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दो साल में मनमोहन ग्रेजुएट हो गया। इस अवधि में दोनों के बीच पत्रों का आदान-प्रदान तो होता रहा, किन्तु वे एक-दूसरे से मिल नहीं पाए। कारण, वृंदा के मेडिकल में एडमिशन के कुछ समय पश्चात् ही उसके माता-पिता वापस गाँव चले गए। अत: छुट्टियों में उसे गाँव ही जाना होता था। हाँ, उसने एक-आध बार अपने पत्र में मनमोहन को जयपुर आने के लिए हल्का-सा आग्रह किया था, विशेष इसलिए नहीं कि वह उसकी विवशता समझती थी। लेकिन बी.ए. का परिणाम आने के बाद जब मनमोहन ने दो दिन के लिए जयपुर घूमने की बात अपनी बहन और जीजा के समक्ष रखी और साथ ही कहा कि इसके लिए मेरे पास पैसों का प्रबन्ध है तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी, लेकिन इतना अवश्य कहा - ‘अकेले जयपुर घूमने का क्या मज़ा आएगा, श्यामल को साथ ले जाओ।’
‘जीजा जी, मैं अकेले नहीं जा रहा। विमल भी मेरे साथ होगा।’
‘फिर तो श्यामल की ज़रूरत नहीं। कब जाना है?’
‘पहले आपकी परमीशन लेनी थी। वह मिल गई है तो अब विमल के साथ बात करके प्रोग्राम बना लेता हूँ।’
रात के खाने के बाद जब मनमोहन और विमल अपनी दिनचर्या के अनुसार घूमने को निकले तो मनमोहन ने विमल के सामने जयपुर जाने की योजना रखी। विमल ने कहा - ‘यारा, मुझे तेरे साथ जयपुर जाने में रत्ती भर दिक़्क़त नहीं, लेकिन सोचो! वहाँ दो प्रेमियों के साथ मैं रहूँगा तो न तो तुम एन्जॉय कर पाओगे और ना ही मैं सहज महसूस कर पाऊँगा।’
‘विमल, मैंने प्लानिंग कर रखी है। अपन रात की ट्रेन से चलेंगे। सुबह जयपुर पहुँचेंगे। वृंदा कॉलेज से पाँच बजे फ़्री होती है। सारा दिन शहर के ऐतिहासिक स्मारक देखने में निकल जाएगा। वृंदा के फ़्री होने के बाद मैं और वृंदा दो-तीन घंटे अकेले में बिता लेंगे। डिनर के समय हम तीनों साथ-साथ होंगे। उसके बाद वृंदा हॉस्टल चली जाएगी और दूसरे दिन आमेर दुर्ग देखकर हम वापस आ जाएँगे।’
‘कर दी ना लीद। वाह रे तेरी प्लानिंग! जिसके लिए जा रहा है, उसके साथ सिर्फ़ दो घंटे? .... मैं बताता हूँ, तुझे क्या करना है?’ कहकर विमल रुक गया।
मनमोहन कुछ नहीं बोला। प्रतीक्षा करने लगा कि विमल आगे क्या कहता है। कुछ सोचकर उसने पूछा - ‘वृंदा की इतवार को तो छुट्टी रहती होगी?’
