Nainam chhindati shstrani - 42 books and stories free download online pdf in Hindi

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 42

42

वैसे यह बात करने का सही समय नहीं था परंतु दोनों स्त्रियों के दिल इतने भारी थे कि उनके भीतर की असहनीय संवेदना बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगी | 

ऐसी घनी पीड़ा सारांश में नहीं उँड़ेली जाती, उनके विस्तार होते हैं, उनमें आहें होती हैं, आँसू होते हैं, सिसकियाँ होती हैं, गिले-शिकवे होते हैं –और भी बहुत कुछ होता है –और उसके बाद होती है सहानुभूति, संवेदनात्मकता और संबल का एहसास व विश्वास !पुण्या ने अपना दिल हल्का करने के लिए समिधा को जो बातें बताईं उनकी कल्पना मात्र से ही समिधा सिहर उठी | कैसा नर्क झेलकर आई थी पुण्या लंदन में ! लोग विदेश में जाने के लिए उत्साहित रहते हैं पर पुण्या विदेश से भागकर आई थी | 

विवाह के बाद पश्चिम की ओर से आने वाली पवन में उसके दिल का परचम लहराया था, ससुराल में मिलने वाले लाड़-प्यार की कल्पना से वह उल्लसित रहती | विवाह के तीसरे दिन ही उसके पति को वापिस लौट जाना था, वह जानती थी इसलिए विरह के दिनों ने उसके मन में प्रेम की श्रद्धा का दीपक जलाए रखा | 

जब पति के पास से उसका बुलावा आया वह फूली नहीं समाई थी और अपनी सारी संवेदनशीलता हृदय में समेटे वह लंदन पहुँची थी | तब उसे ससुराल नामक जेल के जो दर्शन हुए, जो प्रताड़ना मिली, उसके घाव अपनी पीठ, हाथों, जांघों पर दिखाते हुए पुण्या का शरीर काँप रहा था | समिधा ने उसे अपने अंक में समेट लिया और घबराहट व पीड़ा को महसूस करते हुए उसकी सुबकियों के साथ अपनी आँखों के आँसुओं की जुगलबंदी होने दी | ये सारे घाव इतने गहरे थे कि समिधा को लगा एक बार का मरना उससे कहीं बेहतर हो सकता था | 

पुण्या ने दो-तीन वर्ष तक ऐसा नर्क झेला था जहाँ रिश्ते के नाम पर सौदे थे, जहाँ स्नेह व प्यार के नाम पर दिखावा था, जहाँ संबंधों के नाम पर छिछलापन था और जहाँ स्वतंत्रता के नाम पर कैद थी| उस कैद की प्रताड़ना, लांछन, शारीरिक व मानसिक पीड़ा की कथा सुनते हुए समिधा के रौंगटे खड़े हो गए | पुण्या के पति-संबंधों की गाथा किसी नर्क से कम न थी बल्कि पुण्या की कहानी सुनते हुए समिधा की आँखों में अपने बचपन के छोटे शहर में होने वाली उस नुमाइश की स्मृतियाँ ताज़ा हो आईं जिनमें एक ‘शो’ हुआ करता था जिसका नाम ‘स्वर्ग-नर्क’था और जिसमें दिखाया जाता था कि गलत काम करने वाले आदमी को किस प्रकार भट्टी में झौंक दिया जाता है, उसके अंग-प्रत्यंग काट डाले जाते हैं, उबलते तेल के कढ़ाहे में उल्टा लटका दिया जाता है | बेशक किसीको गलत और सही की परिभाषा के बारे में ज्ञान न हो पर उस शहर में उस नुमाइश को देखने जाने वाली अस्सी प्रतिशत आबादी उस ‘शो’ को देखती ज़रूर थी | 

उस शो में से निकलते हुए चेहरों को सुम्मी (समिधा)पढ़ती थी जो सपाट तथा एक अजीब किस्म की घबराहट से भरे हुए होते थे, जिनसे लगता था अब कोई भी गलत काम नहीं करेगा | परंतु उस समय वह गलत-सही की परिभाषा तक कहाँ जानती थी –आज तक भी इस गलत-सही के झगड़े का समाधान है कहाँ ?जो एक के लिए सही है, वही दूसरे के लिए गलत! हर वर्ष शहर में नुमाइश लगती थी और हर वर्ष वह और किन्नी ज़िद करके किन्नू, जीजी और बीबी के साथ ‘शो’ देखने जाते थे | 

पुण्या को अपनी गोदी में लेकर सहलाते हुए वह सोच रही थी क्या माँ व पुत्र के ऐसे कालिख भरे संबंधों की बात विश्वसनीय हो सकती है कि बेटे के लिए ब्याही पुत्र-वधू को ज़ंजीर में बंधी गाय बना दी जाए?और माँ व पुत्र उसके समक्ष हमबिस्तर हो उसे क्रूर उपहास का केंद्र बनाए रखें ?

