आस्था Dhaivat Vala द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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आस्था

"थोड़ी देर तुम लोग संभाल लेना मैं एक दो घंटे में वापिस आती हूँ "
नर्स को कह कर डॉ तारा फटाफट से हॉस्पिटल की सीढिया उतर गई और चलने लगी, उसके चहेरे पर भारी थकान थी आंखे सूजी हुई थी पिछले ४८ घंटो से उसने झपकी तक नहीं ली थी।

तारा की उमर तक़रीबन ३० साल थी डॉक्टर बनने के बाद किसी बड़े शहर के नामी हॉस्पिटल में प्रक्टिस करने की बजाय उसने धरमपुर नाम के छोटे से आदिवासी गांव के पास बने हॉस्पिटल को चुना क्यों की बचपन से उसमे पापा के सेवा के संस्कार थे और गाँव में रहते रहते वो सबकी फेवरिट डॉ दीदी बन चुकी थी और ये गाँव मानो उसका घर बन गया था ,पर उसके हसते खेलते घर को मानो किसी की नज़र लग गई थी।

पुरे देश में जो महामारी फैली थी उसने धरमपुर को भी जपट में ले लिया था ,ऊपर से हॉस्पिटल में बहोत ही कम स्टाफ और सुविधा तो मानो जीरो ही थी इस छोटे से कबीले पे कौन सी सरकार ध्यान देती भला जितना हो सकता था तारा ने संभाला, रात दिन महेनत की पर इस महामारी की तो कोई दवाई भी न थी तारा इसके आगे लाचार हो गई उसके सामने उसके गांव वाले मर रहे थे उसके चहेरे पे उदासी सी छा गई वो लाचार हो गई
उसने जिस सेवा का प्रण लिया था मानो वो उसमे निष्फल जा रही थी। गाँव वालो का भी अपनी डॉ दीदी पे से मनो विश्वास उठ गया था वैसे भी किसी ने ये अफवा फैला दी थी की गाँव की देवी गांव वालो से रूठ कर चली गई है जब तक उसे वापस लाने का उपाय नहीं किआ जाएगा तब तक कोई डॉक्टर कुछ न कर सकेगा तारा अपने आप को निसहाय महसूस करने लगी ।
कुछ न कर सकने का भाव उसके दिमाग पे हावी हो गया वो इस तरह गाँव के लोगो को मरता हुआ नहीं देख सकती थी ।

थकी हुई तारा थोड़ा ब्रेक लेकर हॉस्पिटल से निकल गई और पहोच गई वंहा जंहा वो अक्सर अपना सुकून ढूंढ़ने जाया करती थी हॉस्पिटल से थोड़ी दूर तालाब के पास एक छोटा सा शिव मंदिर था तारा जब भी बहोत ज्यादा खुश हो या बहोत ज्यादा उदास तो अकसर यंहा आया करती थी
पर आज वो थक हार क यंहा आयी थी 'महिलाओ का प्रवेश गर्भगृह में वर्जित है' इस बोर्ड को नकारते हुए सीधी वो शिवलिंग के पाए जा कर बैठ गई आँखों में से आंसुओ की बरसात होने लगी उसने शिव लिंग को गले से लगा लिया और रोते हुए कहने लगी
" नहीं देख सकती मैं ये सब लोगो को मरते हुए या तो मुझे भी मार दे या ताकत दे के मैं इन सब को बचा सकूँ ऐसा मत करना के मेरी तुजपे से आस्था ही उठ जाए वैसे भी गाँव वालो को तो मुझपे रही ही नहीं "

रोती हुई तारा अपने महादेव से गाँव वालो की जान मांग रही थी पर लेकिन पिछले कई घंटो से थका हुआ शरीर कब तक साथ देता तारा बेहोश हो गई
तारा जब होश में तो उसने देखा की उसका सर आरती की थाली में पड़ा हुआ था उसके पुरे कपाल पे राख और सिंदूर भर गया था शिव का त्रिशूल उसके बाजु में गिरा हुआ था वो मुश्किल से उठ पा रही थी वो त्रिशूल का सहारा लेकथ वो उठी और जैसे तैसे कर के गर्भ गृह के बहार आई ।

उसका रूप उस वक्त किसी देवी की तरह था खुले बाल लाल आंखे , सर पे भस्म और सिंदूर हाथ में त्रिशूल बहार निकलते ही मंदिर में एक आदिवासी जोड़ा अपने छोटे से बच्चे को लिए रो रहा था तारा ने उस बच्चे को गोद में लिए बाजु पे पड़े कलश में से पानी पिलाया और तभी बच्चे ने आंखे खोल दी
"देवी" ये कहकर वो पुरुष तारा के पैर में लेट गया और औरत चिल्लाती हुई दौड़ कर सबसे कहने लगी
" देवी वापस आ गई , देवी वापस आ गई "
तारा कुछ कहने की हालत मैं नहीं थी ,
शाम तक पुरे गाँव में खबर आग की तरह फ़ैल गई के देवी वापस गाँव में आ गई है ।
आस्था मानो या चमत्कार लोग अब तारा के पास आने लगे और ठीक भी होने लगे पुरे गाँव में मानो उत्सव का माहौल फ़ैल गया था ।

तारा को लगा के वो लोगो को बताये के वो कोई देवी नहीं है पर उसके सामने जिस आस्था से लोग ठीक हो रहे थे उस आस्था को वो ठेस पहोचा कर लोगो को मौत के मुँह में नहीं डाल सकती थी ।

वो फिर डॉ दीदी से तारा देवी बन गई
डॉ तारा ने जितनी जाने बचायी उससे ज्यादा जाने तारा देवी बचा रही थी
या तो यूँ कहिए के उसकी आस्था...!!