‘हाँ, संडे तो ऑफ होता है उसका।’
‘तो फिर शनिवार की रात को चलते हैं। इतवार का सारा दिन तू वृंदा के साथ बिताना। डिनर में मुझे भी शामिल कर लेना अगर वृंदा को एतराज़ ना हो तो। सोमवार का प्रोग्राम तेरी दूसरे दिन की प्लानिंग के मुताबिक़ रहेगा।’
‘लेकिन विमल, संडे को तू सारा दिन अकेला क्या करेगा? दूसरे, यह तो तेरे साथ ज़्यादती होगी! ना भाई ना, वृंदा के लिए मैं अपने परम मित्र के साथ नाइंसाफ़ी नहीं कर सकता।’
‘मेरे यार, भावुक होने से काम नहीं चलने का, व्यावहारिक बनना पड़ेगा। जयपुर बहुत बड़ा शहर है, मटरगश्ती करते हुए मुझे टाइम का पता ही नहीं चलना। दूसरे, तेरी ख़ुशी के लिए यह तो कुछ भी नहीं, मैं किसी भी सीमा तक जा सकता हूँ।’
‘विमल, मुझे तेरी दोस्ती पर गर्व है।’
विमल ने मनमोहन की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा - ‘मेरी नहीं, हमारी।’
अगले ही दिन मनमोहन ने पत्र लिखकर यथावत वृंदा को सूचित कर दिया। वृंदा ने भी लौटती डाक से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे सूचित किया कि उनके लिये होटल-रूम बुक करवा दिया है तथा वह स्टेशन पर उन्हें लेने आएगी।
तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार मनमोहन और विमल ने शनिवार शाम को जयपुर के लिए ट्रेन पकड़ी। रविवार की सुबह ट्रेन सही समय पर जयपुर तो पहुँच गई, किन्तु लाइन क्लीयर न मिलने के कारण आउटर सिग्नल पर काफ़ी देर तक रुकी रही। इसलिए प्लेटफ़ॉर्म पर लगभग पन्द्रह मिनट देरी से पहुँची। ट्रेन जब प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचने वाली थी, तभी मनमोहन अपनी सीट से उठकर डिब्बे के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। इसलिए प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी वृंदा को उसने दूर से ही देख लिया तथा हाथ हिलाकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। जब ट्रेन रुकी तो वृंदा लगभग भागती हुई उस कम्पार्टमेंट के पास पहुँची, जिसमें से मनमोहन और विमल उतर रहे थे। वृंदा ने हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए कहा - ‘आप दोनों मित्रों का स्वागत है।’
विमल और मनमोहन ने भी हाथ जोड़कर नमस्ते का उत्तर दिया। विमल ने नमस्ते के साथ ‘धन्यवाद’ भी कहा। तत्पश्चात् मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, ट्रेन तो टाइम पर ही थी, आउटर पर खड़ी रहने के कारण लेट हो गई।’
वृंदा - ‘इस ट्रेन के साथ अक्सर ऐसा ही होता है।’
मनमोहन ने अकेले आना होता तो शायद वह केजुअल ड्रेस में ही आती, लेकिन आज क्योंकि उसके साथ उसका मित्र भी आ रहा था, इसलिए वृंदा फ़ॉर्मल ड्रेस पहनकर आई थी। ड्रेस जहाँ उसके व्यक्तित्व को निखार प्रदान कर रही थी, वहीं मेडिकल की पढ़ाई के दबाव के बावजूद उठती जवानी का लावण्य उसके अंग-अंग से फूटा पड़ रहा था। पहली बार देखने वाले विमल का ऐसा सौन्दर्यमयी व्यक्तित्व देखकर चकित रह जाना तो स्वाभाविक ही था, लेकिन मनमोहन के लिए भी दो वर्ष के अन्तराल के पश्चात् वृंदा का यह रूप कम आश्चर्यजनक न था। मनमोहन ने तो अपनी प्रसन्नता सिर्फ़ आँखों से ही प्रकट की, किन्तु विमल शब्दों में व्यक्त करने से स्वयं को रोक नहीं पाया। उसने कहा - ‘वृंदा जी, मनमोहन के साथ अपनी दोस्ती के कारण आप जैसी रूपवती व संस्कारशील युवती से मिलकर मैं तो धन्य हो गया हूँ तथा आपका हृदय से आभारी हूँ कि आपने मनमोहन के साथ मेरे आने पर कोई एतराज़ नहीं किया।’
‘विमल जी, मनमोहन के पत्रों से मैंने आप दोनों के बीच की दोस्ती को जैसा समझा है, उसके आधार पर कह सकती हूँ कि आप दोनों जैसी दोस्ती आज के युग में कहाँ देखने को मिलती है? मैं खुशनसीब हूँ कि मनमोहन के कारण आपके भी दर्शन हो गए।’
मनमोहन - ‘वृंदा, अब चलें। खुलकर बातें करने के लिये अपने पास समय-ही-समय है।’
इसके पश्चात् वे स्टेशन से बाहर आए, टैक्सी ली और होटल पहुँच गये। वृंदा ने पूछा - ‘आप लोग चाय तो ले ही लोगे, सारी रात का सफ़र करके आए हो।’
मनमोहन - ‘हाँ, चाय पीकर ही स्नानादि करेंगे।’
नाश्ता करने के उपरान्त वृंदा ने पूछा - ‘अब क्या प्रोग्राम है?’
