नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 38 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 38

38

किन्नी की बीबी एक दिन यूँ ही अपना मन हल्का करने समिधा की माँ के पास आकर बैठ गईं थीं | आजकल उनके मुख से प्रसन्नता की जगम्गाहट कहीं दूर जा छिपी थी जैसे खुशी उनके साथ आँख-मिचौनी खेल रही हो | कुछ दिनों पहले तक तो परिवार के प्रत्येक सदस्य के मुख पर प्रसन्नता झलकती रहती थी परंतु अब—सपाट और सूनी आँखों में ढेरों प्रश्न भरे दिखाई देते | अब उनके पास चर्चा का विषय केवल उनके पति की बीमारी व बच्चों का लालन-पालन ही होता था | वे दया से इसी बात की चर्चा कर रही थीं कि ऐसा क्या किया जा सकता था जो वे अपने टूटे घर की ढहती इमारत को थाम सकें !

अपनत्व में वे एक-दूसरे को दया व राज ही कहकर पुकारती थीं | 

“अरे राज ! तुम दूध का काम क्यों नहीं शुरु कर देतीं ?”अचानक समिधा की माँ को उपाय सुझाई दिया | 

“हाँ, ये तो मैंने सोचा ही नहीं, अरे!भला हो तेरा दया –ये तो बढ़िया काम है और मुझे दूध काढ़ना भी आवै है| ”राजवती बीबी की आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं | उन्होंने उछलकर समिधा को गले से लगा लिया | उनका चेहरा बिलकुल उस बच्चे की भाँति खिल गया था जिसे थाली में चाँद सजाकर दे दिया गया हो | 

हाँ, यह बहुत अच्छा है –वह यह कर सकती है !बखूबी कर सकती है | दूध के व्यापार की बात उनके दिमाग में अंदर तक खुद गई | एक छोटे से विचार ने उनके अंदर एक नई चेतना जागृत कर दी थी | उनकी नसों में ठहरा हुआ रक्त दौड़ने लगा था और उनके पंख उग आए थे | 

ज़िंदगी कैसी होती है न –और कैसा होता है मनुष्य का मन !क्षण भर भी नहीं लगता यहाँ से वहाँ दौड़ लगाने में ! कल्पना के घोड़े क्षण भर में सवार को नीचे भी ला पटकते हैं | बीबी का चेहरा जिस सोच से खिल उठा था, वही सोच अचानक उनके मुख पर पतझड़ का मौसम ले आई थी | 

“अब क्या हुआ, फिर उदास कैसे हो गई ?”

“सुझाव तो तुम्हारा बहुत बढ़िया है –पर –“वह अटक गईं मानो कुछ संकोच हो रहा हो | फिर बोलीं –

“मैंने यह तो सोचा ही नहीं था कि भैंसें खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आएँगे ?”उनका खिलखिलाता स्वर फिर उदासी से भर उठा | 

“अरे!उसके लिए भी कुछ हो ही जाएगा, इतनी उदास होने की ज़रूरत नहीं है | रोशनी की लकीर खिंची है तो मार्ग का धुंधलापन भी दूर होगा न ?”समिधा की माँ ने उन्हें आश्वासन देने का प्रयास किया | 

“अरे !पर कैसे दया बहन जी ?तुम पढ़े-लिखे लोगों की बात वैसे ही मेरी समझ में नहीं आतीं | ”उन्होंने अपने हाथा हवा में घुमाए और तुरंत ही खुशी में चीख़ पड़ीं | 

“अरे !ये कड़े किस दिन काम आएँगे ?अरे ! भला हो –ये मेरी सास ने दिए थे, अब उनके परिवार को बचाने के काम आएँगे| ”कहकर वे फुर्ती से उठकर चल दीं | 

“अरे !सुनो तो –‘दयावती ने जल्दी से कहा पर अब तो बीबी पर भूत सवार हो चुका था | उन्होंने कब?कहाँ?किसकी?सुनी थी जो उनकी सुनतीं !

