वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 4 Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 4

भाग चार

अपने विद्रोही स्वभाव के चलते मैं हर जगह अनफ़िट हूँ | इसी वज़ह से न मेरा घर बस पाया, ना मैं परिवार बना सकी | एक हद के बाद मैं किसी की नहीं सुन सकती, न किसी को सह सकती हूँ, जबकि सहे बिना स्त्री का घर –परिवार नहीं बना रह सकता | झूठ, बेईमानी, धोखा मुझे असह्य है और किसी के दाब में रहना भी | हाँ, प्रेम से मुझे गुलाम बनाया जा सकता है और उसी प्रेम की तलाश में मैं ताउम्र भटकती रही, पर प्रेम होता तो न मिलता | इस संसार में सिर्फ स्वार्थ के लिए प्रेम किया जाता है | सोच -समझकर 'किया' ही जाता है, अब वह प्राकृतिक तरीके से 'होता' नहीं | जो उपयोगी न हो उससे कौन प्रेम करेगा ? मुझसे भी किसी ने प्रेम न किया और प्रेम- रहित जीवन मैं नहीं जी सकती | स्त्रियाँ जाने कैसे अपना पूरा जीवन एक ऐसे व्यक्ति के साथ गुजार लेती हैं, जिससे उन्हें प्यार नहीं होता या जो उन्हें प्यार नहीं करता | वैसे  पति-पत्नी के रिश्ते में एक अलग तरह का प्यार होता ही है । जिस्मानी रिश्ते उन्हें एक बंधन में बांध देते हैं, तभी तो बच्चे होते हैं उनकी परवरिश होती है | पर मेरी दृष्टि में वह जरूरत का रिश्ता है, प्रेम का नहीं | प्यार करने वाला पति अपनी पत्नी का सरेआम या एकांत में भी अपमान नहीं करता, उसकी इज्जत करता है | जो सम्मान नहीं कर सकता, वह प्रेम क्या खाक करेगा !
अपने अनुभवों से मैंने यही जाना है कि पुरूष प्यार कर ही नहीं सकता | बस देह पाने के लिए ही प्रेम का प्रदर्शन व प्रपंच कर सकता है | पत्नी से प्रेम वह इसलिए दिखाता है कि वह उसकी दैहिक, पारिवारिक व सामाजिक जरूरतें पूरी करती है | बिना उसके उसका जीवन ही नहीं चल सकता | वह उसके भी हिस्से के दायित्वों को निभाती है, इसलिए वह उसके लिए संपत्ति जुटाता है | उसे गहने-कपड़े, घर-गृहस्थी, मान-सम्मान, सामाजिक रूतबा सब दिलाता है ।  इससे उसको भी सुख और सम्मान मिलता है | 
माँ की मृत्यु से पहले मैं मौत के बारे में नहीं सोचती थी | ना बुढ़ापे की चिंता थी न मौत का डर| माँ बिलकुल स्वस्थ दिखती थी, वैसे उसे ब्लड-प्रेशर और शुगर दोनों था पर वह नियमित दवा लेती थी और अपनी सेहत का पूरा ध्यान रखती थी, इसलिए मैं भूल ही गयी थी कि वह अस्सी की हो चुकी है और कभी भी साथ छोड़ सकती है | माँ की मृत्यु की कल्पना मैं सपने में भी नहीं करती थी, इसलिए उसकी मौत एक भारी सदमे की तरह मेरे दिल-दिमाग में पैठ गया | एकाएक लगने लगा मैं बूढ़ी हो रही हूँ और कभी भी मेरी मृत्यु हो सकती है | 
जाने कितने दिन, कितने महीने मैं मौत के साये में जीती रही | धीरे -धीरे मैंने खुद को समझा लिया कि माँ अस्सी पार कर गई है तो मैं कम से कम साठ पार करके ही मरूँगी | जरूरी है खुद पर ध्यान देना और मैंने खुद पर ध्यान देना शुरू कर दिया | पर स्वभाव से आलसी होने के कारण कभी-कभार गलतियाँ कर जाती हूँ। 
वैसे बुढापे से बेखबरी मेरे व्यक्तित्व की जान है| इसलिए मुझे रोग-शोक की बातों से ऊब होती है । मुझे जिंदगी जीने आता है | मैं सोचती हूँ कि मैं हूँ तो सब है ।  ये धरती ...ये हवा..ये धूप , जल  और आकाश सब। 