विमल - ‘वृंदा जी, हम दोनों तो पहली बार जयपुर आए हैं। घूमने-फिरने के लिए आए हैं। ऐतिहासिक नगरी है। कुछ ऐतिहासिक स्थल देख लेते हैं। बाक़ी जैसा आप गाइड करें।’
‘विमल, तुम मनमोहन के मित्र होने के नाते मेरे भी मित्र हुए। हमारी आयु भी लगभग बराबर-सी है। मैंने इनफॉर्मल होने की शुरुआत कर दी है। तुम भी ‘जी’ और ‘आप’ कहना छोड़ो, तभी इकट्ठे घूमने का आनन्द आएगा।’
विमल को वृंदा का अपनत्व दिखाना बहुत अच्छा लगा। उसने कहा - ‘धन्यवाद।’
‘बात-बात पर ‘धन्यवाद’ भी नहीं।’
‘लगता है, मनमोहन की तरह मुझे भी तुम्हारे सामने सरेंडर कर देना चाहिए!’
मनमोहन ने उसकी पीठ पर हल्का-सा धौल जमाते हुए कहा - ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। अब आएगा जयपुर ट्रिप का आनन्द।’
दोनों मित्रों के आख़िरी संवाद सुनकर वृंदा का मुखमंडल आरक्त हो उठा। कुछ देर तक वह कुछ नहीं बोली। फिर उसने कहा - ‘मेरे विचार में अब हम सीधे आमेर दुर्ग देखने चलते हैं। यहाँ का सिटी पैलेस, जंतर-मंतर, बिरला मन्दिर, म्यूज़ियम आदि तुम लोग कल देख लेना, क्योंकि आमेर दुर्ग मैंने भी अब तक नहीं देखा और यहाँ का तो सब कुछ मैं देख चुकी हूँ।’
मनमोहन ने हँसते हुए कहा - ‘देखा विमल, तुमने ‘सरेंडर’ किया और वृंदा ने एक ही स्ट्रोक में तुम्हारी सारी प्लानिंग ध्वस्त कर दी।’
प्रथम बार मिलने वाले विमल के सामने मनमोहन द्वारा इस तरह की टिप्पणी करने पर वृंदा झेंप गई। सोचने लगी, विमल की क्या प्लानिंग रही होगी? आख़िर उसने कहा - ‘सॉरी विमल, मुझे नहीं पता था कि तुमने पहले से कोई प्लानिंग की हुई है?’
‘वृंदा, ऐसा कुछ नहीं है। तुम बिल्कुल भी परेशान मत हो। मनमोहन ने तो बात मज़ाक़ में कही है। ..... हमने सोचा था कि आज शहर में तुम्हारे संग घूम लेंगे और कल हम आमेर दुर्ग देखकर वापस हो लेंगे। लेकिन जब तुमने आमेर का दुर्ग अभी तक नहीं देखा है तो आमेर ही चलते हैं। नई जगह साथ-साथ देखने में अधिक मज़ा आएगा।’
जयपुर से आमेर दुर्ग के लिये ऑटो-रिक्शा तथा टैक्सियाँ कहीं से भी ली जा सकती हैं। सड़क पर आकर वृंदा ने टैक्सी ली। आमेर पहुँचकर ड्राइवर ने पूछा - ‘आप लोग यहीं उतरोगे या गाड़ी ऊपर तक ले चलूँ।’
वृंदा - ‘हमें यहीं उतार दो।’ और मीटर देखकर पैसे देने लगी तो विमल ने अपनी जेब से पाँच सौ का नोट निकालकर ड्राइवर के आगे कर दिया। इससे पहले कि ड्राइवर विमल के हाथ से नोट पकड़ता, वृंदा ने कहा - ‘भइया, इनसे मत लेना। पैसे मैं दे रही हूँ।’
ड्राइवर समझदार था। चलते समय जब वृंदा ने उससे बात की थी तो उसने विमल से पैसे नहीं पकड़े। टैक्सी के जाने के पश्चात् वृंदा ने विमल को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘विमल, जब तक मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम्हें जेब में हाथ डालने की ज़रूरत नहीं। तुम मेरे मेहमान हो।’
