नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 48 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 48

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कॉलेज में शिक्षा के प्रति गंभीर छात्र बहुत कम थे | कॉलेज नाम भर के लिए जाना एक फ़ैशन सा होने लगा था | गाँवों से आकर कॉलेज में प्रवेश लेने वाले लड़के दिल्लगी करने, मस्ती करने के लिए आते थे | इनमें अधिकतर ऐसे उद्दंड व बिगड़े हुए लड़के होते थे जिनके संरक्षकों के पास गाँव में बहुत ज़मीन-जायदाद थी पर शिक्षा के नाम पर मस्तिष्क की कोरी स्लेट ! माता-पिता चाहते थे कि उनका जीवन तो जैसे-तैसे व्यतीत हो ही गया है अब उनके सुपुत्र शहर में जाकर सही मायनों में शिक्षा प्राप्त करें जिससे वे अपनी अधिकांश समस्याओं के समाधान परिवार के सदस्यों के बीच बैठकर ही अपनी चाहरदीवारी में ही प्राप्त कर सकें | लेकिन ऐसा होता नहीं था ये लड़के शहर में आकर ऊटपटाँग हरकतें करते और अपना दबदबा जमाने का प्रयास करते | 

इस को-हैड कॉलेज के खुलने से पहले शिक्षा के नाम पर गाँवों से आने वाले लड़कों की संख्या काफी कम थी | वे स्कूल तथा कॉलेज की लड़कियों के आगे-पीछे चक्कर काटते, कॉलेज जाती लड़कियों के पीछे –पीछे उन्हें छेड़ते, अश्लील हरकतें करते हुए कॉलेज पहुँचते थे | वे लड़कियों के दुपट्टे खींचकर ले जाते, कभी-कभी तो दुपट्टा खींचने से लड़की के गले में निशान भी पड़ जाते थे | अब कॉलेज में और भी कई प्रकार की बदमाशियाँ होने लगीं थीं | परंतु उनके प्रवेश पर कोई रोक नहीं लगा सकता था | कॉलेज सबके लिए था चाहे कोई एक ही कक्षा में कितनी ही बार फ़ेल क्यों न हो जाए | इन सब बातों से इंदु बहुत दुखी होती | उसने जिस वातावरण में शिक्षा ग्रहण की थी वह माँ सरस्वती का मंदिर था | इस अशिक्षा तथा अभद्र्ता को देखते हुए वह अपनी सास के साथ मिलकर लोगों की सोच में, शिक्षा के महत्व को समझाते हुए मानवता के सुंदर चित्र तैयार करना चाहती थी | 

कॉलेज की आंतरिक परीक्षाओं में कुछ लड़कों ने शून्य (0) प्राप्त किए | ये वो लड़के थे जिन्होंने लड़कियों के पीछे व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद करने के लिए दाखिला लिया था | इस कॉलेज के खुलने के बाद विशेषकर पिछड़े हुए गाँवों से आकर प्रवेश लेने वाले लड़कों को अंग्रेज़ी सीखने का ऐसा चस्का लगा कि अंग्रेज़ी विभाग मूरखों की बपौती बन गया | विलास, पत्नी इंदु, माँ व चंपा माँ से मिलकर कितनी ही ऐसी बातें साझा करता कि सब लोग पेट पकड़कर हँसते !दूसरी ओर इन्हें दुख भी होता कि अभी इन युवाओं को समय की कीमत का कोई ख़्याल नहीं है | जब वे अपने कई वर्ष बर्बाद करके वास्तविक दुनिया में जाएँगे तब शायद इन्हें अपने कीमती समय को बर्बाद करने का दुख होगा | 

बी.ए के प्रथम वर्ष का छात्र चंदन बहुधा कक्षा में खड़े होकर कहता –

“सर! यो आपकी गिटर-पिटर म्हारे किसी के भी पल्ले न पड़े –सर, आप हिन्दी में क्यूँ न पढ़ा सको --?”

डॉ. विलास कुमार भारद्वाज ने कितनी बार क्क्षा में उन छात्रों को समझाया था कि वे हिन्दी में समझा देंगे पर क्योंकि उन्होंने अंग्रेज़ी विषय का चयन किया है अत: उन्हें अंग्रेज़ी समझने का प्रयास करना ही होगा | 

लेकिन वही ढाक के तीन पात !दो दिन के बाद वही कुत्ते की दुम का सा सवाल !

