Nainam chhindati shstrani - 46 books and stories free download online pdf in Hindi

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 46

46

समिधा की सास इंदु भारतीय तथा अँग्रेज़ी रक्त से सिंचित एक बेहद खूबसूरत खिला हुआ गुलाबी रंग का फूल थीं | वे मन की गहराइयों से भारतीय संस्कारों में रची-बसी संस्कारी तथा विदुषी महिला थीं | जिन दिनों स्त्रियों का घर से निकलना चर्चा का विषय बन जाता था उन दिनों वे कत्थक नृत्य और अपनी माँ के साथ घर पर पंडित जी से शास्त्रीय संगीत सीख रही थीं | विलास का युवा मन इंदु की कलाप्रियता व माता-पिता के संस्कारों से इतना प्रभावित हुआ कि इलाहाबाद आकर भी उसके भीतर बनारस की ओर से आने वाली पवन हिलोरें लेती रही | परंतु किससे अपने मन की बात कहता ? इलाहाबाद तो वह अकेला पढ़ने आया था | माँ, नानी तथा उसकी आया (पहाड़न माँ जी)जो उसका परिवार थे, वे उससे मीलों दूर रहते थे | यह वो ज़माना था जब ‘प्रेम-विवाह’ की कल्पना मात्र से लोगों के चेहरों पर शिकन पड़ जाती थीं अत: संकोच स्वाभाविक था | 

प्रत्येक बात के पीछे कुछ कारण होता है | वास्तव में पूरी बात समझे बिना ही हम निर्णय पर उतर आते हैं, वास्तविकता को जानने, समझने का कष्ट ही नहीं उठाते | उस ज़माने में भी स्त्रियों पर बंधन के कुछ कारण थे, समाज का एक ऐसा वर्ग जो साहूकारों व अंग्रेज़ों से दबा रहता था, वह अपनी बेटियों की इज़्ज़त व सम्मान के लिए भयभीत बना रहता था | विलास के पिता की मृत्यु बहुत छोटी आयु में ही हो गई थी | माँ शिक्षित थीं, उन्होंने अपने पिता के घर जाने के स्थान पर अपने ही शहर के एक स्कूल में संस्कृत की प्राध्यापिका का कार्य-भार संभाल लिया था | विलास की नानी अपने नाती को देखने अक्सर दिल्ली से आ जातीं और कई-कई दिनों तक अपनी बेटी के पास रहतीं | 

माँ व बेटी का जुड़ाव इतना पुख़्ता होता है कि चोट बेटी को लगती है तो पीड़ा माँ को होती है | अपने दामाद की मृत्यु से पीड़ित माँ बेटी के पास अधिक से अधिक रहने के अवसर तलाशती रहतीं | नानी दिल्ली के जिस तबके से आती थीं, वह स्मृद्ध वर्ग था | अंग्रेज़ों के ज़माने में विलास के नाना को ‘रायबहादुर ‘की उपाधि से विभूषित किया गया था | बड़े ठाठ –बाट !बड़ी-बड़ी बातें ! ऊँचा रहन-सहन ! इन सबके चलते वे कुछ ऐसी आदतों से जुड़ बैठे थे जो नानी के लिए असहनीय थीं | मसलन ---पति की प्रतिदिन की शराब की लत या फिर अंग्रेज़ दोस्तों के साथ मिलकर नाच देखने जाना | 

जब तक अँग्रेज़ी फिल्मों को देखने जाने तक बात सीमित रही, तब तक तो किसी न किसी प्रकार उन्होंने पति का साथ निभाया | जब ऊबने लगतीं तब दिल्ली के पास के छोटे से शहर में कुछ दिनों के लिए बिटिया के पास आ जातीं, उन्हें वहाँ शांति मिलती | उनके पति कुछ अधिक ही मौर्डन हो गए थे | वे चाहते कि उनकी पत्नी भी उनके अंग्रेज़ मित्रों के साथ उनकी पत्नियों जैसी ही आधुनिक रंग में रंग जाए, जो संभव नहीं था | अँग्रेज़ी फिल्मों की चूमचाटी देखकर उनका दिल धुकर-धुकर करने लगता | फ़िल्म देखते हुए जब उनके पति उनका हाथ पकड़ते तब वे गहन अँधेरे में भी लाल भभूका हो उठतीं और थर थर काँपने लगतीं जिसे उनके पति की आँखें अँधेरे में भी महसूस कर लेतीं | 

