प्यार के इन्द्रधुनष - 8 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 8

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सुबह से शाम हो गई, किन्तु रेनु की स्थिति जस-की-तस रही। मंजरी और मनमोहन चिंतित तो थे, लेकिन वे सिवा प्रतीक्षा के कुछ नहीं कर सकते थे। हाँ, डॉ. वर्मा के कारण वे आश्वस्त भी थे। जैसे ही शाम का राउंड लेने के बाद डॉ. वर्मा अपने केबिन में पहुँची, उसने अटेंडेंट को मनमोहन को  बुलाने के लिए भेजा। मनमोहन के आने पर उसने उसे समझाया - ‘देखो मनु, रेनु को लेकर तुम्हारी एंग्जाइटी को मैं समझ सकती हूँ। पेन्स बीच-बीच में बिल्कुल मंद पड़ जाते हैं। पेन्स इंडूस करने वाले इंजेक्शन का भी कोई असर नहीं हुआ। कहो तो रात भर इंतज़ार कर सकते हैं। वैसे मेरी राय में बिना देरी के सीजेरियन ऑपरेशन करना मदर और बेबी के लिए एडवाइजेबल है।’

‘वृंदा, पहली डिलीवरी है, रेनु की जान को तो कोई रिस्क नहीं ना?’

मनमोहन की चिंता देखकर डॉ. वृंदा का मन भी क्षणभर के लिये भावुक हो उठा, किन्तु उसने अपने मनोभावों को अपने तात्कालिक कर्त्तव्य पर हावी नहीं होने दिया और मनमोहन को आश्वस्त करते हुए कहा - ‘मनु, तुम्हें अपनी वृंदा पर विश्वास है या तुम्हारे सामने मैं सिर्फ़ एक डॉक्टर हूँ?’

‘वृंदा, यह कैसी बात कह दी तुमने! किसी वक़्त मैं ख़ुद पर अविश्वास कर सकता हूँ, लेकिन तुम पर कभी नहीं। मेरा तुम पर अटूट विश्वास है, उतना ही जितना पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण पर।..... वृंदा, ऑपरेशन में ब्लड की ज़रूरत भी पड़ सकती है?’

‘हाँ, पड़ सकती है, लेकिन तुम्हें उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। मैं हूँ ना!’

इसके साथ ही उसने लेबर रूम में ड्यूटी दे रही नर्स को बुलाया और ऑपरेशन के लिए आवश्यक हिदायतें दीं।

आम व्यक्ति के लिए ऑपरेशन का नाम ही बहुत बड़ा होता है। डॉ. वर्मा द्वारा आश्वस्त करवाने के बावजूद मनमोहन के हृदय की धड़कन तेज हो गई। उसकी यह स्थिति तब तक बनी रही जब तक कि डॉ. वर्मा ने आकर उसे तथा मंजरी को बधाई नहीं दी। जब डॉ. वर्मा ने कहा कि मनमोहन, तुम एक परी-सी बिटिया के पापा बन गए हो तो मनमोहन ने हृदय से धन्यवाद देते हुए पूछा - ‘डॉक्टर, रेनु कैसी है?’

‘सकुशल है। अभी एक घंटे बाद तुम माँ और बेटी से मिल सकोगे,’ कहकर डॉ. वर्मा कमरे से बाहर चली गई।

मंजरी - ‘मोहन, तुम तो यहाँ हो ही, मैं घर से रेनु के खाने के लिए कुछ बना लाती हूँ।’

डॉ. वर्मा अपने केबिन में आई। उसने कॉफ़ी मँगवाई और कॉफी पीते हुए सोचने लगी - जब नर्स से पकड़कर बिटिया को मैंने अपने सीने से लगाया था तो मेरे सीने की धड़कन अचानक तेज हो गई थी। काश कि सामाजिक भेदभाव और आर्थिक खाई को दर-किनार करके मैंने मनु को अपना बना लिया होता तो यह बिटिया मेरी कोख से भी जन्म ले सकती थी! तत्क्षण मन ने कहा - वृंदा, जब तुमने अपने प्यार के लिए इतना बड़ा त्याग किया है तो इस तरह सोचना भी बेमानी है। हाँ, तुम इतना अवश्य कर सकती हो कि इस बिटिया के जीवन की दिशा को अपने मन-मुताबिक़ निर्धारित कर सकती हो।

डॉ. वर्मा अपनी टेबल पर सिर टिकाए उपरोक्त विचारों में मग्न थी कि मनमोहन ने दरवाजा खोलकर प्रवेश किया।

‘वृंदा, काफ़ी थकी हुई लग रही हो?’

‘नहीं मनु, ऐसी कोई बात नहीं।’

‘कुछ सोच रही थी?’

‘हाँ। मैं सोच रही थी कि इस बिटिया को तो मैं जन्म नहीं दे सकी, किन्तु क्या तुम मुझे इसके जीवन की दिशा निर्धारित करने का अधिकार दे सकते हो?’

‘वृंदा, बिटिया तुम्हारी ही है। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?’

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