“मालूम नहीं कैसे इन लड़कों ने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की होगी ?”वे अक्सर सोचते | कितना अच्छा होता यदि वे किसी और विषय में प्रवेश लेते | पर उन पर तो अंग्रेज़ी बोलने का भूत सवार था जबकि कक्षा में प्रवेश मिल जाने से बिना श्रम किए अंग्रेज़ी पढ़ने, बोलने, लिखने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी | पर, उनकी उल्टी बुद्धि में यह बात कौन उतारता ?

दूर के गाँवों से आने वाले लड़कों के लिए एक छोटा छात्रावास भी बनवा दिया गया था जहाँ ये उद्दंड छात्र अपनी शैतान योजनाओं के कार्यक्रम तैयार करने में लगे रहते | न जाने कहाँ से इन्होंने ‘रैगिंग’ का अर्थ खोज लिया था और कमज़ोर छात्रों को अपनी उदण्डता के डंडे से पीटने लगे थे | किसीको अपने घर से सबके लिए खाना बनवाने की आज्ञा देते तो किसीको कॉलेज जाती लड़की का दुपट्टा खींचकर लाने की आज्ञा दी जाती | उनकी आज्ञा पालन न करने अथवा मना करने पर सब उस मना करने वाले छात्र की कुटाई कर डालते | 

एक बार तो सर्दी के दिनों में किसी शरीफ़ छात्र को पकड़कर कमरे में रखे हुए जलते हुए हुए हीटर पर लघुशंका (यूरीन) करने की आज्ञा दी गई | मना करने पर उसकी खूब पिटाई की गई और जब अंत में उसने थक-पिटकर उनकी आज्ञा का पालन किया, उसी समय करंट लगने से उसकी मृत्यु हो गई | संवेदना शब्द का अर्थ तक न समझने वाले उन राक्षसों ने लड़के की मृत देह को घसीटकर छात्रावास के पास तीव्र जल की नहर में प्रवाहित कर दिया और पुलिस भी कुछ न कर सकी | सब वैसे ही चलता रहा | 

पूरे वर्ष भर लड़कों ने घुमक्कड़ी तथा बदमशियों में अपना पूरा समय बर्बाद किया था अब उनके पास नकल करने के अतिरिक्त और कोई दूसरा रास्ता नहीं था | मैनेजमेंट इस बात से बहुत अच्छी प्रकार से वाकिफ़ थी कि परीक्षा में हर वर्ष नए-नए तरीके अपनाकर नकल की जाती है | वास्तव में मैनेजमेंट थक चुकी थी और गुंडों के भय के कारण नकल रोकने में असमर्थ रही थी | मज़े की बात ये कि पुलिस भी कुछ कर पाने में असमर्थ रही थी अथवा पुलिस ही गुंडों से मिली हुई थी, ऐसा सोचा जा सकता था | 

डॉ . विलास कुमार इस बात से उद्विग्न रहते थे | माँ सरस्वती का अपमान उन्हें मंज़ूर नहीं था | पढ़ो तो ठीक से, न पढ़ना हो तो कॉलेज में प्रवेश लेकर समय व धन व्यर्थ करने की क्या आवश्यकता ?उन्होंने भयभीत हुए बिना सरेआम कह भी दिया था कि कुछ कामों को रोके बिना न तो छात्रों का भला हो सकता है, न ही समाज का ! मैनेजमेंट के द्वारा निर्णय लिया गया कि इस बार परीक्षाओं की व्यवस्थता डॉ. भारद्वाज के नेतृत्व में हो | उनके बुद्धिशाली मस्तिष्क तथा कुशल हाथों में परीक्षा की व्यवस्ठ्ता सौंप दी जाए | 

डॉ. भारद्वाज ने घर पर चर्चा करके मैनेजमेंट को हामी भर दी थी | वास्तव में विलास की माँ ने इस शहर को बहुत नज़दीक से देखा था | वे जानती थीं कि इस काम में तकलीफ़ बहुत है परंतु किसीको तो आगे आना ही होगा |