विमल ने मज़ाक़िया लहजे में उत्तर दिया - ‘वृंदा, बड़ी कड़ी पाबंदी लगा दी तुमने तो। यदि मुझे जेब से कुछ निकालना हुआ तो मुझे अपने मित्र की मदद लेनी पड़ेगी।’
विमल के उत्तर पर वृंदा भी अपनी हँसी रोक नहीं पाई।
ऐतिहासिक स्थलों के गाइड मनोविज्ञान में पारंगत होते हैं। जिस ग्रुप में युवती या महिला होती है, उन्हें विश्वास होता है कि ये लोग गाइड अवश्य करेंगे। अत: जैसे ही वृंदा ने ड्राइवर को पैसे दिए, तीन-चार गाइड अपनी सेवाएँ देने के लिए अपने-अपने ट्रिक आज़माने लगे। वृंदा ने एक गाइड जिसने अढ़ाई-तीन घंटे उनके साथ रहकर जानकारी देने की बात कही, को हामी भर दी।
आमेर दुर्ग में प्रवेश करने के लिए जैसे ही ये लोग पैदल चलते हुए ऊपर पहुँचे तो गाइड ने अपना काम आरम्भ कर दिया। उसने बताया - ‘सबसे पहले मैं आप लोगों को इस दुर्ग की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताता हूँ। फिर जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, मैं उन स्थलों / घटकों की विशेष जानकारी देता रहूँगा।....... यह दुर्ग कुछवाहा राजपूत नरेश मानसिंह प्रथम ने बनवाया था। राजस्थान के इतिहास के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार यहाँ के राजपूत स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बड़े पुत्र कुश के वंशज मानते हैं, जिससे उन्हें कुशवाहा नाम मिला जो कालान्तर में कुछवाहा हो गया। पाँच तलीय यह दुर्ग लाल बलुआ पत्थर तथा संगमरमर से निर्मित है तथा इसका आधार विशुद्ध हिन्दु वास्तुकला है। इसमें चार द्वार हैं। पहला द्वार जिसे हमने अभी पार किया है, मुख्य प्रवेश द्वार है, इसे ‘सूरज पोल’ द्वार कहते हैं, क्योंकि यह पूर्वाभिमुख है। दूसरा द्वार ‘गणेश पोल’ है जो राज-परिवार के निजी निवास ‘शीश महल’ का प्रवेश द्वार है। तीसरा द्वार तीन दरवाज़ों वाला ‘त्रिपोलिया द्वार’ है। इसका एक दरवाजा जलेब चौक, दूसरा मानसिंह महल और तीसरा जनाना ड्योढ़ी की ओर ले जाता है...’ गाइड को बीच में रोककर विमल बोला - ‘जलेब चौक यानी जलेबी, क्या जलेब चौक में जलेबियाँ बना करती थीं? हमारे हरियाणा में गोहाना के जलेब बड़े मशहूर हैं।’
पेशेवर गाइड सैलानियों की टोका-टाकी से विचलित नहीं होते। धैर्य उनकी पूँजी होती है। सो, उसने कहा - ‘नहीं साहब। अरबी भाषा में जलेब चौक का मतलब है वह स्थान जहाँ सैनिक एकत्रित हुआ करते थे। सामने का प्राँगण ही जलेब चौक है। वीर सैनिकों को यहाँ सम्मानित किया जाता था। ... हाँ तो मैंने आपको तीन द्वारों के बारे में बताया। चौथा द्वार है ‘सिंह द्वार’ यानी विशिष्ट द्वार। इस द्वार से विशिष्ट व्यक्तियों का प्रवेश होता था यानी राज-घराने के लोग अथवा विशिष्ट अतिथि। ... दुर्ग में चार प्राँगण हैं। जलेब चौक के बारे तो अपनी बात हो चुकी। लेकिन एक बात रह गयी। इस चौक के दायीं ओर राज-घराने की कुल देवी ‘शिला माता’ का छोटा-सा किन्तु भव्य मन्दिर है। यहाँ से सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरा प्राँगण है, जहाँ दीवान-ए-आम है। सत्ताईस स्तम्भों की दोहरी क़तार से घिरे दीवान-ए-आम में महाराजा जन-साधारण के दु:ख-तकलीफ़ और उनकी फ़रियाद सुना करते थे तथा उनका निवारण किया करते थे। तीसरे प्राँगण में गणेश पोल से प्रवेश करने पर त्रि-स्तरीय महाराजा का निजी महल आता है, जिसे शीश महल भी कहते हैं, क्योंकि यह महल दर्पण जड़े फलकों से बना हुआ है तथा इसकी छत पर बहुरंगी शीशों का उत्कृष्ट प्रयोग कर अतिसुन्दर नक़्क़ाशी व चित्रकारी की गई है। शीश महल के एक स्तम्भ के आधार पर नक्काशी किया गया जादूई पुष्प यहाँ का विशेष आकर्षण है। चौथे प्राँगण में राज-घराने की महिलाएँ निवास करती थीं। इनके अलावा रानियों की दासियाँ तथा राजा की रखैलें भी यहीं निवास किया करती थीं। ..... मोटे तौर पर इस दुर्ग की यही जानकारी है। अब हम आगे बढ़ते हैं। इमारतों की विशेषताएँ यथास्थान दिखाऊँ और समझाऊँगा।’
विमल - ‘भाई साहब, आगे बढ़ने से पहले मैं तो हाथी की शाही सवारी करना चाहता हूँ। वृंदा, तुम्हारा क्या विचार है?’
‘हम भी तुम्हारे साथ हैं’, वृंदा ने मनमोहन तथा अपनी ओर से उत्सुकता दिखाई। इस प्रकार महल में गाइड के साथ आगे बढ़ने से पूर्व उन्होंने हाथी पर सवारी की। तत्पश्चात् गाइड उन्हें दुर्ग के अलग-अलग स्थलों पर ले गया तथा प्रत्येक स्थल के महत्त्व को समझाता रहा। शीश महल में जब वह ‘जादुई पुष्प’ के बारे में बता रहा था तो तीन-चार और लड़के खड़े होकर सुनने की कोशिश करने लगे तो गाइड चुप हो गया और उन्हें सम्बोधित करके कहने लगा - ‘आप लोग यहाँ मत रुकिए। मैंने इन लोगों से पैसे लिए हैं, मैं इन्हीं को समझाऊँगा, आपको नहीं।’
वृंदा - ‘गाइड साहब, हमें तो कोई एतराज़ नहीं अगर ये भाई भी कुछ जान लेते हैं तो!’
गाइड - ‘मैडम, आपको तो नहीं, लेकिन मुझे तो एतराज़ है। मेरी तो रोज़ी-रोटी का सवाल है। हम लोग मुफ़्त में लोगों को गाइड करने लगे तो हमें क्या हासिल होगा?’
फिर वृंदा ने कुछ नहीं कहा। उन लड़कों के जाने के बाद गाइड ने पुनः बताना आरम्भ किया। जब वे शीश महल में थे और गाइड अलग-अलग प्रकोष्ठों के बारे में कुछ तथ्यों और कुछ मनघडंत बातों से उन्हें प्रभावित करने की कोशिश कर रहा था तो विमल ने मज़ाक़ में कहा - ‘यह कैसा महल है! हरियाणा से तीन अति विशिष्ट अतिथि आए हुए हैं और अभी तक कोई चाय तक पूछने नहीं आया?’
गाइड ने भी उसी अंदाज़ में उत्तर दिया - ‘जनाब ने आने में बहुत देर कर दी। चार सौ साल पहले आए होते तो जनाब का ‘रेड कार्पेट’ स्वागत होता।’
मनमोहन ने परिहास को आगे बढ़ाते हुए कहा - ‘लेकिन, तब इसे यहाँ तक घुसने कौन देता?’
