वह जो नहीं कहा - समीक्षा Sneh Goswami द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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वह जो नहीं कहा - समीक्षा

बहुत कुछ कहता 'वह जो नहीं कहा' (लघुकथा संग्रह : स्नेह गोस्वामी )
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॥ पूर्वकथन : नई किताबें डाक में मेरे पास बहुत आती हैं। नये और उदयीमान लेखकों की विशेषकर। कुछ किताबें पूरी नहीं पढ़ पाता, पर कुछ होती हैं जो अपने आप को पढ़वा ले जाती हैं। पर मैं उन पर लिख नहीं पाता। दरअसल मैं समीक्षक हूँ ही नहीं, समीक्षा करना मुझे आता ही नहीं। मेरे पास समीक्षकों वाली भाषा भी नहीं है। मैं प्राय: किसी की किताब पर कुछ समीक्षात्मक लिखने से कतराता रहता हूँ। इसके चलते बहुत से नये-पुराने लेखक मित्र मुझसे नाराज हो जाते हैं। कुछेक ने तो दोस्तियाँ ही खत्म कर दीं। इस विषय में मैं आज भी नए-पुराने लेखकों की नाराज़गियाँ झेलने को विवश हूँ। दूसरी तरफ,’ जैसे कुछ किताबें अपने आप को मुझसे पढ़वा ले जाती हैं, उसी तरह कुछ किताबें मुझसे टूटा-फूटा लिखवा भी ले जाती हैं। इस पोस्ट में मैं स्नेह गोस्वामी के लघुकथा संग्रह ‘वह जो नहीं कहा’ पर ऐसी ही टूटी-फूटी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ, इसे मेरी एक पाठकीय प्रतिक्रिया ही समझें, समीक्षा नहीं। यह संग्रह मुझे डाक में अक्टूबर 2018 में मिला था। इस पर मैंने अपने मोबाइल के नोट पैड में 4 जनवरी 2019 को छोटी-सी प्रतिक्रिया स्वरूप एक टिप्पणी लिखी थी। वह यूं ही पड़ी रही। इस बीच इस किताब को एक बार फिर पढ़ने का अवसर मिला। सोचा, इस पर लिखी अपनी टिप्पणी को जाया होने से बचा लूँ। सो, यहाँ टिप्पणी को आपसे साझा कर रहा हूँ – सुभाष नीरव ॥
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स्नेह गोस्वामी का लघुकथा संग्रह ‘वह जो नहीं कहा’ साहित्य भूमि प्रकाशन, नई दिल्ली से पिछले वर्ष 2018 में प्रकाशित हुआ। इसमें स्नेह की कुल 55 लघुकथाएँ सम्मिलित हैं। 'वह जो नहीं कहा' लघुकथा मैंने पंचकुला के लघुकथा सम्मेलन में सुनी थी। इस लघुकथा ने तब सोचने को मजबूर किया था। स्नेह गोस्वामी तब खुद भी कह रही थीं कि उन्हें नहीं पता कि यह लघुकथा के फ्रेम में आती है या नहीं। उस समय मेरा मानना था कि लेखिका में अपने लिखे के प्रति आत्मविश्वास की कमी है। वह भीतर से भयभीत है कि उसकी लिखी लघुकथाएं, लघुकथाएं हैं भी कि नहीं। लघुकथा के विद्वान इन्हें किस रूप में लेंगे? इस आत्मविश्वास की कमी और यह भय हर नए रचनाकार में होता है। और यह आत्मविश्वास धीरे-धीरे बनता है और धीरे-धीरे ही उसके अंदर का भय खत्म होता है जब वह निरंतर लेखन में क्रियाशील रहता है, अपने वरिष्ठों को निरंतर पढ़ता है, उनके संपर्क में आता है। स्नेह ने इसी प्रक्रिया में रहकर अपने अंदर के डर को बहुत हद तक कम किया है और अपने आत्मविश्वास को बढ़ाया है। इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएं मेरी इस बात की पुख्ता गवाही देती हैं। जब नए लेखक के अंदर यह आत्मविश्वास पैदा हो जाता है तो उसे अपनी बहुत सी कमजोरियों का खुद ही पता चलने लगता है। वह उन्हें अपने विवेक से दूर भी करता चलता है और दूसरों की सलाह से भी उन कमजोरियों को दूर करने की कोशिश करता है।