लंबे कद की राजवती बीबी सीधे मंगल सुनार के पास पहुँचीं और अपने दोनों हाथों के कड़े उतारकर उसके सामने रखा दिए | 

“बोल भाई, कितने देगा ? गिरवीन रखने हैं, साल भर में ले जाऊँगी | ”

पूरा शहर उनके साथ हुई दुर्घटना से परिचित था, सुनार भी सब कुछ जानता था | किसी गलत बात को फैलने में श्रम की आवश्यकता नहीं होती, वह अपने आप पंख लगाकर दूर तलक फैल जाती है| हाँ, यदि मनुष्य कोई अच्छा काम करे तो उसे ढ़ोल पीट-पीटकर सुनना पड़ता है | यही हुआ था किन्नी के परिवार के साथ ! बिना कुछ किए-करे उनके माथे पर बदनामी चिपक गई थी | 

“अरे भैंजी, हमें तो माफ़ ही करो।हम ये काम नहीं कर सकते | रख तो दोगी आप, छुड़ाओगी कैसे ?” वह बेशर्म हो गया था | हाँ, व्यापार में भावुकता का क्या काम !?

“क्यों भाई –हमें जानता नईं क्या?कल तक तो मिठाई के डिब्बे के डिब्बे उधार मँगवाए जाएँ थे | आज ऐसा पलट गया जैसे मेरी शकल पहली बार देख रहा हो !”बीबी एक ऐसा धाकड़ व्यक्तित्व थीं जो किसीको सही बात कहे बिना छोड़तीं नईं थीं | वह बात अलग थी कि समय उनकी परीक्षा ले रहा था | 

“नईं भैंन जी, ऐसी बात नईं है, पर –आप इन्हें छुड़ाओगी कैसे?”वह बेशर्म बनकर बोला | 

“ये तुमारा काम है के मेरा ?अपनी चीज रखूंगी तो छुड़ाउंगी भी –तुम्हें थोड़ी सौंप दूँगी –वैसे भी ना छुड़ा पाई तो तुमारा नुकसान तो है नहीं, तुमारा तो फायदा ही है | तुम क्यों अकड़ दिखा रहे हो?”

मंगल सुनार खिसियाकर खी-खी करने लगा था | कड़ों को कई बार अपने हाथों में कई बार उछाल कर मंगल ने उन्हें काँटे पर तोलने से पहले आदत के अनुसार उनका वज़न टटोलने की कोशिश की फिर उन्हें काले गोल पत्थर पर घिसकर उसके सोने के खरेपन को जाँचा, उसका मुँह खिल गया | क्या खरा सोना है !पर, सामने खड़ी स्त्री पर अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर करता तो चीज़ का भाव न बढ़ जाता !अत: बोला ;

“वैसे आपको पता है, सारे में क्या फैला हुआ है --?पर, आपके और हमारे तो संबंध ही भैंन जी दूसरे हैं –मैं आपको पाँच सौ रूपए दे दूँगा --| ”बेशरम मंगल खोखला अपनापन दिखाकर बेवकूफ़ बनाने की कोशिश कर रहा था | बीबी बेशक अनपढ़ थीं पर उसकी चालाकी समझ गईं थीं | 

मंगल की आँखों व चेहरे पर धूर्तता छ्लक रही थी | वह भी औरों के जैसे ही दोहरे व्यक्तित्व का बंदा था जो समझता था कि पूरी दुनिया में उसके जैसा होशियार कोई है ही नहीं –और उसने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है | सोचा, औरत है—बेवकूफ़ बना लूँगा | यह नहीं सोचा किस धाकड़ स्त्री से पाला पड़ा है !

“क्या फैला है, वो मुझे भी पता है –तुझे बताने की ज़रूरत नहीं है !कल तक जो ‘सिंग मिठाई’के दोने चाटते फिरें थे, आज वो ही मुझे रास्ता दिखा रहे हैं !तू—इन कड़ों के बस पाँच सौ देने की बात कर रहा है ?”वह सोच रही थीं कि इतने पैसे तो मिल जाएँ कि चार-पाँच भैंस तो खरीद सकें !पर उनका सपना मंगल सुनार ने तोड़ दिया !!