वृंदा भी इस चुहलबाजी में शामिल होने से खुद को रोक नहीं पाई। उसने टिप्पणी की - ‘मनमोहन, हमारे विमल में क्या कमी है? हरियाणवी छोरा लाखों में एक है। मैं तो कहती हूँ कि महाराजा स्वयं नहीं तो कम-से-कम अपने मन्त्री को अवश्य इनकी अगवानी के लिए भेजते।’
विमल - ‘वृंदा, तुमने तो यह बात कहकर बन्दे को उम्रभर के लिये अपना गुलाम बना लिया।’
वृंदा कोई जवाब देती, उससे पहले ही मनमोहन ने कहा - ‘दोनों ने एक-दूसरे की बहुत पम्पिंग कर ली भाई। अब और नहीं। गाइड साहब को अपना काम समाप्त करने दो। फिर नीचे चलकर कुछ खाते-पीते हैं। पेट में चूहे कूदने लगे हैं।’
गाइड समझ गया। उसने शेष इमारत को दिखाने और समझाने में पन्द्रह-बीस मिनट ही लगाए।
दुर्ग से नीचे आकर उन्होंने खाना खाया। टैक्सी स्टैंड से टैक्सी ली और होटल आ गए। सावन का महीना था, किन्तु आकाश पूर्णतः मेघ-रहित था। गर्मी के साथ-साथ उमस से हाल बेहाल था। टैक्सी में ए.सी. होने के कारण थोड़ी राहत मिली थी, किन्तु असली राहत होटल-रूम में पहुँच कर ही मिली। कुछ देर तक मौन छाया रहा। गर्मी की वजह से आमेर दुर्ग देखते समय जो थकावट हुई थी, ए.सी. रूम की ठंडक से वह शीघ्र ही दूर हो गई।
चुप्पी तोड़ते हुए विमल ने कहा - ‘मनमोहन, चाय मँगवा लें। फिर मैं कपड़ा मार्किट जाकर आता हूँ। देखता हूँ, मार्किट खुली हुई तो दुकान के लिये कुछ शॉपिंग ही कर लूँगा।’
वृंदा - ‘तुम्हारी कपड़े की शॉप है?’
‘हाँ।’
और चाय पीने के पश्चात् विमल जब जाने लगा तो वृंदा ने कहा - ‘विमल, टाइम से आ जाना, डिनर यहाँ के प्रसिद्ध रेस्तराँ ‘एल.एम.बी.’ में करेंगे।’
विमल के जाने के पश्चात् वृंदा ने कहा - ‘मनु, विमल बहुत अच्छा और समझदार लड़का है। लेकिन उसकी उपस्थिति में तुम्हें ‘मनमोहन’ कहकर बुलाना ज़रूर मुश्किल लगता रहा मुझे । मुझे तो नहीं लगता कि वह अपनी दुकान के लिए ख़रीदारी करने के लिये गया है, तुम्हें क्या लगता है?’
‘वृंदा, मुझसे भी विमल ने ऐसा कुछ पहले नहीं कहा। चलो, छोड़ो इस बात को।’
‘मेरे कहने का अभिप्राय: था कि वह हमें एकान्त देने के मक़सद से घूमने गया है और उसके इस आचरण से मेरे मन में उसकी इज़्ज़त और बढ़ गई है।’
मनमोहन पहले से ही बेड पर लेटा हुआ था। अभी तक विमल और वृंदा कुर्सियों पर बैठे थे। अत: मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, तुम भी बेड पर आ जाओ। लेटे-लेटे बातें करेंगे।’
वृंदा बिना कुछ कहे उठी। बेड के सिरहाने तकिए से पीठ लगाकर बैठ गई। तब उसने पूछा - ‘मनु, अब आगे किस सब्जेक्ट में मास्टर्स करने का इरादा है?’
