सारी बातें विस्तार से बताईं तो उन्हें कोई ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि अनामिका के क्रियाकलापों से वे भी विचलित रहते थे, चाहे उन्होंने अपनी बेचैनी परिवार में कभी ज़ाहिर नहीं की थी। उन्होंने अपने जानकार एक वकील से समय लिया और उसी दिन शाम को उससे सलाह-मशविरा करके अनामिका की मम्मी को आने के लिये फ़ोन कर दिया।

‘अनामिका की मम्मी और उसका चाचा दूसरे दिन ही आ गए। उन्हें सबूतों के साथ अनामिका की हरकतों के बारे में बताया। उन्होंने कोई विशेष अचरज नहीं दिखाया जैसे कि उन्हें ये बातें पहले से ही ज्ञात थीं। अनामिका ने अपने बचाव में कुछ कहने की अपेक्षा मुँह बन्द ही रखा। चाचा जी ने कहा कि इन सब हरकतों को जानने के बाद अनामिका को बहू के रूप में रखना हमारे लिये सम्भव नहीं। उन्होंने तत्काल कहा कि हम अपनी बेटी को ले जाते हैं तो चाचा जी ने कहा कि विमल और अनामिका के सम्बन्ध-विच्छेद की लिखा-पढ़ी के बाद ही वे ऐसा करने देंगे। चाचा जी ने अपने वकील मित्र को बुलाया और आपसी सहमति से तलाक़ की अर्ज़ी अदालत में लगाने तथा अन्य किसी प्रकार की क़ानूनी कार्रवाई न करने की लिखत पर अनामिका की मम्मी तथा चाचा के हस्ताक्षर करवा कर उन्हें जाने दिया। …. ’

डॉ. वर्मा ने इतना सुनने पर मनमोहन को रोककर पूछा - ‘तो क्या अनामिका को भेजते समय विमल के पापा ने उसका स्त्रीधन आदि भी उसी समय दे दिया था?’

‘हाँ। क्योंकि वकील की उपस्थिति में लिखा-पढ़ी हुई थी तो चाचा जी ने वकील की सलाह के अनुसार अनामिका का देय उसी समय दे दिया था, क्योंकि वे तो इस क्लेश से पूरी तरह छुटकारा पाकर शान्ति से रहना चाहते थे। लेकिन वृंदा, यह शान्ति ‘चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात’ साबित हुई। कुछ दिनों के बाद ही इस क्लेश ने ऐसा रूप इख़्तियार किया कि विमल, चाचा-चाची ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके साथ ऐसा होगा।.....’

मनमोहन कहते-कहते रुका तो डॉ. वर्मा ने प्रश्न किया - ‘आपसी सहमति और वकील की गवाही में जब लिखा-पढ़ी हो गई थी तो क्लेश का मुद्दा क्या रह गया था?’

‘अनामिका के प्रेमी, वैसे उस व्यक्ति के लिए ‘प्रेमी’ शब्द का प्रयोग करना ‘प्रेम’ का अपमान करना होगा, वास्तव में तो वह एक गैंग का सदस्य है, जिसका धंधा ब्लैकमेल करके ऐश करना तथा पैसा ऐंठना है। कारण तो पता नहीं चल पाया, किन्तु इतना पता लग गया था कि अनामिका और उसकी मम्मी इस गैंग के चंगुल में बुरी तरह से फँसी हुई थीं और उन्हीं के उकसाने पर उन्होंने विमल और चाचा-चाची के विरुद्ध धारा 498 ए के अन्तर्गत एफ.आई.आर. लिखवा दी। तत्काल पुलिस कार्रवाई हुई। विमल को जेल जाना पड़ा, क्योंकि उसे बेल नहीं मिली।’

‘मतलब कि विमल जेल में रहा और उसके मम्मी-पापा का क्या हुआ?’

‘चाचा-चाची को तो पहले दिन ही बेल मिल गई, लेकिन विमल को छ:-सात दिन जेल में रहना पड़ा था। सातवें दिन बाद उसकी बेल हुई। सातवें दिन भी बेल इसलिए मिल गई थी कि इनके पास लिखित रूप में राजीनामा था वरना तो पता नहीं कितनी देर जेल में रहना पड़ता! ...... वृंदा, सबसे बड़ी दिक़्क़त इसलिए थी कि मुक़दमा दिल्ली चल रहा था। हर पेशी पर विमल और चाचा-चाची को दिल्ली जाना पड़ता था।’

‘ओह! .... भले लोगों के साथ ही ऐसा क्यों होता है? .... मनु, एक बात पूछना चाहती हूँ।’

‘हाँ, पूछो।’

‘जब विमल के पास अनामिका के विरुद्ध ठोस सबूत थे तो इन्होंने उसके विरुद्ध काउंटर केस क्यों नहीं डाला?’