“अरे !तो क्या हज़ार रूपए दूँगा—पुराने कड़े हैं, हजार का तो सोना भी ना होगा इनमें, फिर घड़ाई—टांका अलग –“मंगल सुनार ने बेशर्म होकर सामने पड़ी हुई स्टूलनुमा मेज़ पर जहाँ और भी सोने की छोटी-बड़ी चीज़ें रखीं थीं, उन कड़ों को कुछ इस तरह रखा मानो उसे उनमें कोई दिलचस्पी ही न हो | 

उन दिनों लगभग दो सौ रुपए तोला सोना हुआ करता था | 6 तोले के कड़े थे, हिसाब से 1200 रुपए होते थे | मंगल आधे भी नहीं दे रहा था जबकि वह जानती थी कि लोग ज़ेवर गिरवीन रखकर 75 प्रतिशत तक दे देते हैं | बीबी बेशक हिसाब-किताब में कच्ची थीं लेकिन बेवकूफ़ नहीं थीं | 

“अड़ी भीड़ में गिरवीन रख रही हूँ, उधार नहीं माँग रही जो भाव खा रहा है | देने हों तो दे, नहीं तो मैं चली आत्माराम सुनार के पास—काम मेरा है, खाऊँगी धक्के –“वे उठने को तत्पर हुईं ही थीं, एक कड़ा पहनकर दूसरा हाथ में लिया ही था कि मंगल घिघियाता हुआ सा बोला –

“अरे!इत्ता गुस्सा भी ठीक नईं है भैंन जी –कुछ सोच-विचार करने का तो टैम दो –“

“मेरे पास टाइम ही तो नहीं है, सोचता रह | ”कहती हुई वे अपनी झोली संभालते हुए पीछे मुड़ीं, दया सामने खड़ी थी | 

“तुम्हें किसीकी बात सुनने की आदत तो है नहीं –आवाज़ दे रही हूँ –पर, सुने कौन ?”दया बीबी से नाराज़ थीं | 

“अरे ! पर, काम तो करना है कि नईं –तो जितनी जल्दी हो जाए | चलो, यहाँ से, ये नखरे दिखा रहा है | इतना खरा सोना है, आत्माराम की दुकान पर जा रही हूँ | अब जब यहाँ तक आई है तो चलो साथ | ”

“अरे भैंन जी, समझाओ इन्हें, मना थोड़े ही किया है –वो तो बस, जरा –“

“नहीं, मंगल सेठ जी, हमें देने ही नहीं हैं –चलो ज़रा, आप घर तो चलो | ”वे राज की ओर मुड़ीं | 

“अरे पर –“वे हिचकिचाईं | उनका मन उथल-पुथल हो रहा था, पता तो है दया को सारी बात फिर ?

“घर चलो तो सही –“

“पर –“

“मैं आ जाऊँगी तुम्हारे साथ, अभी घर चलो | ”कहकर बहन जी राजवती बीबी को घर खींच लाईं | 

छोटा शहर, कुछ ही दूरी पर बाज़ार !कहाँ अधिक समय लगता था !आँगन में चारपाई पर बैठाकर दया ने उन्हें पानी का ग्लास पकड़ाया और अंदर की ओर चल दीं | 

राजवती बीबी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि दया आखिर जा कहाँ रही थी?पानी पीकर अपनी सूती साड़ी के कोने को गीला करके उन्होंने अपने मुँह पर फिराया | 

“अब, ये क्या तमाशा है ?”राजवती पहले से ही भिनकी हुईं थीं | मुँह पोंछते हुए उन्होंने दया से कुछ पूछने की कोशिश की पर दया अंदर जा चुकी थी और राजवती मन व तन से इतनी थक चुकी थी कि कुछ भी समझने में अपने को असमर्थ पा रही थी| वो सहन में पड़ी बान की चारपाई पर लेट गईंऔर अन्दर से दया के आने की प्रतीक्षा करने लगीं |