इस पर्दानशीन पत्नी को महसूस करते हुए वे बहुत दुखी हो उठते थे, उन्हें अपने अंग्रेज़ मित्रों से ईर्ष्या होने लगती | जब उनकी पत्नी उनके मित्रों के साथ फ़िल्म देखने में आनाकानी करतीं तब वे चिढ़ उठते और क्रोध में पगला जाते| एक बार फ़िल्म देखने में आनाकानी करने पर वे अपनी खुकरी उठा लाए थे और जीने में बैठकर उसे घिसकर तेज़ करने का नाटक करने लगे थे | वे बड़बड़ करते जा रहे थे कि उन्हें जीना ही नहीं है | 

“जिसकी पत्नी पति के मित्रों के सामने इतनी भी इज़्ज़त नहीं कर सकती कि पति के साथ फ़िल्म देखने चल सके, ऐसे में जीना भी गाली लगता है, ऐसे जीवन का भला क्या फ़ायदा ?”आखिर पत्नी को ही झुकना पड़ा, माफ़ी माँगी और रोते हुए पति के मित्रों के साथ फ़िल्म देखने गईं | 

बेटी के साथ दुर्घटना हो जाने पर उनका मन पूरी तरह से इस भोग-विलास से उठ गया और उन्होंने सोचा कि अब जो होगा देखा जाएगा, उन्हें अब पति से अधिक बेटी व नाती विलास पर अधिक ध्यान देना होगा | 

ऐसा नहीं नहीं था कि विलास के नाना रतनलाल को अपनी बेटी के लिए सहानुभूति अथवा प्रेम नहीं था या उन्हें उन्हें अपने दामाद की असमय मृत्यु पर दुख नहीं था परंतु वे अपने मित्रों तथा अन्य कार्यकलापों में इतने भीतर तक धँस चुके थे कि अब उनके लिए उस दलदल से निकलना इतना सहज भी नहीं था | दौलत और शौहरत से जिसके पाँव ज़मीन पर ही टिककर रहते हैं, वे लोग तो बिरले ही होते हैं | 

विलास की नानी के लिए स्थाई रूप से बेटी के घर रहना संभव नहीं था अत: वे बार-बार बेटी के पास आती-जाती रहतीं| दामाद के न रहने से बच्चे विलास का सारा उत्तरदायित्व उसकी माँ पर आ गया था | विलास की माँ भी एक सरल, सहज जीने वाली महिला थीं, पिता के बहुत बार बुलाने पर भी उनके स्वाभिमान ने पिता के पास जाकर रहने की इजाज़त नहीं दी | विलास का नाम उसके नाना ने रखा था परंतु माँ की पुख़्ता सार-संभाल में अपने नाम के प्रतिकूल उसने अपना व्यक्तित्व बनाया | इस बात से उसके नाना काफ़ी नाखुश थे | 

नानी को सब माता जी कहते थे | विलास बच्चा था, उसकी देखभाल के लिए माता जी अपने घर से एक महिला को ले आईं थीं जो उसके बचपन से ही माँ के पाठशाला चले जाने पर उसे बहुत लाड़ से संभालती थीं | वह महिला बड़ी उदारमना व ममताली थीं व विवेक से बहुत प्यार करती थीं | यह एक पहाड़ी महिला थीं जिन्हें समाज में अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था | इसका बहुत बड़ा कारण था | यह स्त्री पहाड़ों की रहने वाली थी | उसकी कहानी बहुत पीड़ादायक थी | पहाड़ों की बालाएँ—बला की खूबसूरत !उनमें भोलापन, मासूमियत तथा निर्मल सुंदरता का अद्भुत समन्वय होता था | 

