पिछले दो माह से घर आ गया हूं | लॉकडाउन के बाद दो महीने उसी शहर में रहकर ऑनलाइन काम करता रहा बाद में पता चला मैनेजमेंट ने उन दिनों 70% सैलरी काट ली थी , यह कहकर कि कंपनी का सारा बिजनेस मार्केट ठप्प है| पैसों की आवक बंद है तो सैलरी देना बहुत मुश्किल और अगर स्थितियां ऐसी ही रही तो अगले कुछ माह भी वेतन की स्थिति यही रहेगी या इससे भी कम दरअसल ज्यादातर नौकरियों की स्थिति इससे भी बुरी थी एक तरह से मैनेजमेंट हमें निकाल कर अपनी बदनामी नहीं चाहता था इसीलिए यह कंडीशन रखी गई थी शायद हम खुद ही छोड़कर चले जाएं क्योंकि बैंगलोर जो अब बेंगलुरु हो गया है कर्नाटक की राजधानी जिसकी जनसंख्या 84 लाख पार हो चुकी है नगरीय जनसंख्या 89 लाख से ऊपर है भारत का तीसरा सबसे बड़ा शहर और पांचवा महानगरीय क्षेत्र आईटी हब के नाम से मशहूर इस महानगर में आने वाले मेरे जैसे मध्यम वर्गीय परिवारों से इंजीनियर बनने वाले लाखों छात्र जाने कितने सपने लिए नौकरी के लिए चले आते हैं यहां 30% सैलरी तो फ्लेट के किराए को शेयर करने और रोज-रोज बस के किराए में ही खर्च हो जाती है अभी सारा मार्केट खस्ता हाल है ऐसे में लगी लगाईं नौकरी छोड़ी भी नहीं जा सकती थी क्योंकि भविष्य का क्या भरोसा कल को यह भी ना रही तो जेब खर्च के लिए भी मुश्किल हो सकती है
इसी महानगर में हम एक ही स्टेट के चार लड़के 2 बैडरूम, हाल किचन के फ्लैट में रहकर कार्यरत हैं एक साल से सब ठीक ही चल रहा था, व्यवस्थाएं सब हो ही गई थी सुबह मेड आती थी जो फ्लैट की सफाई के साथ-साथ सुबह के चाय नाश्ता बना दे दी थी घर सुव्यवस्थित रहता लंच हम सभी अपनी अपनी कंपनी के कैंटीन में लेते थे शाम को टिफिन आ जाता टिफिन सेंटर भी सही घर जैसा भोजन दे रहा था हर संडे मल्टी में लगी कमर्शियल वाशिंग मशीन मेंजो लॉन्ड्री रूम के नाम से जानी जाती थी हम में से कोई भी जाकर लॉन्ड्री कर लेते प्रेस के लिए सामने ही एक लड़का प्रेस कर देता था छुट्टी वाले दिन मूवी देख लेते या मॉल मेंचले जाते और मन पसंद कुछ खा पी लेते कभी आसपास कोई पिकनिक स्पॉट पर चले जाते हैं दिन आराम से कट रहे थे ना कोई तनाव ना कोई बहस ना हिसाब किताब को लेकर कोई झगड़ा बहुत आसान सी व्यवस्थाएं थी सबके साथ फ्रिज पर रखी डायरी हमारा सार्वजनिक बही -खाता जो कोई भी कुछ लाता उस डायरी में नोट कर लेता जैसे ग्रोसरी , सब्जियां, फल, ब्रेड,, अंडे, सफाई का सामान इत्यादि ना कोई बताता ना कोई पूछता माह के अंत में हिसाब - किताब हो जाता जिसे जो जरूरत हो वही ले आता प्लेट में फर्निचर, फ्रिज, माइक्रोवेव, और गैस का चूल्हा लगे हुए हैं एक टीवी हम सब ने मिल खरीद लिया था जब कभी भीसहकर्मियों के बीच रूममेट का जिक्र होता तो बड़े फक्र के साथ मैं सबको बताता कि मैं लकी हूं इस मामले
10 मई 2021 अचानक लॉकडाउन लगते ही जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई कुछ रेस्ट मिलेगा केवल सुबह शाम एक साथ रूम शेयर करने वालों हम चारों लडके अचानक प्लेट के अंदर बंद हो गए लेकिन शुरुआत बहुत अच्छी हुई सब जैसे भागते भागते थके हुए थे छप्पर फाड़ कर मिली वर्क फ्रॉम होम की सौगात से प्रसन्न थे चलो आराम से रहेंगे कुछ दिन सब ने मिल कर खूब गप्पे लगाए नेटफ्लेक्स पर फिल्में चलती रहती और हम चारों अपने अपने लैपटॉप पर कार्य करते रहते
खाने और बनाने का शौकीन अनिरुद्धइउं दिनों बड़े प्रेम से इंदौरी पोहा, उपमा, आलू पराठे, छोला-पूरी जैसा बढ़िया नाशता और लंच बनाता और तारीफ सुन सुनकर फूल कर कुप्पा हो जाता इतना अच्छा नाश्ता तो मेड भी नहीं खिलाती थी लॉकडाउन के दिनों में हाउस कीपर के ना आने से काम हम सभी मिलकर कर रहे थे सुबह की चाय मैं बना देता और सामने वाले मिल्क पार्लर से जाकर दूध, ब्रे,ड अंडे ,मैगी, भरपूर उठा लाता शाम का खाना अरविंद कभी खिचड़ी तो कभी दाल चावल या पुलाव बनाकर तैयार कर देता शुरुआती समय अच्छा कट रहा था एक परिवार हो गए थे सब ताश के पत्ते भी निकल आए कभी तीन पत्ती खेलते तो कभी रमी पहली सैलरी के पहले मिले एक ईमेल ने जैसे हम सबकी हवा निकाल दी अब हाथ थोड़े थोड़े टाइट होने लगे उक्तआहट की शुरुआत होने लगी थी बंद घरों मेंबोरियत थी और बंद बाजारों ने एक उदासी पैदा कर दी जो जोश शुरू शुरू में था वह धीरे-धीरे कम होने लगा शुरुआत अनिरुद्ध से हुई एक रोज वह पड़ा रहा बिस्तर में ना ब्रेकफास्ट बनाया ना ही लंच वह उठा और ब्रेड आमलेट खा कर फिर सो गया उस दिन सब ने ही ऐसा ही किया ब्रेड आमलेट खा कर सब पड़े रहे
लॉन्ड्री रूम बंद होने से कई दिनों से बिना धुले कपड़े ,गीले तौलिए यहाँ -वहां पड़े थे जो फ्लैट में एक अजीब सी गंध फैला रहे थे कपड़ों की सिलन भरी गंज वातावरण में नकारात्मकता फैलाने लगी
सब अपने अपने लैपटॉप पर काम करते रहते थे पर अब घर के काम में किसी का मन नहीं लगता घर के काम के लिए आने वाली बाई के ना आने से अब असुविधा हो रही थी रोज-रोज ब्रेकफास्ट में वहीं आमलेट ब्रेड खुद ही बनाना अब अच्छा नहीं लगता था शुरुआत में हुई सारी व्यवस्था है छिन्न-भिन्न होकर खल रही थी घर के वही काम रोज रोज करना , खाना बनाना चौका बर्तन कमरों की सफाई टॉयलेट की सफाई जैसे काम अब भारी लगने लगेपहली बार लगा समय स्नान ध्यान और प्रेस के कपडे पहन कर तैयार होने में भी कितनी सकारात्मकता है स्फूर्ति का बड़ा कारण चुस्त दुरुस्त रहना भी होता है समय की पाबंदी भी पर अब घर और मन दोनों जैसे बासी रोटी का डिब्बा हो गए थे जिसमें स्वाद और ताजे भोजन की गंध नहीं होती तो भूख भी कहाँ जागती
हल्की-हल्की शुरुवात होने लगी थी तनाव, फ्रस्ट्रेशन, चिड़चिड़ाहट और एक दूसरे पर अव्यवस्थाओं के दोषारोपण के रूप में इगो हर्ट होने के साथ अब मनमुटाव होने लगे और धीरे-धीरे बोलचाल बंद हो गई काम हो तो बोलो बस हाल में यदी एक टीवी देख रहा होता तो दूसरे को डिस्टर्ब होने लगता मोबाइल पर अगर कोई बात करता तो लगता दूसरे पर हमला कर रहा है महेश का गिटार बजाना अरविंद के लिए सिरदर्द का कारण होने लगा लगता है.अब स्थिति यह हो गई थी कि जैसे हम दुश्मनों के साथ रह रहे हैं .