नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 40 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 40

40

घर की व बीमार पति की ज़िम्मेदारी थी ही | बच्चे पढ़ रहे थे, उन्हें खाने से लेकर समय पर हर चीज़ मुहैया कराना उनका कर्तव्य था | गर्ज़ ये कि बीबी ने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को होम कर दिया था, जिसका उन्हें कोई मलाल न था | बस वे जितना संभव हो उतनी ही शीघ्रता से अपनी इस ‘बेचारगी’से उबरना चाहती थीं जिसमें उन्हें समय ने जकड़ दिया था | उनका पूरा विश्वास व श्रद्धा थी कि इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता –बस, उसे अपनी भीतरी शक्ति को पहचानने की देरी होती है |

कभी-कभी दयावती के भीतर की अध्यापिका उन्हें झिंझोड़कर पूछती ‘क्या वे इतनी शिक्षित होकर भी इतने सुदृढ़ विश्वास के साथ साँस ले सकीं हैं जितनी दृढ़ता से यह साधारण मानी जाने वाली स्त्री अपने युद्ध-क्षेत्र में बिना किसी हथियार के उतर पड़ी है ?सच ही शिक्षित होना कोई कागज़ का टुकड़ा भर नहीं होता | शिक्षा का वास्तविक अर्थ उसको आचरण में, व्यवहार में लाना है, समय पर मानसिक संतुलन तथा साहस से स्थिति को संभालना व समय पर सही निर्णय लेना है ! ’दयावती बहन जी को राजवती की मित्रता पर गर्व था |

कुछ ही दिनों के श्रम ने उनके व्यक्तित्व को और भी निखार दिया | बीबी वैसे ही बहुत खूबसूरत थीं, वख्त से पसरी निराशा ने उनके सुंदर मुखड़े पर मलिनता की कूँची फिरा दी थी | समय के थपेड़ों ने उनका शरीर शिथिल कर दिया था और बच्चों व परिवार के भविष्य की चिंता ने उनके सुंदर माथे पर लकीरें बना दीं थीं लेकिन आश्चर्य !कुल चार महीने में उन्होंने न केवल बिटिया सुम्मी की गुल्लक के पैसे अधिक पैसे डालकर उसे वापिस दे दिए थे बल्कि घर का खर्चा चलाते हुएबच्चों की पढ़ाई का खर्च था पति की बीमारी की दवा-दारू करते हुए छह और भैंसें खरीद लीं | हाँ, उनका पैसा उन्होंने पहले ही टुकड़ों में देने का वादा कर लिया था –

यह रहस्य तो बहुत बाद में खुला कि बीबी न केवल अपनी भैंसों का दूध बेचती थीं बल्कि बल्कि जहाँ पर चारा लेने जाती थीं, वहाँ पर भैंसों का दूध भी निकालकर आती थीं | मवेशियों को चारा खिलाती थीं इससे उन्हें और भी आमदनी हो जाती थी| बीबी ने यह बात किसी से भी नहीं बाँटी थी, दयावती बहन जी से भी नहीं | इसका खुलासा बहुत बाद में उन्हीं के द्वारा हुआ था जिनके यहाँ वह काम करती थीं |

अब उनका सूरज लालिमा के साथ रोशनी भी देने लगा था | सच बात है, चढ़ते सूरज को सब सलामी देते हैं, उनके साथ भी यही होने लगा | इतने कम समय में बिना पानी के खालिस दूध ने काफ़ी घरों में उनकी पहचान बना दी |

बीबी को बेकार की सहानुभूतति दिखाने वालों से बहुत चिढ़ लगने लगी थी, लोगों की बेचारगी से भरी दृष्टि देखकर उनके तन-बदन में आग लग जाती | ये वही लोग थे जिन्होंने उनकी मिठाई का व्यापार ठप्प हो जाने पर उनके परिवार की पगड़ी उछालने में ज़रा भी संकोच नहीं किया था, चाहे पहले उनकी दुकान की पत्तलें और दोने चाटते रहे हों |

अपने साथ हुई दुर्घटना ने बीबी को शिक्षित बना दिया, उन्हें लोगों की पहचान करवा दी| जीवन के मूल्य, जीवन की नज़ाकत, लोगों कीदृष्टि, सोच सभी चीज़ों को सरल-हृदया बीबी अब बखूबी समझने लगीं थीं | यदि कोई भूल से भी उन्हें सहानुभूति दिखाने की बात करता तो वे चिढ़कर कहतीं ;