स्नेह गोस्वामी की अनेक लघुकथाएं हमारे जीवन की विसंगतियों पर बड़ी बारीक नजर से हस्तक्षेप करती नज़र आती हैं। अधिकतर लघुकथाओं के केंद्र में स्त्री है और वो स्त्री हमारे भारतीय समाज की स्त्री का चेहरा है। स्त्री होगी तो घर भी होगा, परिवार भी होगा। एक आम भारतीय स्त्री के घर-परिवार में रहते हुए क्या क्या दुख, क्या क्या संघर्ष हो सकते हैं, उसके कितने और कौन-कौन से मोर्चे होते हैं जिन पर वह दिन रात पुरुष से ज्यादा लड़ती-जूझती है, यह बात पुरुष लेखक की बजाय एक स्त्री लेखक कहीं ज्यादा जान-समझ सकती है, महसूस कर सकती है। यही वजह है कि स्नेह गोस्वामी की लघुकथाओं में हमारे समाज की वो रूढ़ियां, परंपराएं, मान्यताएं, आस्थाएं जो नए मनुष्य और समाज के लिए अप्रासंगिक और निरर्थक हो चुकी हैं, स्त्री के माध्यम से ही उन पर बात की गई है, जो मुझे इनका सार्थक और सकारात्मक पहलू लगता है।
स्नेह की अपेक्षाकृत बड़े आकार की लघुकथाएँ बहुत सघन संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं और भाषा का कमाल उनमें बोलता है। ये अधिकतर कहानीपन लिए हुए हैं और कथारस भी जो लघुकथा की पठनीयता को कमतर नहीं, बल्कि बढ़ाने में सहायक होता है। ‘वह जो नहीं कहा’, ‘बुआ ज्वाली’, ‘उठो नीलांजन’, ‘परितृप्त’, ‘पिंजरा’, ‘चुपड़ी रोटियाँ’ इसी श्रेणी में आती लघुकथाएं हैं। ‘वह जो नहीं कहा’ डायरी शैली में लिखी होने के बावजूद डायरी-कथा नहीं है। सुबह छह बजे से लेकर रात दो बजे तक के छह काल खंडों में दर असल एक स्त्री का पति की अनुपस्थिति में अपने पतिरूपी जानू से मन ही मन किया गया बेहद प्यारा वार्तालाप है, जो बहुत रोचक और प्रवाहमयी भाषा में लघुकथा में अवतरित हुआ है। ‘नागफनी’, ‘बेवकूफ’,’अधूरा ख़त’, ‘बी प्रेक्टिकल’, ‘एक भरा-पूरा दिन’, ‘नो प्रॉब्लम’, ‘चाहत’ आदि लघुकथाएँ हमें निराश नहीं करतीं और लेखिका के लघुकथा लेखन के प्रति हमें आश्वस्त करती हैं।
‘चित्र’ लघुकथा में एक ऐसे बालक की मनोस्थिति का खूबसूरत चित्रण मिलता है जिसे घर में रहते हुए भी मम्मी-पापा की शक्लें देखे कई कई दिन बीत जाते हैं। उद्दंड होती पीढ़ी के बच्चे जिन्हें माँ-बाप गंवई लगते हैं और जिन्हें वे बेवकूफ बनाकर खुश होते हैं, इसको ‘बेवकूफ’ लघुकथा में अभिव्यक्ति दी गई है।
लघुकथा कथा विधा की बहुत छोटी विधा है। इसमें पात्र बहुत कम होते हैं अधिक से अधिक दो या तीन। इसमें मुख्य पात्र की विवशता, उसके द्वंद, उसकी छटपटाहट, उसकी मनोदशा को अधिकतर लघुकथा लेखक नरेशन में व्यक्त कर देते हैं जबकि यह सब उस पात्र के माध्यम से ही अभिव्यक्त होना चाहिए। ‘परितृप्त’ लघुकथा में कथा नायक के भीतर की छटपटाहट, उसकी भीतरी खुशी, उसका द्वंद चरित्र के माध्यम से ही बड़ी खूबसूरती से उभर कर सामने आता है, लेखक ने इस पात्र के भीतरी उद्वेगों को बड़ी खूबी से बांधा है। यह लघुकथा अपने कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति में श्रेष्ठ लघुकथा की श्रेणी में रखी जाने वाली लघुकथा मुझे लगी।
प्रूफ की अशुद्धियां ठीक उसी तरह एक पाठक के स्वाद-आस्वाद को किरकिरा करती हैं, जैसे किसी स्वादिष्ट भोजन में कंकर करता है। स्नेह के इस लघुकथा संग्रह में भी प्रूफ़ की अशुद्धियों की खूब भरमार है। इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया, जिसे मैं बहुत ज़रूरी समझता हूँ। बहुत-सी लघुकथाओं पर अभी धैर्य से काम करने की ज़रूरत महसूस होती है। बहरहाल, स्नेह गोस्वामी में काफी संभावनाएं दिखती हैं, आने वाले समय में इनकी लघुकथाओं में और निखार आएगा, ऐसी उम्मीद जगती है। स्नेह गोस्वामी को मेरी बधाई।
- सुभाष नीरव
25 अगस्त 2019