सारा याराना खत्म होने लगा एक रूम में बैठता तो दूसरा उठ कर चल देता अब बातें करने का भी मन नहीं होता चुप रहना ही बेहतर विकल्प लगता . परिणाम उदासी और अकेलापन घेरने लगा जिसने कोरोना के संक्रमण के भय को जन्म दे दिया सबसे पहले अनिरुद्ध को गले में हल्की सी खराश हुई अब घर अंदर भी सब ने मास्क लगा लिए असुरक्षा, हताशा, अकेलापन, असहाय स्थिति ने निराशा के बीज बो दिए जिसके अंकुरण अवसाद के रूप में उगने लगे .धीरे धीरे इस कोरोना की दूसरी लहर ने दहशत का माहौल पैदा कर दिया सायरन बजाते भागती एंबुलेंस, टीवी पर अस्पतालों की चीख पुकार, व्यवस्थाओं का चरमरा जाना, अब डराने लगा था . अकेलेपन का सबसे बड़ा सहारा सोशल मीडिया ही तो था पर अब उस पर भी क्या देखें ? किससे बात करें दहशत और लाचारी व्हाट्सएप और फेसबुक भी सबसे ज्यादा थी वहां हार चढ़े फोटो के साथ ॐ शान्ति लिखते लिखते भी थक गए थे वे जैसे श्रद्धांजलि के मंच हो गए थे.
घर पर बात करते हुए भी मन डरता था घर से फोन आता तब हाथ और मन दोनों ही,कांपने लगते मन बैठ जाता क्या पता कैसा फोन है? क्या पता कौन कोरोना के संक्रमण मे आ गया हो . कोई सूचना ना मिलाने पर हाथ स्वत जुड़ जाते .भगवान् के सामने .चलो सब ठीक है फिर एक दिन सबसे पहले संक्रमण की खबर अरविंद को मिली उसकी दीदी संक्रमित हुई थी . उनके आइसोलेशन से लेकर आईसीयू तक अरविंद बेजान होने लगा था उसके प्राण अपनी दीदी में बसते हैं उसके पिता के जाने के बाद एक दीदी ही तो है जिसने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया .दीदी के लिए वह यहीं से सब मैनेज करता रहा .उअनके अस्पताल जाने और आईसीयू के खर्चे ने अरविंद के सारे डिपाजिट खाली कर दिए . आर्थिक तंगी में अरविंद हम लोगों से बड़ी उम्मीद रख रहा था पर आर्थिक तंगी से गुजरते हुए हम मदद करने की स्थिति में नहीं थे . यह वह भी समझ रहा था किइफरात मैं हो तो कोई मदद भी करें.नंगा क्या निचोडेगा .
फिर भी जो मदद बन सकती थी कर रहे थे पर वह नाकाफी थी ऊंट के मुंह में जीरा जैसी . सुना तो था कि बूंद बूंद सेसागरबनता है पर इन दिनों तो अस्पतालों में थैले भर भर कर डालने पर भी काम नहीं हो रहा था .परिवार -रिश्तेदार सब आर्थिक मदद दे तब भी कम ही पड़ रहा था रूपया .अस्पतालों के मुंह महिषासुर के हो गए थे भरते ही नहीं . अरविंद की दीदी 22 दिन में घर पहुंची तब तक अरविंद के पास 22 रुपए भी नहीं बचे थे . कैसा विकट समय था कभी कल्पना भी नहीं थी किसी को कि आपदा का एसा महा संकट दुनिया भर में एसा आएगा ? ना रुपये की वेल्युव थी ना आदमी की . दीदी और माँ अकेली है ऑफ्टर कोविद दीदी को देख भाल चाहिए पर अरविंद अपने घर दीदी के पास जाय भी तो कैसे? कोई साधन नहीं था और टैक्सी के लिए पैसे भी नहीं थे .अवसाद में सबसे पहले अरविंद को जकड़ा उसने ठीक से खाना पीना बोलना सोना सब छोड़ दिया एक किताब पकड़े पड़ा रहता था छ्त को ताकता हुआ.शून्य में कुछ खोजता सा . ये दिन और समय सबसे ज्यादा उदासी भरे थे .चारों तरफ अवसाद का समय रहा जैसे इच्छाएं सब मर गई थी लगा था अब जीवन यहीं समाप्त हो सकता है कौन जाने हममें से कौन घर लौट पाएगा क्या पता घर लौटने पर घर में कोई मिले ना मिले.
ऑफिस से काम का प्रेशर लगातार बढ़ता जा रहा था.मैनेजमेंट को लगने लगा जितनी सैलरी दे रहे हैं उसका डबल वसूल कर ले . यह दबाव अब शरीर को तोड़ने लगा बगैर टेबल कुर्सी के लगातार काम थका देता . पलंग और गद्दे पर लैपटॉप पर लगातार काम करने से सबकी पीठ में दर्द की शिकायत हो गई कुछ दिन पेन किलर खा खा कर काम करते रहे फिर एक मित्र ने एक डॉक्टर का नंबर दिया था नंबर कई बार मिलाने पर नहीं मिला इंटरनेट से एक और डॉक्टर का नंबर मिला लेकिन वह टेस्ट रिपोर्ट के बिना देखने को राजी नहीं था टेस्ट मतलब गरीबी मैं गीला आटा यानी 3 हजार रुपए का बेवजह खर्च घर से पैसे मंगाना भी जाने क्यों अच्छा नहीं लग रहा था . उनकी जरूरतों के लिए उनके पास कुछ तो रहे . रिचार्ज के अभाव में टीवी ने चलना बंद कर दिया था .अब फोन ही सहारा था लेकिन फोन आने पर फोन उठाने का मन नहीं होता मेडिकल इमरजेंसी की इस भयावहता ने आहत मनों को बेबस और लाचार कर दिया .संक्रमण की भयावहता से अब पूर्ण लॉक डाउन की स्थिति में धीरे-धीरे ग्रोसरी भी आसपास में मिलना बंद हो गई ब्रेड और अंडे लंच और डिनर ब्रेकफास्ट का सहारा बचे थे .खाने -पीने का सामान लगभग समाप्त हो रहा था .उकताहट सी होने लगी थी .ब्रेड खाते-खाते और इस दौरान अरविंद कि तो रिपोर्ट पॉजिटिव आई आइसोलेशन में एक कमरा चला गया हाल और एक कमरा हम तीनों के पास रहा .अब साथ रहना मजबूरी थी पर सच बताऊं कम से कम अनकही हिम्मत भी थी .अब फिर हम एक हो गए थे क्योकि अरविंद को बचाना हमारी प्राथमिकता में आ गया था . समस्याएं थी कि कम नहीं हो रही थी पैसा था कि बच नहीं रहा था इतने दिनों का साथ यूं ही छोड़ा नहीं जाता . अरविंद की दवाइयां लेने गया जो लगभग 14 हजार रुपयों की थी और जेब में केवल 7000 थे . मेडिकल स्टोर वाला पूर्व परिचित था मैं अक्सर वहीं से दवाइयां लेता रहा था उसने उदारता दिखाते हुए दवाइयां उधार दे दी लेकिन अच्छा भोजन और अन्य खर्चे दिख रहे थे अगर अरविंद को पर्याप्त प्रोटीन पोषक तत्व ,अच्छा भोजन भी जरुरी था .पोष्टिक तत्व और मिनरल्स भोजन के साथ ना दिए तो रिकवर होना मुश्किल होगा .अब दूध ब्रेड वाले से ही पनीर भी खरीदने लगा .पैसों की कमी रोज-रोज उधार लेना मन को कचोटता .मैंने अपने सबसे प्रिय घड़ी दवाई वाले भैया के पास 10,000 रुपये लेकर रख दी कुछ खाने पीने का सामान आराम से आ जाएगा यह सोच कर अरविंद 10 दिनों में लगभग ठीक हो गया था पर जैसे उसके जीवन की उर्जा को कोरोना खा चुका था . वह नर्वस था बेहद नर्वस उसने अपने दीदी को फोन करना भी बंद कर दिया था .मुझे फोन करती दीदी रोने लगती कहती बेटा उसका ध्यान रखना प्लीज मुझे याद दिलाती अरविंद बहुत भावुक है जानते हो ना निराशा में कोई गलत कदम ना उठा ले प्लीज उसके साथ रहना .
एक बार फिर खाने का सामान खत्म होने लगा था एक दिन दरवाजे पर पार्सल मिला अमेजॉन से आया था महेश ने अपने परिवार में बात की थी बॉक्स खोला खाने पीने का सामान था कई तरह के नमकीन, बिस्किट्स, अचार, बेकरी और दालें, मैगी के कुछ पैकेट रेडीमेड के पैकेट, खाकरे जैसा बहुत कुछ उसी बॉक्स में कुछ जरूरत की दवाइयां भी रखी हुई थी यह पार्सल!जीवन में फिर उम्मीद की तरह आया था अनिरुद्ध ने फिर खाना बनाना शुरू कर दिया था अब हम दिन में दाल चावल बनाने लगे एक समय अचार नमकीन के साथ ब्रेड से काम चलाते टूटता परिवार जैसे भी जुड़ने लगा था अब हमसब एक साथ खाना खाने लगे थे महेश ने टीवी रिचार्ज करवा लिया था . अरविंद ने सभी को धन्यवाद दिया तो सब खूब रोए सब लगा जैसे बिछड़ा परिवार फिर मिल गया हो .अचानक अरविंद ने पूछा था " तेरी घड़ी कहां गई?"
"रखी होगी यहीं कहीं मैंने बात को टालना चाहा"
"पर तू तो कभी घड़ी निकालता नहीं था हाथ से"
"घड़ी का क्या करना है कौन रोज़ ऑफिस जाना है ."
"मतलब"
"छोड़ यार! बुरी घड़ी निकल गई ."
"सच बता मुझे ?मतलब तूने घड़ी बेच दी ना . "
"हां !मुझे बदलनी भी थी इसलिए"
"साफ-साफ क्यों नहीं बोलता कि मेरी दवाइयों के लिए "
"नहीं यार बेची नहीं ,दवाई वाले के पास रखी है पैसे देकर उठा लूंगा."
"क्यों क्यों किया तूने ऐसा"
"तू चल आ जाता तो? बूरी घड़ी आगयी थी ना, तब अच्छी घड़ी काम आ गयी ."
'ओह ,और मैं तुम्हारे लिए क्या क्या सोचता रहा ?जो तुम लोगो ने किया वो तो मेरा सगा भाई भी होता तो क्या पता करता की नहीं .वह फूट फूट कर रोने लगा ."
"मैंने उसका हाथ पकड़ा पगले घड़ी दुबारा आ सकती है .लेकिन हम नहीं---तू वापस आगया ,दीदी घर आ गई इससे ज्यादा अच्छी घड़ी और क्या हो सकती "
"अरविंद और मैं रो रहे थे."
महेशने बात को पलटा " दिन बदल रहे हैं दोस्तों अच्छे दिन भी आएंगे देखो आंकड़े कम होने लगे हैं चला जाएगा यह संघर्ष का समय भी, थोड़ी सी हिम्मत की और जरूरत है हम सब थोड़े घबरा गए थे तभी तो संक्रमण हुआ पर अब हम सब एक साथ हैं अब कोई बीमार नहीं होगा"
कुछ दिनों के बाद ने महेश ने बताया कि "चलो अच्छी खबर आई है तैयारी करो चाचा भोपाल से टैक्सी भेज रहे हैं हम सब भोपाल तक साथ चल सकते हैं."
महेश का कहना था 'भोपाल तक सब लोग चलो वहां से सबका जाना आसान हो जाएगा भोपाल से जबलपुर इंदौर रतलाम कोई ना कोई साधन मिल ही जाएगा .'
हम सामान पैक करने लगे सामान क्या पैक करना था बैग में मैं भरना था बिना धूले कपड़े, कुछ किताबें और अन्य आवश्यक सामान था ही कितना ? एक राहत की हुई शायद इस संघर्ष से मुक्ति मिले . लगा अपने देश में घर को मंदिर कहा गया है .वह कितना भी गरीब क्यों ना हो अभी भी इतनी सामर्थ रखते हैं कि अपने बच्चों का ,अपने सदस्यों का पेट भर सके.दादी माँ कहती थी " घर की रसोई में मां अन्नपूर्णा का वास होता है भारतीय परिवारों में स्त्री अन्नपूर्णा होती है ,वह भूखा उठाती है पर सुलाती नहीं है ."
घर जाने का साधन मिल रहा है ,यह बहुत बड़ी सहायता थी महेश के चाचा की .कम से कम भूख अकेलापन और परिवार की कमी का संकट तो हटेगा .घर जाते हुए हम तीनों रूम भी छोड़ना चाहते थे बेवजह 2 या 3 महीने का किराया भरना पड़ेगा और हो सकता है आगे लंबे समय तक वापस ना आ पाए तो फिजूल इतना सारा रुपया चला जाएगा जब आना होगा तो ऑनलाइन किसी ब्रोकर से बात करके फिर कोई व्यवस्था कर लेंगे लेकिन अरविंद जिद पर अड़ा था कि वह घर नहीं जाएगा जब तक कि वह यहां रहकर सब के पैसे नहीं चुका देता अरविंद का कहना था कि जब तक दवाई वाले से घड़ी ना ले आएगा तब तक वह बेंगलुरु नहीं छोड़ेगा .
"छोड़ यार, मैंने समझाने की कोशिश की घड़ी नई आ जाएगी."
"1 तारीख को सैलरी मिलेगी तो वह पैसे चुका कर घड़ी ले कर लौटेगा "अरविंद की जिद के आगे हमारा कोई तर्क नहीं चला हमने तय किया कि तब तक का मकान का भाड़ा हम सब शेयर करेंगे .
मन उदास था, छुट्टी मिलाने पर खुशी-खुशी घर जाते अलग बात होती है ,लेकिन खुशिया इन दिनों दूर चली गई थी सबसे .महेश के चाचा की गाड़ी आकर खड़ी हो गई थी हम सब अपना सामान गाड़ी में रखने लगे थे ,मैं देख रहा था अरविंद के चेहरे पर एक अजीब बेचैनी जैसे वहां किसी मानसिक द्वंद्व में उलझा है .मुझे लगा उसके अंदर कोई युद्ध खुद से ही खुद के खिलाफ चल रहा है .शायद वह अपने आप से लड़ रहा था . कुछ है जो उसे परेशान कर रहा है वह अवसाद की स्थिति में तो था ही ऊपर से हम सब के जाने से एकदम अकेला हो जाएगा मुझे पता है की उसे अकेले में डर लगता है पर क्या करता समझाने से वह समझ कहाँ रहा है ?जबरजस्ती नहीं की जा सकती थी .
निकलने से एक घंटा पहले भी उसे फिर समझाया था "चले चल यार क्यों जिद करता है .सब साथ ही वापस आ जाएंगे ना थोड़े दिन की तो बात है .मन बदल जाएगा और घर परिवार से भी मिल लेंगे तूझे तो दीदी से भी मिलना है ना ! दोनों भाई बहनों ने इस संकट को झेला है . नूय जीवन मिला है दोनों को .उन्हें खुशी होगी तुझे देख कर .चल जल्दी तेरा सामान पैक करवाते हैं."
वो नहीं माना, "जल्दी आ जाऊंगा बस एक तारीख को सैलरी मिल जाए दवाई वाले के पैसे देकर तेरी घड़ी ले लूं बस ."घड़ी को उसने है जैसे अपने रुकने का बहाना बना लिया था.
निकलने से पहले हम सब से गले मिले वॉशरूम से निकलते हुए मैंने अरविंद के किताबों के कलेक्शन में से एक किताब उठा ली रास्ते में पढ़ने के लिए.
हम उसे छोड़ कर निकल गए .मन सभी का उसमें ही छुट गया था जैसे . थोड़ी देर तक रास्ते में अरविंद की ही बातें होती रही.
महेश का कहना था "पहले तो वो ऐसा जिद्दी नहीं था .बीमारी के बाद से देख रहा हूं अरविंद जिद्दी हो गया है."
"हां, मुझे भी वह बदला बदला सा लगने लगा है . लगता है कहीं गहरे डिप्रेशन का शिकार ना हो जाए?"
भाग दौड़ करते थक गए थे हम सभी .थोड़ी देर बाद चुप हो गए सभी . चुपचाप बंद गाड़ी के शीशे से बाहर देख रहे थे शहर जैसे सो गया था .बल्कि कहूँ निर्जीव सा हो रहा था . बेंगलुरु जैसा शहर कैसा नीरस और बेजान सा लग रहा है ना .शहर की ना रौनक बची थी ना चमक .सब फीका फीका सा दिख रहा था . मनुष्य अपनी गति भूल गया है जैसे ,केवल जिंदा रहने की जद्दोजहद के आगे और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था कैसा प्रकोप है यह, जिसने एक सुंदर शहर को उदास बना शहर को ही क्यों पूरी दुनिया ही इस जद्दोजहद में गहरे में रसातल में चली गई है. जीवन के लिए ऑक्सीजन दवाइयां डॉक्टर वेंटिलेटर इसके अलावा कोई और शब्द बचे ही नहीं थे हमारे शब्दकोष में .