‘वृंदा, तुम तो अच्छी तरह जानती हो, किन परिस्थितियों में मैंने अब तक की पढ़ाई की है! इसलिए मन करते हुए भी मास्टर्स करना मेरी पहुँच से बाहर है।’
वृंदा ने बहुत समझाने की कोशिश की कि मनमोहन को मास्टर्स डिग्री के लिये यूनिवर्सिटी अवश्य जाना चाहिए। उसने उसकी आर्थिक सहायता का भी आश्वासन दिया, किन्तु मनमोहन अब और अधिक समय के लिए अपनी बहन की गृहस्थी पर बोझ नहीं बने रहना चाहता था। वृंदा ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि मनमोहन का स्वाभिमान व आत्मसम्मान आड़े आता हो तो वह आर्थिक सहायता नहीं, ऋण के रूप में भी उसकी पढ़ाई का सारा खर्च उठाने को तैयार है। चाहे अब तक ट्यूशन आदि से मनमोहन अपने खर्चे काफ़ी हद तक निकाल लेता था, फिर भी बहन के बड़े होते बेटे के कारण घर-खर्च में हमेशा हाथ तंग ही रहता था। अतः उसने वृंदा के आग्रह को स्वीकार न कर पाने के लिये क्षमा माँगते हुए कहा - ‘वृंदा, इसे मेरा हठ मत समझना, लेकिन अब मुझे नौकरी हर हालत में चाहिए। ‘सबोर्डिनेट सर्विस कमीशन’ ने क्लर्कों की भर्ती का विज्ञापन निकाला हुआ है। वापस जाकर मैं अप्लाई करूँगा। दुआ करना कि मेरा सेलेक्शन हो जाए।’
‘जिसमें तुम्हारा भला होता हो मनु, हर उस काम के लिए मेरी शुभकामनाएँ सदैव तुम्हारे साथ हैं, और रहेंगी।’
विमल ने मार्किट में काम समाप्त करके वृंदा के मोबाइल पर सूचित कर दिया था कि मैं आधे घंटे में पहुँच रहा हूँ। अत: जब वह होटल पहुँचा तो वृंदा और मनमोहन फ़्रेश होकर उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बिना कोई बात किए विमल सीधा बाथरूम में घुस गया। दस मिनट पश्चात् वह नहाकर निकला तो मनमोहन कुछ कहने लगा कि विमल ने उसे रोकते हुए कहा - ‘अब चलो। बातें बाद में करेंगे।’
सड़क पर आकर उन्होंने ऑटो लिया और ‘एल.एम.बी.’ पहुँच गए। खाने का ऑर्डर करने के उपरान्त मनमोहन ने विमल से पूछा - ‘दुकान के लिये कुछ मिला?’
‘हाँ, काफ़ी कुछ मिल गया।’
‘लेकिन, तू पैसे तो लाया नहीं था!’
‘भइया, बिज़नेस की तुझे समझ नहीं है। मेरा ख़रीदा सामान दुकानदार ट्रांसपोर्ट द्वारा भेज देगा। माल की बिल्टी बैंक के ज़रिए हमें मिल जाएगी। बैंक में पैसा जमा करवाने पर उस बिल्टी को जब ट्रांसपोर्टर को देंगे तो माल हमारी दुकान पर पहुँच जाएगा।’
वृंदा - ‘बहुत ख़ूब! बिना नक़दी के अनजान जगह से ख़रीदारी करने का बढ़िया तरीक़ा है। बाइ द वे, कितने की ख़रीदारी कर ली?’
‘लगभग बीस हज़ार की।’
‘वन्डरफुल! विमल, मनमोहन तो आगे नहीं पढ़ेगा। तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’
‘वृंदा, पिता जी को अकेले दुकान पर दिक़्क़त होती थी, इसलिए मैं तो ऑलरेडी दुकान पर बैठने लग गया हूँ।...’ उसने मनमोहन के कंधे पर थपकी देते हुए कहा - ‘यह तो इसने कहा कि जयपुर चलना है तो इसे कम्पनी देने के लिये मैंने ‘हाँ’ कर दी। लेकिन वृंदा, तुमसे इस मुलाक़ात को मैं कभी भुला नहीं पाऊँगा।’
खाना खाने के बाद वृंदा अपने हॉस्टल की ओर चली गई और दोनों मित्र होटल आ गए।
विमल - ‘मोहन भाई, वृंदा बहुत अच्छी लड़की है, असली हीरा है। मैं दिल से चाहता हूँ कि तुम दोनों का साथ जीवन-भर का हो, लेकिन क्या उसके पेरेंट्स इस रिश्ते को स्वीकार करेंगे? मुझे तो नहीं लगता कि वे रज़ामंद हो जाएँगे। वृंदा का मन टटोला है कभी?’