“अरे भाई ! काम कर न अपना, मेरे लिए क्यूँ खून फूँक रहा है ?मेरे घर की समस्या है, मैं संभाल लूँगी –“

पूछने वाला खिसिया जाता कि फिर लौटकर उस ओर मुड़कर भी न देखता | वे जानती थीं कि वे काफ़ी खूबसूरत हैं और साथ ही यह भी कि उन्हें संभालने वाले हाथ स्वयं उनके हैं, उनका कोई संभालने वाला नहीं है बल्कि उन्हें ही सबका संबल बनना है | यही समय था जब उनके बच्चे बड़े हो रहे थे | यही समय था जब उनकी सुंदरता पर लोगों की निगाहें ठिठक रहीं थीं और वे ललचाए भेड़िए से उन पर झपट्टा मारने के लिए तैयार बैठे थे |

यही समय था जब उन्हें अपने पति को बिस्तर से उठाकर फिर से उनके पाँवों में मज़बूती भरनी थी, फिर से उनका टूटा हुआ विश्वास देकर एक मज़बूत व्यक्तित्व खड़ा करना था –और सबसे बड़ी, अहम बात कि इस सबके साथ ही उन्हें बैंक का उधार भी उतारना था | मंगल सुनार वाली घटना के बाद उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू में गाँठ बांध ली थी कि अब ऐसे लोगों से कोई अपेक्षा नहीं करेगी, कोई संबंध नहीं रखेंगी| उन्होंने रात-दिन ख़टना शुरू कर दिया था और कुछ समय के बाद एक साइकिल खरीद ली थी |

उनकी सड़क के ठीक पीछे सड़क पार करके एक गहरा नाला था | जब बीबी ने साइकिल चलानी सीखी थी तब न जाने कितनी बार साइकिल लेकर उस नाले में गिरीं थीं, पर हार नहीं मानी | कोई देखकर हँसी न उड़ाए इसलिए वे रात में साइकिल चलाने का अभ्यास करतीं थीं | कुछ ही दिनों में वे चारे की गठरी सिर पर रखकर लाने की जगह अपनी साइकिल के पीछे कैरियर पर बाँधकर लाने लगीं थीं |

ओह !क्या शोर बरपा था शहर में !तौबा –उन्हें साइकिल पर आते-जाते देखकर लोग ऐसे आँखें फाड़-फाड़कर देखते मानो वे कोई अजूबा हों | और तो और उनके चरित्र पर फुसफुसहटें गरमाने लगीं थीं | लोग मुँह से कुछ बोलने का साहस तो जुटा न पाते, जानते थे उनके मुँह लगना आसान नहीं था | न जाने कब।किसीको बीच चौराहे पर नंगा कर दें | हाँ, आँखों आँखों में उन्हें मानो कच्चा चबा जाने का प्रयास करते | इस प्रकार की बेहूदी साजिशें वे फालतू लोग करते हैं जो समझते हैं कि वे ही सर्वेसर्वा हैं, सर्वगुण सम्पन्न, सच्चरित्र –बाकी सब नकारा –दुश्चरित्र !वे यह भी भूल जाते हैं कि उनके सामने भी कोई परेशानी आ सकती है, वे भी कभी किसी मुसीबत में फँस सकते हैं जिसमें आज वह व्यक्ति फँसा हुआ है जिसकी वे मखौल उड़ा रहे हैं |

वास्तव में हँसी उड़ाने वाला समझता है कि वह सदा सही व अमर है, जो वह करता है, वही ठीक है –वह आसमान में उड़ने लगता है और अपना असली रूप भूल जाता है | वह घण्टियाँ टनटनाता रहता है, इतने व्रत –उपवास के ढोंग करता है कि अहं से भर उठता है और फूलकर कुप्पा होता रहता है कि वह कितनी आसानी से भगवान को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकता है ! तथ्य को नहीं समझ पाता कि किसी इंसान को उसकी आवश्यकता में सहायता करना ही उसे जन्म देने वाले ईश्वर की वास्तविक पूजा है | साँस लेते हुए इंसान को छोड़कर बेजान पत्थर की पूजा में वह अपना जन्म सफ़ल समझता है और ढोंग करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार !!