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जेल में समिधा जो देखकर आ रही थी, असहज करने के लिए पर्याप्त था | ज़िंदगी यूँ किस प्रकार घिसटती है? क्या-क्या खेल दिखाती है, किस प्रकार के काम करवाती है? क्या नाटक करवाती है?
शेक्सपीयर की लिखी बात उसके ज़ेहन में गहरे समाई हुई थी | ’जीवन नाटक है ‘उस नाटक में भी न जाने कैसे-कैसे नाटक आदमी को खेलने व झेलने पड़ते हैं | उसका मन बेचारगी से भर उठा –कैदियों के लिए । उस पीटने वाली औरत के लिए, रौनक के लिए, उसके स्वयं के लिए या फिर जीवन से जुड़ी हर बात के लिए ?
उसका तो नाम समिधा है परंतु क्या इस सृष्टि में सभी जीवन-यज्ञ में समिधा बनकर अवतरित नहीं होते ? न जाने सृष्टिकर्ता ने इस सृष्टि का निर्माण क्यों किया होगा ? समिधा से खाना नहीं खाया गया, वह बेचैन हो चुकी थी |
जब सब लोग बंद बैरकों से बाहर निकल रहे थे तब उसकी दृष्टि मोटे सीख़चों में बंद निरीह से दिखने वाले क़ैदियों पर पड़ी जो न जाने कितने दिनों से बाबा आदम के बड़े-बड़े तालों में बंद थे और जिनकी आँखों में करुणा के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था | प्रश्नों के जाल उसके मस्तिष्क में उलझने लगे |
जीवन !जिसे बहुत महत्वपूर्ण कहा व समझा जाता है, उसका यह स्वरूप बहुत कठोर था, बहुत अमानवीय, बहुत असंवेदनशील ! वह उद्विग्न हो उठी | कमरे में लौटने के उपरांत भी वह असहज ही बनी रही | कुछ देर आराम करने के स्थान पर उद्विग्नता से कमरे में इधर-उधर टहलती रही | पुण्या उसकी मानसिक स्थिति समझ रही थी, उसने समिधा का ध्यान हटाने के लिए कहा;
“दीदी ! कितने बदमाश हैं –आपने ध्यान दिया वो लड़के जिनकी कमीज़ों के बटन खुले हुए थे और जो अपनी बनियाइन की कढ़ाई दिखाने के लिए कैमरे के आगे बार-बार उचक रहे थे –पता है क्या लिखा था उनकी बनियानों पर ? ”
समिधा की बेचैनी भीतर से बाहर की ओर झाँकी |
“हूँ—देखा तो था | ”
यूँ तो कैदियों के उस मेले में सभी उम्र के क़ैदी थे पर नौजवान कैदियों में से किसी की बनियाइन पर ‘आई लव यू’, किसी पर ‘पारो’, किसी पर कुछ और नाम लिखे थे, वो भी अँग्रेज़ी में –समिधा ने दो-एक से उनके बारे में पूछा भी था| किसी ने अपनी नाक पर नथनी का पोज़ बनाकर, किसी ने दिल पर हाथ रख साँस भरकर उसे बताने की चेष्टा की थी कि वो उनकी प्रेमिकाओं के नाम हैं |
उन युवकों की उम्र 18 से 20 की रही होगी, वे सभी बहुत उत्साहित लग रहे थे | उन्हें मानो अपने ऊपर लगे इल्ज़ाम का कोई मलाल ही नहीं था, बेबाक, बेफ़िक्र –बिंदास –जैसे ढिंढोरा पीट रहे हों –‘प्यार किया तो डरना क्या? ’परंतु समिधा का मन ताले में बंद उनकी कातर आँखों में सिमटकर रह गया था | नृत्य-साज़ों की आवाज़, थाली-चमचों से दी जाती ताल, सब कुछ सुनाई-दिखाई देकर भी उसके भीतर तक नहीं पहुँच पा रहा था |
संध्या के समय अलीराजपुर के कलेक्टर से भेंट का समय लिया गया था | उनसे मिलने पर वहाँ की और भी बहुत सी बातों का पता चला | जीवन-शैली, सुधार के लिए किए जाने वाले काम और भी न जाने क्या-क्या सरकार के द्वारा तैयार की जाने वाली योजनाओं पर विचार –विमर्श ---लेकिन उसका मन वहीं अटका-भटका रहा |
“हम और जेलर साहब मिलकर इन लोगों के सुधार के लिए न जाने कितने कार्यक्रम तैयार करते हैं, विद्वानों को व्यख्यानों के लिए निमंत्रित करते हैं, कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं पर इन पर कुछ असर ही नहीं पड़ता |
समिधा बैठी सब कुछ सुनती रही, वह उस चर्चा में भाग नहीं ले सकी | उसका मन रौनक की बात में अटककर रह गया था, पेट की आग ने ही तो उससे पिता का कत्ल करवाया था |
‘पहले पेट भरने का प्रबंध तो हो, बाद में व्याख्यान से प्रभाव पड़ेगा न ! भूखे पेट तो भगवान को भी याद नहीं किया जाता न!‘समिधा ने सोचा |
“चलिए दीदी, कहाँ खो गईं हैं ? समिधा ने देखा सब लोग कलेक्टर से हाथ मिलाकर जाने के लिए उठ खड़े हुए थे |
समिधा का कॉफ़ी का मग वहीं मेज़ पर भरा रखा था | सब चर्चा में इतने मशगूल थे कि किसी को भी इस बात का अहसास नहीं हुआ कि समिधा ने कॉफ़ी को हाथ तक नहीं लगाया था | सामने प्लेट में कुछ बिस्किट भी थे | सब कुछ अनछुआ | वह नमस्कार करके बाहर निकल आई |
दामले साहब तथा अन्य सभी लोग अपने काम से संतुष्ट थे, कलेक्टर ने भी भरपूर सहयोग दिया था, कुछ गाँवों में लोगों से मिलने तथा ‘शूट’ करने का प्रबंध भी कर दिया था | डायरेक्टर ने सबको सूचित कर दिया था कि अगले दिन सुबह –सुबह ही उनका काफ़िला कलेक्टर के द्वारा निर्देशित गाँवों की ओर चल पड़ेगा |
‘क्या यह सब एक खानापूरी नहीं है ? क्या सुधार हो जाएगा इस सबसे जो वे सब यहाँ करने आए हैं !!’समिधा का मन लगातार यही सोच रहा था |