मैं स्त्री स्वतन्त्रता की प्रबल पक्षधर हूँ | मुझे मेरा अपनापन निरन्तरता का एहसास देता है | निज का यही अपनापन मेरी पहचान है | मैं अपने व्यक्तित्व को किसी में विलीन होते नहीं देख सकती, इसीलिए मैं अपने सारे निर्णय स्वयं लेती हूँ । जीवन भर अकेले रहने का फैसला मेरा खुद का है | मैं अपने व्यक्तित्व की कीमत पर किसी को नहीं चाह सकती | मैं प्रेम करने के बाद भी शायद इसीलिए अकेली हूँ । मैं अपनी स्त्रीत्व का अपमान किसी भी कीमत पर नहीं सह सकती, इसीलिए अपना प्रेम खो देती हूँ | 
मैं जीवन -भर चलती रही, अकेले जीती रही | मैं न सुखी हूँ न दुखी हूँ । शायद सुख और दुख से बाहर हूँ ।  मैं किसी सुख की प्रतीक्षा नहीं करती। मैं आज में जीती हूँ। 
अक्सर मैं सोचती हूँ जो रिश्ते मर गए हैं उनके साथ जीने का क्या फायदा ? अतीत के व्यक्ति का कोई वजूद नहीं होता | प्यार तो जिंदगी का नाम है, मौत का नहीं, फिर क्यों मैं जिंदगी के साथ जी नहीं रही ? मृत्यु के साथ पल-पल मरना क्या ठीक बात है ? जो पल बीत चुके, जो प्यार जिंदगी से चला गया, उसे भूल जाना ही बेहतर है । जब जिंदगी नहीं रूकती तो फिर हम क्यों रूके ? 
मेरी जिंदगी में जो भी आए, सब कमजोर थे । वे मेरे चमकते वर्तमान को कुचलना चाहते थे। जब नहीं कुचल पाते थे, तो मेरा मनोबल तोड़ने के लिए मेरे अतीत से कीच-काई निकालकर मुझ पर फेंकते थे | वे मुझसे कहते-आपके बारे में यह सुना है मैंने ..वह सुना है । तो मैं कहती कि सुनते रहो भई। जिन्हें अंगूर नहीं मिलते वे सब उसे खट्टे ही कहते हैं। 
और यह भी ठीक है कि अंगूर तो हैं खट्टे ही सही | 

मैं जानती हूँ जो चेतन में बुरे होने की सुविधा चाहता है, वही दूसरों में बुराई देखता है ताकि उसे अपना छोटापन न अखरे | जिस मात्रा में अहंकार होता है उसी मात्रा में घृणा होती है | 
जिंदगी भी क्या-क्या रंग दिखाती है ? आदमी सोचता क्या है और हो क्या जाता है ? क्या सच ही आदमी के हाथ कुछ नहीं होता? अगर कुछ नहीं होता तो फिर उसे दोषी क्यों समझा जाता है ? नहीं समझती कि कोई आदमी बुरा या गलत करना चाहता है पर परिस्थितियां क्या कुछ नहीं करा लेतीं और आदमी मन में पश्चाताप करते हुए भी जीवन-भर समाज के समक्ष गलत को सही और पाप को पुण्य सिद्ध करने में लगा रहता है ? क्या इसलिए कि समाज सच को सच रूप में नहीं देख सकता ? वह हर कार्य को एक आवरण में देखने का आदी है । जबकि वह जानता है कि व्यक्ति वह नहीं है, जो दिख रहा है । दिख रहा सच भी सिर्फ उतना ही सच नहीं है | हर आदमी या तो खुद को या फिर समाज को बरगलाता रहता है और एक छद्म जीवन जीता है | 
पर मैंने तो एक जैसा जीवन जीना चाहा | कुछ और दिखने का प्रयास नहीं किया | मैं जो थी उसी रूप में समाज के सामने आई पर क्या समाज मुझे स्वीकार कर सका ? नहीं..., भला समाज यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि एक स्त्री इतनी प्रगतिशील हो | उसे तो स्त्री का परंपरावादी रूप, जिसमें वह दलित और मर्दित होती है, पसंद है | 
स्त्री के सभी पारंपरिक