आज के माहौल में और तो सारे रिश्ते वैसे भी बेमानी हो रहे हैं, दिखावटी, बनावटी अपने आपको सभ्य व मार्ड्न कहलाने में गर्व महसूस करते हैं पर माँ व पुत्र के पवित्र व घिनौना खेल पुण्या ने झेला था | वह गहरा घाव उसकी आत्मा पर काला धब्बा बनकर चिपक गया था | वह घिनौनी पीड़ा पुण्या ने झेली थी और उस पीड़ा से वह भीतर से इतनी खोखली हो चली थी कि ‘विवाह’की पवित्रता पर उसका विश्वास कच्ची मिट्टी की भाँति भुरभुरा उठा था | 

‘इससे अच्छा तो ‘आदिम-हव्वा’ का ज़माना नहीं होगा !’समिधा के भटकते हुए दुखी मन ने सोचा | 

“न जाने दीदी, इतनी यंत्रणा कैसे झेल सकी मैं ? शायद इसलिए कि उस समय मेरे पास और कोई चारा ही नहीं था | ”

“समय सब करवाता है पुण्या –हम सब उसी चक्कर में घूमते रह जाते हैं जिसमें हमें समय का पहिया घुमाता है | हमारे अपने बस में कुछ कहाँ होता है ?”समिधा की आँखों के समक्ष पुरानी गलियों की ख़ाक उड़ रही थी और पुण्या के समक्ष पश्चिम का भयावह गुज़रा हुआ कल !

दामले तथा टीम के अन्य सदस्यों के आने का समय हो गया था परंतु वे अभी तक पहुँचे ही नहीं थे | एक-दूसरे को सहारा देकर दोनों महिलाओं ने अपने को संभाला और तैयार होने के लिए उदृत हुईं | पीड़ा भरी बातें ताउम्र पीड़ा देती हैं, समय लौटकर नहीं आता –हाँ, उसके दंश ताउम्र चुभते रहते हैं | इसके बाद चाहे कोई कितना भी दिखावटी सम्मान, प्यार व संवेदना क्यों न दिखाए ।उन दर्दीली स्मृतियों से गर्म झौंके ही निकलते हैं, शीतल पवन नहीं !

समय की रफ़्तार किसीके लिए नहीं रुकती, समय व मन दोनों की गति को नापना आम इंसान के बूते की बात तो है नहीं ! उसके मन का विज्ञान तो भीतर ही अपने प्रयोग करता रहता है | 

यूनिट का काम अपनी गति से चल रहा था, न जाने किस मानसिक स्थिति में समिधा के हाथ से रात में काँच का ग्लास टूट गया जिसकी फैली हुई किरचें समिधा ने समेट तो लीं थीं पर न जाने कैसे एक मोटा काँच का टुकड़ा पलंग के उस ओर जा पड़ा था जिधर पुण्या सोई थी | जैसे ही पुण्या ने पलंग से उतरकर ज़मीन पर पैर रखा, उसके मुँह से ‘उई’ निकल गया | जब तक समिधा दौड़कर उसके पास तक आई, पुण्या के तलवे में वह काँच का टुकड़ा काफ़ी भीतर चला गया था जिससे रक्त प्रवाहित होने लगा था | 

पुण्या ने काँच के टुकड़े को निकालने का बहुत साहस किया पर निकाल नहीं पाई | पीड़ा से वह बिलबिला रही थी, रो रही थी, रक्त था कि फव्वारे सा निकाल रहा था | समिधा ने ज़मीन पर बैठकर पुण्या के पैर को अपनी गोदी में रखा और साहस करके एक झटके से काँच खींच लिया | पुण्या के चेहरे पर तनी रेखा ढीली पड़ गई परंतु रक्त का फव्वारा और भी तेज़ी से बहने लगा | समिधा ने पलंग पर पड़े अपने दुपट्टे को उठाकर पुण्या के रक्त निकलते हुए पैर पर कस दिया और भागकर ‘फर्स्ट एड बॉक्स ‘ उठा लाई | 

“मुझे लगता है तुम मेरे साथ तकलीफ़ पाने के लिए ही आई हो | ”समिधा को दुख था अनजाने में उसके हाथ से गिरे ग्लास के टुकड़े ने ही तो पुण्या का पैर घायल कर दिया था | 

“कैसी बातें करती है दीदी ?समय की बात होती है, आपने जान-बूझकर तो तकलीफ़ दी नहीं मुझे | ”उसने अपनी कराह रोकने की बेमानी सी चेष्टा करते हुए समिधा को सामान्य करने के लिए कहा | पर पीड़ा उसके चेहरे पर चुगली खाती रही | 

अभी समिधा पुण्या के पैर को गोदी में रखे, बहता रक्त रोकने का प्रयास कर ही रही थी कि पूरी यूनिट आ पहुँची | दामले पुण्या के पैर से निकलते रक्त को देखकर सन्न रह गए | काँच के एक छोटे से टुकड़े ने पूरे फ़र्श पर कुछ अधिक ही कहानी चित्रित कर दी थी | कमरे में रखे फ़ोन से दामले ने तुरंत ही जेलर साहब को फ़ोन करके जेल के डॉक्टर साहब को भेजने की प्रार्थना की | जेलर वर्मा के चिंतित स्वर को अनसुना करके रिसीवर नीचे रख दिया था | 

समिधा को अपने ऊपर कोफ़्त हो आई, उसकी समझ में क्यों नहीं आया कि वह फ़ोन करके डॉक्टर को बुलवा लेती | उसे भी तो पता था कि डॉक्टर जेल के अंदर रहते हैं | कभी-कभी परिस्थितियाँ इंसान के मनोमस्तिष्क को कैसा सुन्न कर देती हैं !!

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