ब्रिटिश राज में मनचले अंग्रेज़ पहाड़ों में मौज-मस्ती करने जाते, समतल जंगलों में शिकार करते और रात होने पर आस-पास पहाड़ी इलाक़ों में पहुँचकर अपने उन हिन्दुस्तानी सेवकों से टैंट लगवाते जिन्हें साथ लेकर चलते थे | वे उनसे सेवा करवाते, ’कैंप-फ़ायर’ करते, खाते-पीते, मौज-मज़ा, मस्ती करते और ताक में रहते कि अपनी रात रंगीन और बिस्तर गर्म करने के लिए कोई खूबसूरत जिस्म उन्हें मिल जाए | इसके लिए वे अपने साथ लाए हुए भारतीय सेवकों को तैनात करके रखते थे | 

एक ही स्थान पर कई बार जाने से उन्हें पहचान हो जाती थी कि किस इलाक़े में लड़कियाँ और औरतें सबसे ज़्यादा खूबसूरत हैं और मर्द बहुत भोले ! बस, उनका काम निकलता रहता था | न जाने कितनी औरतें व लड़कियाँ गायब होती रहतीं | कुछ दिनों में उस गाँव के निवासियों की समझ में इनकी वस्तविकता आने लगती और वे अपनी बहू-बेटियों के प्रति सचेत होने लगते | 

न जाने कितनी युवा लड़कियाँ उन शिकारियों का शिकार हो चुकी थीं | किसीको वे पैसे के ज़ोर से ले जाते, तो किसी को ज़बरदस्ती ! किसी का उपभोग करके किसी अनजाने शहर में छोड़ दिया जाता तो किसीके अवशेष नुचे-फटे पास के किसी पहाड़ी जंगल में से मिलते | गाँव वालों के पास रोने-चिल्लाने के अतिरिक्त और कुछ न रह जाता | 

पहाड़न माँ जी बतातीं, ”जब कभी आकाश में से हवाई जहाज़ की आवाज़ आती, गाँव वाले अपने अपनी बच्चियों को लेकर घरों में दुबक जाते | युवा कन्याएँ खेतों में होतीं तो घने खेतों के बीच झुककर छिपने की कोशिश में लग जातीं | ”भोले पहाड़ी ग्रामवासी समझते कि हवाई जहाज़ में केवल शिकारी ही आते हैं | 

इस पितृहीन बच्चे को पालने वाली स्त्री यही चम्पा थी| उसका रंग चम्पा के फूल सा, गठा हुआ शरीर, बड़ी-बड़ी मासूम आँखें देखकर कितने मनचले अपनी गिद्ध दृष्टि उस पर गडाते| उनका बस चलता तो वे सब मिलकर उसे कच्चा ही चबा जाते | बस, यह दैवयोग ही था कि चम्पा विलास की नानी के संरक्षण में आ गई थी | 

चम्पा जब ऐसे ही किसीके द्वारा स्तेमाल करके शहर में फेंक दी गई तब लोगों ने उसे हिकारत की दृष्टि से देखा पर किसी ने उसे, उसकी पीड़ा को समझने का प्रयास नहीं किया | विलास की नानी ने जब उसकी करुणापूर्ण कहानी सुनी तब वे उसे अपने घर ले आईं | वैसे भी उस घर में कितने ही नौकरों का पेट भरता था | जब उनकी बेटी के साथ हादसा हुआ तब वे चम्पा को बेटी के घर छोड़ गईं | चम्पा ने बच्चे विलास का लालन-पालन ऐसे किया मानो वह उसके खुद के गर्भ में नौ माह पला था | 

चम्पा के कोई नहीं था, जो कुछ भी था बस यही छोटा बच्चा था | नन्हे विलास में उसकी जान बसती थी | 