गुण, प्रेम, साहस, ममता, करूणा, सुगढ़ता, सौंदर्य प्रचुरता से मुझमें विद्यमान हैं, फिर भी मुझे स्त्रियोचित  गुणों से शून्य कहा गया | भावुक होने के कारण मैं बार-बार ठगी गयी, पर जब भी कठोर हुई, गलत कही गई | कोमलता को लूटने और कठोरता को गरियाने वालों की मानसिकता से मैं परेशान होती रही | न मुझे अकेले जीने दिया जाता था और न कोई ज्यादा दूर तक मेरा साथ ही दे पाता था | सभी रिश्तों, सभी सम्बन्धों ने मात्र दो-दो कदम साथ चलकर मेरा साथ छोड़ दिया और मैं उम्र –भर के साथ के लिए तरसती रही | कोई  भी मेरे साथ निश्छल न हो सका, तो भला मैं कैसे किसी पर विश्वास करती ? सब कहते हैं मैं ही किसी से निभा नहीं पाती| किसी को सहना मेरे वश का नहीं | हो सकता है कमी मुझमें भी हो पर क्या लोग मुझे निभा सके ? मुझे सह सके ? हाँ, यह सच है कि मैं दूसरों की शर्तों पर नहीं जी सकती, छद्म नहीं जी सकती | प्रेम के अलावा कोई प्रलोभन मुझे नहीं बांध  सकता ...प्रेम भी सच्चा और निश्छल चाहती हूं | और वही तो नहीं है रिश्तों में, सम्बन्धों में, तो फिर अकेलापन ही क्या बुरा है ? पर अकेली स्त्री को भी तो नहीं देख सकता है यह समाज मानो उसकी इज्जत  चली जाएगी | ढह जाएगी उसकी शालीन सभ्यता !
मुझे एक संवेदनशील पुरूष की चाहत है, जो मेरी भावनाओं की कदर करे, मेरा ख्याल करे, इज्जत दे-दिलवाए पर कोई ऐसा न मिला | पति ने सिर्फ देह के स्तर पर मुझसे रिश्ता रखा, लोगों के सामने देह बनाकर पेश किया | जब भी मुझे उसकी जरूरत पड़ी वह दूर जा खड़ा हुआ | बहुत छोटी-छोटी थी मेरी खुशियाँ, उसने सब पर आरी चलाई फिर कैसे निभता रिश्ता ? प्रेमी तो उससे भी ज्यादा संवेदन-हीन निकले | सब-कुछ लेकर भी कुछ न देना उनकी आदत थी | मैं अब यह समझ चुकी हूँ कि मुझे कोई भी, चाहे वह देवता ही क्यों न हो, कुछ नहीं दे सकता | सभी मुझसे वह पाना चाहते है, जो उन्हें चाहिए । पर मैं जो चाहती हूँ, वह कहीं और किसी से नहीं मिलता | शायद वह इस संसार में है ही नहीं | शायद कोई एक मेरी आकांक्षाएं पूरी ही नहीं कर सकता | शायद मेरी जरूरत किसी भी आदमी की सामर्थ्य से अधिक है | शायद मैं असंभव को संभव करना चाहती हूँ | शायद तड़पना मेरी नियति है | शायद मैं बहुत बुरी हूँ शायद....शायद....शायद...| 

ज़िंदगी में इतने विरोधाभास जीने के बाद अपने ही शब्द बेगाने लगने लगे हैं । बच्चों को समझाते या फिर साहित्य-  संस्कृति की दुनिया में आदर्श बघारते वक्त अपनी आवाज किसी गहरे कुएं से आती लगती है | मन के किसी कोने से कोई कहता है –कितना निरर्थक है यह वक्तव्य !और मैंने जीवन में खुद इन सबका कितना पालन किया है ! दरअसल जिंदगी की हक़ीक़तें इतनी क्रूर होती हैं कि सारे आदर्श धरे रह जाते हैं | जिंदगी अपने हिसाब से आदर्श गढ़ती/तोड़ती चलती है। फिर मैं अपने आदर्श किसी पर क्यों लादूँ ? सभी अपनी जिंदगी अपने हिसाब से ही जीएंगे | जिंदगी ही उन्हें सिखाएगी | मैं ही किसी से कुछ कहाँ सीख पाई ? जो कुछ सीखा अपने -आप ठोकरें खा-खाकर सीखा| जिंदगी वह नहीं है जो निर्धारित कगारों से बंधी रहती है बल्कि किनारे तोड़कर आगे बढ़ जाने का नाम जिंदगी है | फिर हम क्यों लकीरें पीटते वहीं के वहीं खड़े रहें? जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप सबको बुरा लगता है फिर क्यों हम दूसरों के जीवन में घुसने की नाकाम कोशिश करते हैं | दूसरों के बिना चाहे ही उसके जीवन में जबर्दस्ती हस्तक्षेप करते हैं, राय देते हैं | इतना आसान नहीं होता सब कुछ, किसी के लिए भी | 