‘वृंदा, तुम्हें तो पता ही है कि हमारी क़ानून-व्यवस्था कैसी है! कोई भी समझदार व्यक्ति क़ानूनी लफड़ों से बचना चाहता है। जब अनामिका की ओर से केस में उलझ गए तो चाचा जी ने शुरू से कोशिश की कि किसी तरह कुछ दे-दूकर समझौता हो जाए और हर पेशी पर दिल्ली जाने से छुटकारा मिले। शुरू में अनामिका की ओर से ‘गैंग’ ने जो डिमांड रखी, उसे पूरा करना चाचा जी के बूते से बाहर था। डेढ़ साल मुक़दमा चलने के बाद ‘गैंग’ की डिमांड कुछ कम हुई। चाहे डिमांड अब भी बहुत अधिक थी, फिर भी चाचा जी ने मान ली। इस प्रकार कोर्ट से पीछा छूटा। तब से विमल की पारिवारिक व आर्थिक स्थिति गड़बड़ाई हुई है। इसके अतिरिक्त मानसिक तनाव तो बना हुआ है ही, सो वह सामाजिक तौर पर भी स्वयं को अलग-थलग ही रखता है।’

‘यह सब सुनकर बड़ा कष्ट हो रहा है। किसी दिन उसे मेरे पास लेकर आना। मैं कोशिश करूँगी उसे समझाने की। जो होना था, सो हो गया। सब कुछ समाप्त नहीं हुआ। हौसला रखने से ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आ सकती है।’

मनमोहन ने डॉ. वर्मा के इस सुझाव पर कुछ नहीं कहा। उसे पता था कि डॉ. वर्मा ने उपरोक्त बात अपनेपन में कही है, किन्तु बिना विमल से बात किए वह कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। अत: वह जाने के लिए उठने लगा तो डॉ. वर्मा ने कहा - ‘चाय बनवाती हूँ। चाय पीकर जाना।’

चाय की तलब तो मनमोहन को भी हो रही थी, इसलिए बिना कुछ कहे वह बैठ गया।

चाय पीते हुए डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘मनु, गुड्डू का प्रॉपर नाम क्या रखा है?’

‘प्रॉपर नाम तो जो तुम चाहोगी, वही रखेंगे।’

‘ना, ऐसा मत सोचो। यह अधिकार तो रेनु और तुम्हारा है।’

‘यहाँ अधिकतर की बात कहाँ आती है? जब तुमने गुड्डू को ‘अपनी’ मान लिया और रेनु को इसमें कोई एतराज़ नहीं तो तुम्हीं उसका नाम भी रख दो।’

मनमोहन का कथन सुनकर डॉ. वर्मा को ऐसे अनुभव हुआ जैसे उसके अन्त:करण में शीतलता की लहर दौड़ गई हो! इस आनन्दानुभूति को आत्मसात् करने के लिये उसने कुछ पलों के लिये आँखें मूँद लीं।

‘मनु, मेरे दिल की बात तुम भलीभाँति समझते हो, फिर भी कहती हूँ। जब डिलीवरी के बाद नर्स गुड्डू को साफ़ करके रेनु की बग़ल में लिटाने लगी थी, उस समय एन्थीसिया की वजह से रेनु को तो होश नहीं था, तब गुड्डू को मैंने नर्स से पकड़कर अपनी छाती के साथ लगाया था। उस अनुभूति को शब्दों में बयान करना सम्भव नहीं, केवल अनुभव किया जा सकता है। .... याद है तुम्हें, जब मेरे केबिन में तुमने पूछा था - कुछ सोच रही थी, तो मैंने कहा था - इस बिटिया को तो मैं जन्म नहीं दे सकी, किन्तु क्या तुम मुझे इसके जीवन की दिशा निर्धारित करने का अधिकार दे सकते हो? और तुमने कहा था - वृंदा, बिटिया तुम्हारी ही है। इससे अधिक मैं क्या कहूँ - तब जो सुकून मिला था, आज वह अपने चरम पर पहुँच गया है। ..... मैं गुड्डू का नाम सोचूँगी और उसे गोद में लेकर ही उस नाम से उसे पुकारूँगी।’

‘ठीक है, अब मैं चलता हूँ। जब नाम सोच लो, आ जाना। हम इंतज़ार करेंगे।’

॰॰॰॰॰