उन दिनों स्वामी दयानंद सरस्वती के द्वारा स्थापित आर्य-समाज का प्रचार-प्रसार बड़े ज़ोर-शोर से हो रहा था | नानी उसमें जुड़ गईं थीं | उन्हें मंत्रों में, स्वामी दयानंद के वचनों में व्याख्यानों में बहुत रस आने लगा | उनके साथ ही चम्पा भी आर्य -समाज में जाने लगी | उसकी तीव्र बुद्धि ने बहुत जल्दी श्लोकों को समझकर उनका उच्चारण शुरू कर दिया था | कोई नहीं कह सकता था कि वे केवल अपना नाम भर लिखना जानती हैं | जब माता जी (नानी), तथा चम्पा यज्ञ करने बैठते तब छोटे से विलास (विक्कू)को सर्दियों के दिनों में रज़ाई में लपेटकर हवन कुंड के सामने बैठा दिया जाता | उसकी अपनी माँ काम पर जातीं तो उसकी देखरेख के लिए दो माएँ उसकी देख-रेख के लिए होतीं | 

विलास ने बचपन से ही न जाने कितने कठिन श्लोक कंठस्थ कर लिए थे | सुंदर संस्कारों से युक्त विलास बहुत से आदर्शों को अपने मानस-पटल पर अंकित कर युवावस्था की दहलीज़ पर आ खड़ा हुआ था | कुछ वर्षों में बड़ी माता जी (नानी जी )का भी निधन हो गया, केवल चम्पा ही रह गईं उसकी देख-रेख करने के लिए !माँ कॉलेज की प्रिंसिपल हो गईं थीं | अँग्रेज़ी में एम. ए करने के बाद विलास को जब पी.एचडी के लिए स्कॉलरशिप पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला तब बच्चे के दूर जाने की बात सोचकर ही चम्पा माँ की तो मानो जान ही निकल गई | 

बनारस विश्वविद्यालय में इंदु से मिलना ।उस पर इंदु के पिता का विलास को अपनी बेटी के लिए सुयोग्य वर लगना, दैवयोग की ही बात थी | इंदु के पिता तथा माता लक्ष्मी का दोनों को विलास के आदर्शों ने मोह लिया था | उन्होंने विलास के बारे में पता लगवाया और पत्नी व पुत्री सहित उसकी माँ से मिलने पहुँच गए | अब तक विलास का शोध पूरा नहीं हुआ था लेकिन इस बात की उन्हें कोई चिंता नहीं थी | वे एक संस्कारी, गुणी, आदर्शवादी युवक को अपने पुत्र के समान स्नेह व सम्मान देना चाहते थे | 

चंपा माँ की दृष्टि में तो इंदु उन्हीं में से किसी एक फिरंगी की बेटी थी जिन्होंने उस जैसी न जाने कितनी युवा लड़कियों व स्त्रियों की इज़्ज़त लूटकर उनका जीवन खंडहर में परिवर्तित कर दिया था | ज़िंदगी में कुछ घटनाएँ दूसरों के साथ होती हैं लेकिन उनका अप्रत्यक्ष प्रभाव उन पर भी पड़ता है जो उन लोगों से जुड़े रहते हैं या उस घटना को देखते हैं | 

विलास के मन में इंदु बसी थी जिस पर उसकी माँ ने मुहर लगा दी थी लेकिन चंपा ?उसके लिए एक ही छत के नीचे हर पल फिरंगी की लड़की को देखना एक पीड़ादायक दंड था | वह कुछ ऐसे भयभीत रहतीं जैसे कोई हर पल उनकी आत्मा पर कोड़े बरसाने की तैयारी कर रहा हो | इंदु के पिता विशुद्ध भारतीय थे परंतु इंदु की माँ की रगों में अंग्रेज़ का रक्त बह रहा था | बेशक वे अपने अंतर से पारदर्शी व स्वस्थ विचारों से युक्त थीं ।उनके विचार विशुद्ध भारतीय थे परंतु चंपा के लिए वे एक गोरे की बेटी थीं | 

“आख़िर मैं विक्कू की लगती क्या हूँ ? एक पालने वाली नौकरानी या सुंदर शब्दों में सोचूँ तो आया !”सोचते हुए चंपा निराशा के सागर में डूबने-उतरने लगती थी | 

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