‘विमल, इस विषय पर अभी सोचने का समय नहीं है। एक बार वृंदा एम.बी.बी.एस. कर ले, तभी इस विषय को उठाऊँगा। उससे पहले मैं उसका ध्यान पढ़ाई से नहीं भटकाना चाहता। वैसे उसके प्रेम में मुझे कोई संशय नहीं है।’
‘वह तो मैंने भी देख लिया है।’
इसी तरह की बातें करते-करते जब विमल ने लाइटें बन्द कीं तो मनमोहन ने कहा - ‘यार, ज़रा पर्दा सरका दे।’
पर्दा हटते ही निर्मल आकाश त्रयोदशी के चन्द्रमा की चाँदनी से प्रकाशमान दिखाई दिया और चाँदनी का एक टुकड़ा शीशे की दीवार लाँघकर उनके पैरों पर फैल गया। ए.सी. की ठंडक के साथ चाँदनी की शीतलता मन को बहुत भली लगी।
दूसरे दिन प्रात:क़ालीन दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर उन्होंने निश्चय किया कि नाश्ता बाज़ार में करेंगे और होटल का कमरा छोड़ देना चाहिए। अत: उन्होंने चेकआउट करके अपने बैग काउंटर पर जमा करवा दिए।
सारे दिन में उन्होंने सिटी पैलेस, जंतर-मंतर, म्यूज़ियम, बिरला मन्दिर तथा हवा महल देखे। पाँच बजे के लगभग जब वे हवा महल में ऊपर घूम रहे थे तो विमल के मोबाइल की रिंग बजने लगी।
वृंदा - ‘विमल, कहाँ पर हो तुम लोग?’
विमल - ‘हवा महल में हवा खा रहे हैं।’
‘तुम लोग पन्द्रह-बीस मिनट में होटल पहुँचो, मैं वहीं आ रहीं हूँ।’
‘लेकिन, हमने तो होटल-रूम सुबह ही ख़ाली कर दिया था।’
‘तो क्या बैग लिये घूम रहे हो?’
‘नहीं। बैग तो होटल के काउंटर पर जमा करवा दिए थे।’
‘तो होटल आ जाओ। जब तक ट्रेन का टाइम नहीं होता, वहीं बैठकर कुछ खाएँ-पीएँगे।’
ट्रेन छूटने में जब आधा घंटा रह गया तो उन्होंने ऑटो पकड़ा और स्टेशन पर आ गए। ट्रेन अभी आई नहीं थी। विमल वृंदा और मनमोहन को एकान्त के कुछ पल देने के इरादे से प्लेटफ़ॉर्म पर बनी बुक-स्टॉल पर पत्रिकाएँ उल्ट-पुलट करने लगा।
‘मनु यार, तुम्हारा दोस्त विमल बड़ा केयरिंग है, है ना?’ देखो, हम आख़िरी कुछ पलों का आनन्द ले सकें, इसलिए स्वयं पत्रिकाएँ देखने के बहाने हमसे दूर जा खड़ा हुआ है।’
‘वृंदा, विमल चाहे मुझसे साल-डेढ़ साल छोटा है, लेकिन हमेशा बड़े भाई की तरह मेरा ख़्याल रखता है।...... अब के बिछुड़े पता नहीं कब मिल पाएँगे?’
‘इस ट्रिप की यादों के सहारे मन बहला लिया करूँगी।.... पत्र बराबर लिखते रहना। हो सके तो कभी-कभार विमल के फ़ोन से बात भी कर लेना।’
‘अवश्य।’
ट्रेन आती देखकर विमल भी उनके पास लौट आया। एक-दूसरे को बॉय करके विमल और मनमोहन ट्रेन पर चढ़ गए। जब तक ट्रेन सरकने नहीं लगी, वृंदा खिड़की के पास प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी रही।
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