मन यह सब सोचकर फिर बेचैन होने लगा तो मैंने किताब उठा ली जो मैं अरविंद के कलेक्शन से उठा लाया था .सोच ही रहा था कि बीमारी ने आदमी को उसकी औकात बता दी थी . कड़वे सच को सबने स्वीकार कर लिया था .इतना ही रुपया पैसा हो या पावर हो .आप प्रिंस चाल्स हों या अमिताभ बच्चन ईश्वर की मर्जी के बिना जीवन संभव नहीं है धरती पर .इन खयालो के चलते हमारी गाड़ी बेंगलुरु के कई क्षेत्रों को पार कर चुकी थी .जाने क्यों भय की एक लहर मन में उठी ,मैंने पुस्तक पलटी .अन्दर दबा एक छोटा सा कागज का पुर्जा मिला कागज पर अरविंद की लिखावट थी लिखा था-------
हर रोज हम उदास होते हैं
और शाम गुजर जाती है
किसी रोज शाम उदास होगी
और हम गुजर जाएंगे
फिर कुछ प्रतीकात्मक चिन्ह बने थे मेरा सिक्स सेंस जाग उठा, ओह तो अरविंद की मनस्थिति मे बहुत कुछ चल रहा है मैं चिल्लाया "वापस चलो भगवान की लिए वापस चलो---महेश फ्लेट पर वापस चलो ----------"
"पागल हो गया है क्या महेश ने कहा जानता है कई किलोमीटर दूर आ गए हम"
"हां जानता हूं,अभी सिर्फ एक एक घंटा हुआ होगा --"
"हाँ !एक घंटा वापस लगेगा ?"
"तो फिर क्या कर लेगा वापस जाकर तू ?क्या छूट गया है?"
"वापस चलो वापस चलो प्लीज------"
"वापस जाना मतलब 1000 -2000 का पेट्रोल और 2 घंटे समझ रहा है ना दोनों की ही बर्बादी"
"बाकी सब बाद में बातें करेंगे मुझसे ले लेना हजार दो हजार इस वक्त वापस जाना बहुत जरूरी है वरना हम बहुत कुछ खो देंगे."
ड्राइवर हमें लड़ते हुए देख रहा था शायद उसने मेरे हाथ की पर्ची देख ली थी उस ने गाड़ी मोड़ दी जब फ्लैट पर पहुंचे प्लेट अंदर से बंद था मेरी जेब में एकस्ट्रा चाबी पड़ी थी जो रोज हम लेकर ऑफिस जाते थे. ताला खुला अंदर पहुंचे अरविंद हमें ओचक निगाहों से देख रहा था वो पड़ा हुआ था पलंग पर. मैंने उससे लिपट ते हुए पूछा "तू ठीक है ना तू ने कुछ किया तो नहीं"
उसकी आंखों से खारा पानी झरने लगा
उसकी बंद मुट्ठी को महेश ने खोला ---"क्या हो गया है तुझे ?यह क्या कर रहा था तू"
"अलविदा दोस्तो."
"महेश उठाओ इसको गाड़ी में लो"ड्राइवर ऊपर फ्लेट आ गया था .हम जल्दी ही उसे लेकर सीटी होस्पीटल पहुंचे 2 घंटे की मशक्कत के बाद उसके पेट से नींद की गोलियां बाहर निकाल दी गई थी .अब खतरे से बाहर था देर रात उसे लेकर रूम पर आए. वह सो रहा था .महेश को टी टेबल पर 2 पंक्तियों का एक नोट लिखा मिला .लिखा था ------
मुझसे कटेगी नहीं ये उदास रातें
सूरज से कहूंगा मुझे आज साथ लेकर डूबे.
महेश ने मुझसे किताब में मिली स्लिप ले ली थी ."एसा क्या लिखा था उसमें तूने इतनी जल्दी समझ लिया?"
"देख क्या बना है इसमें रेल की पटरी, नींद की गोलियों की शीशी, एक फंदा,पंखा और एक चेहरा."