मुझ पर यह आरोप है कि मैं आँखें मूंदकर स्त्री का समर्थन करती हूँ और पुरूषों को पानी पी-पीकर कोसती हूँ | मुझे इस आरोप पर हँसी आती है क्योंकि ऐसा बिलकुल नहीं है | अगर मैं पुरूष विरोधी होती तो क्या किसी पुरूष से प्रेम कर पाती? और प्रेम कविताएं !वह तो कदापि नहीं लिखती | पुरूष मुझे उसी तरह जरूरी व प्रिय लगता है जैसे किसी पुरूष को स्त्री क्योंकि यही स्वाभाविक है । स्त्री और पुरूष का आपसी आकर्षण आदिम है | 
वैसे मैं यह भी बता दूँ कि मुझे जिंदगी में सर्वाधिक दु:ख स्त्रियों से ही मिले हैं | मेरी माँ ने स्त्री होने के बावजूद मुझे गर्भ में ही मारने की कोशिश की, हमेशा मुझे भाई से कमतर समझा | भाई को सब कुछ मुझसे पहले और अच्छा दिया | बचपन में जब भी भाई से मेरी लड़ाई हुई, मुझे ही दोषी ठहराया, मारा-पीटा...गंदी-गंदी गालियां दीं | मैं उस दिन बहुत रोई थी, जब माँ ने मेरी किताबों की छोटी -सी आलमारी, जो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय थी, जबरन खाली कराकर भाई को जूते-चप्पल रखने को दे दिया था | वह मुझसे हमेशा कहती –यह घर तुम्हारा नहीं, भाई का है | मैं जब भी स्कूल-कॉलेज से कोई पुरस्कार लेकर घर आती तो माँ कहती –‘भाई को मिला होता तब खुशी होती | ’ मैं रोकर रह जाती | बदमाश भाई माँ के लिए शुद्ध घी का वह लड्डू था, जो टेढ़ा होने के बावजूद लाभकारी होता है और मैं निगोड़ी दूसरी लड़कियों की तरह ऐसा पाप थी, जिसके जन्म लेते ही धरती धंस गयी थी | भाई को इतना दूध पिलाया जाता कि वह उल्टियाँ कर देता और मैं दुधकट्टू होने के बावजूद दूध के लिए तरसती रहती | परिणाम स्वरूप शरीर में कैल्शियम की इतनी कमी हुई कि कम उम्र में ही आँखों पर चश्मा चढ़ गया | इन सबके बावजूद मैं अपनी माँ को बहुत प्यार करती थी | माँ का मुझ पर बहुत असर भी है | बचपन में माँ से जरूर शिकायत रही| उनकी बातों से, पक्षपात पूर्ण रवैये से मुझे तकलीफ होती थी पर बड़ी हो जाने के बाद मुझे समझ में आ गया कि माँ की ऐसी बातें अनोखी नहीं हैं | उन दिनों गाँव-कस्बों व छोटे शहरों के निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में बेटे –बेटी के बीच का यह फर्क आम बात थी | यही परंपरा थी, रिवाज था, जिसे हर बेटी अपना मुकद्दर मान लेती थी | लड़की को उन दिनों ‘चिट्ठी लिखने-पढ़ने’ तक की शिक्षा का ही चलन था | मेरी माँ ने कम से कम ये तो सोचा कि बेटी मैट्रिक पास कर ले, ताकि उनका कद थोड़ा ऊंचा हो जाए | मैं खानदान में पहली लड़की थी जिसने हाईस्कूल पास किया था| अब यह एक लंबी कहानी है कि आगे पढ़ने के लिए मुझे क्या-क्या झेलना पड़ा ? किस तरह से मैंने जिद करके उच्च- शिक्षा के अधिकार को हासिल किया और हमेशा के लिए ‘बिगड़ी लड़की’ की उपाधि पा ली थी | 
माँ का भी क्या दोष, जबकि पिता ही लड़की की शिक्षा के खिलाफ थे | माँ समाज के उन्हीं जड़ नियमों का पालन कर रही थी, जो उन दिनों प्रचलित थी | माँ को विरासत में जो मिला था, उससे थोड़ा बेहतर ही कर रही थी | ’पुत्र बिना गति नहीं ‘–की धारणा तो आज भी समाज में जड़ जमाए हुए है, फिर उस समय का अनुमान लगाया जा सकता है | 
नानी तो माँ से भी ज्यादा रूढ़ियों में जकड़ी हुई थी| सुना करती थी नानी व दादी बच्चों को माँ से ज्यादा प्यार करती हैं | दादी तो याद नहीं शायद वह मेरे जन्म से पहले ही दिवंगत हो गयी थीं | उनके बहुत पिछड़े गाँव में हम कभी जाते भी नहीं थे | हम तो नानी के कस्बे में रहते थे | नानी ने तो मेरे जन्म लेते ही मेरा नाम कलूटी रख दिया | जो मेरे पुकार का नाम ही बन गया | छोटे भाई-बहन भी मुझे उसी नाम से चिढ़ाते | मैं दुखी होकर अकेले में काले कृष्ण से शिकायत करती | उन दिनों एक गाना प्रचलन में था | उसी को भजन की तरह गाती और रोती-कृष्ना वो काले कृष्ना! तूने ये क्या किया कैसा बदला लिया रूप देकर मुझे अपना | नानी पर मुझे गुस्सा आता पर उनका भी क्या दोष था ? वे तो काला अक्षर भैंस बराबर थीं | वे लड़का चाह रही थीं और मैं लड़की हो गयी थी और वो भी साँवली | उन दिनों लड़की का गौर वर्ण विवाह के लिए जरूरी था, वह भी निम्न आय वर्ग वालों के लिए | यह वर्ग दहेज तो दे नहीं पाता था, लड़की के सुंदर होने पर किसी तरह शादी हो जाती थी | मुझे गोरा बनाने के लिए जाने –क्या उपाय किए जाते | सच भी है जिस समाज में लड़की के लिए शादी के अलावा कोई विकल्प न हो, वहाँ लड़की को विवाह योग्य बनाने के सिवा घर की बड़ी-बुढियों के पास काम ही क्या था ? 
मैं बड़ी हुई ....आत्मनिर्भर हुई | कई पुरुष मेरे मित्र थे | मैंने प्यार भी किया लेकिन मेरे मित्रों को और प्रेमी को दूसरी स्त्रियों ने छीन लिया| पर मैंने उन स्त्रियों को दोषी करार नहीं दिया क्योंकि मैं मानती थी कि जिन पेड़ों की जड़ें कमजोर होती हैं, वे ही आँधी में उखड़ते हैं | मुझसे कोई प्रेम नहीं कर सका | कर भी कैसे सकता था ? विचारों से स्वतंत्र स्त्री प्रेम या विवाह दोनों के लिए अनफ़िट मानी जाती है | 
आज भी मेरी सर्वाधिक आलोचना स्त्रियाँ ही करती हैं | साथ काम करने वाली अध्यापिकाएँ अकारण मेरे खिलाफ जहर उगलती रहती हैं | पास-पड़ोस की स्त्रियाँ अवसर की तलाश में रहती हैं | साहित्य में भी यह अपवाद नहीं | मैंने हमेशा महसूस किया है कि स्त्रियाँ मेरे प्रति एक अजीब ईर्ष्या -भाव से ग्रस्त रहती हैं और जब भी अवसर मिलता है वे मुझ पर आघात करने या मेरा नुकसान करने से बाज़ नहीं आतीं| पर मैं इन सबके लिए उन्हें दोषी नहीं मानती | जानती हूँ कि मेरी स्वतंत्र सत्ता उन्हें ईर्ष्याग्रस्त करती है | वे भी स्वतंत्र होना चाहती है, पर हो नहीं पातीं | उन्हें लगता है मुझे यह आसानी से मिला है| वे क्या जाने कि इस आजादी की कितनी कीमत देनी पड़ी है मुझे ? इस बंद समाज में स्त्री की आजादी को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता | आजाद स्त्री अजीब मानी जाती है ...खतरा मानी जाती है | तन-मन, विचारों, भावनाओं से स्वतंत्र स्त्री पुरूष की आँखों में चुभती है और वे अपनी स्त्रियों को ऐसी स्त्री के खिलाफ करते रहते हैं | और वे स्त्रियाँ भी अपने पुरूषों के विचारों का वहन करती रहती हैं | उनके अपने कोई विचार बनने ही नहीं दिया जाता और उन्हें इसका एहसास तक नहीं है।  वे सोई हुई हैं उन्हें जगाने के लिए ही मैंने यह कलम उठाई है | पुरूषों से लड़ाई मोल ली है क्योंकि मैं मानती हूँ कि हर हाल में स्त्रियाँ शिकार हैं, वे शिकारी हो ही नहीं सकतीं | उन्हें जागना ही होगा |