वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 3 Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 3

भाग तीन

मैं क्या करूं भगवान क्या करूँ, कैसे रहूँ तेरी इस दुनिया में ? मुझे अभी कितनी पीड़ा सहनी पड़ेगी | कितना अपमान झेलना पड़ेगा ? अब और सहा नहीं जाता | तूने मेरे भाग्य में कितने ढेर –सारे दुख-दर्द लिख दिए है  | मेरे भीतर की स्त्री छटपटा रही है | मेरा कहीं कोई संबल नहीं | कोई मुझे प्यार नहीं करता | क्या तुम भी मुझे प्यार नहीं करते ? क्या तुम्हें भी मुझसे गुरेज है ? क्यों नहीं मुझे अपने पास बुला लेते ? अगर तुम कहीं हो तो मेरी पुकार सुन लो | मुझे अपने विशाल वक्ष में छुपा लो भगवान | मेरी रक्षा करो | मुझे अपनी शरण में ले लो | 
मैंने तेरे बनाए बंदों में प्यार ढूंढा और बदले में ठोकरे खाईं | सबने इस शरीर को सराहा | सबने मुझसे कुछ मांगा, कुछ पाना चाहा| मुझे किसी ने कुछ नहीं दिया | मैंने सब कुछ खो दिया | मेरा सर्वस्व छीन लिया गया और बदले में ढेर सारे इल्जाम, जख्म और आँसू दे दिए गए | फिर भी मैंने तेरी दी जिंदगी की कदर की और हँसते हुए जीती रही | क्या जीना अपराध है? तूने मुझे जन्म दिया ही क्यों ? जीने के लिए मेरे पास बचा ही क्या है? तुम ही बताओ कि मैं क्यों जी रही हूँ  ? क्या मैं इस जीवन को समाप्त कर लूँ ? ये पाप तो न होगा | पर कैसे समाप्त करूँ ये जीवन कैसे ? पर मन से यह भी आवाज उठ रही है कि मन को यातना देने वाले अपमानजनक विचारों को स्पष्ट करने से पहले कोई निर्णय लेना ठीक नहीं है | 
सीपी को तोड़कर जैसे मोती बाहर आ जाता है | मैं भी अपने अतीत को चूर-चूर कर देना चाहती थी, पर उस टूटी हुई सीपी के नन्हें-नन्हें कण मेरे रोम-रोम में हरदम चुभते हैं | घायल मन और शरीर लिए मैं भटक रही हूँ | जो चीज भूलना चाहती हूँ, उसे लोग छाया की तरह मेरे पीछे लगा देते हैं | जंजीर से बाँधकर वे मुझे बार-बार अतीत की अँधेरी गुफाओं में भटकने के लिए छोड़ देते हैं | 
प्रेमचंद के शब्दों में कहूँ तो मैंने प्रेम के विविध रूपों को देख लिया है | कहीं क्रीडा है कहीं विनोद है, कहीं कुत्सा, कहीं लालसा तो कहीं उच्छृंखलता पर कहीं वह सहृदयता नहीं है जो प्रेम का मूल है | 
लीक से हटकर चलना भी कभी-कभी कितना उलझन भरा होता है विशेषकर जिस लक्ष्य के लिए कदम उठे, वह लक्ष्य ही पथभ्रष्ट कहलाने लगे तब.. कहीं कुछ टूट जाता है | मेरे हृदय में सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना है सिर्फ धर्म के आधार पर किसी मनुष्य को अच्छा –बुरा कहना मुझे सालता है | प्रत्येक धर्म के मूल में प्रेम और विश्वास है और यही मानवता को जिंदा रखता है | धर्म के प्रति मेरी उदारता सिर्फ वाचा न होकर मनसा और कर्मणा भी है | सर्वप्रथम मैंने एक हरिजन को मित्र बनाया | उसे किसी भी स्तर पर भेदभाव नहीं किया | न खान-पान, न भावना के स्तर पर | मेरी अन्य बहनें और भाई तथा आस-पास के लोग नाक-भौंह सिकोड़ते रहे पर मैंने उनकी परवाह नहीं की | उसकी कलाई पर रक्षा बांधकर अपना मित्र-भाई कहा ...समझा और निबाहा | विद्रोह की चिंगारी मेरे मन में शायद माँ के पेट से ही है | माँ की पुत्र-कामना को मैं गलत समझती थी | जो गलत है उसे मैं किसी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकती इसलिए अब तक के जीवन में मैंने अनेक कष्ट झेले हैं और दुनिया की दृष्टि में मेरा जीवन असफल कहा जा सकता है | लोग मुझे बेवकूफ समझते हैं ...कहते हैं और मैं उन लोगों की बेवकूफी पर मन ही मन हँसती हूँ | जिंदगी को कितने सीमित दायरे में देखते हैं लोग | धूर्तता, चालाकी और बैंक-बैलेंस को सफलता मनाने वाले क्या समझे कि मैं किस धन से धनवती हूँ ? अंत तक अपने आदर्श को निबाह ले जाना, कठिन संघर्षों में तप कर स्वर्ण बनना, अनुभवों से धनी होना, दुनिया से कुछ न लेकर बस ‘देना’ क्या कम सुख है ? मेरी जिंदगी का एक हिस्सा ही लोगों को पागल बना देने के लिए पर्याप्त है और मैंने तो कई जिंदगियाँ जी हैं | मुझे गर्व है कि इन सारी ज़िंदगियों में मैंने किसी के साथ अन्याय नहीं किया, किसी को धोखा नहीं दिया | दिया ही, लिया कुछ नहीं | प्रेम-नफरत, सत्य-असत्य, कोमलता-कठोरता हर भाव को चरमावस्था के साथ जीया है मैंने और अपने आँचल को हंसी के ढेर-सारे फूलों और आंसुओं के अनगिनत मोतियों से भर लिया है | सोचती हूँ कि शेष जीवन इनके सहारे हँसते-रोते गुजर जाएगा | 
मुझमें अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने की ललक और हिम्मत है| मैं अपनी अस्मिता, पृथक अस्तित्व, आत्म- रक्षा के लिए सजग और सतर्क हूँ ।  मेरी अपनी निजता मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है  | मैं अपनी शांति और सुख के लिए समझौते नहीं कर सकती हूँ | 
जिस समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी वहीं खड़ा है, जहां औरत की मौत पर माथा श्रद्धा से झुक जाता है और विपरीत परिस्थितियों से लड़कर जिंदगी हासिल करती औरत को देखकर शर्म आती हो, वहाँ जीना कितना मुश्किल है | समाज ने स्त्रियों के लिए कुछ साँचे बना रखे हैं जैसे अच्छी माँ ....सुगढ़ गृहणी और फरमावदार बीबी, जो इन साँचों में फिट हो जाती है उसकी जिंदगी की गाड़ी आराम से चलती रहती है पर मुझ जैसी कुछ ऐसी भी होती हैं जो सिर्फ फिट होने को तैयार नहीं होतीं –वे अपने लिए अधिकार के साथ जगह चाहती हैं, उनकी दुर्दशा होती है | 
मैं एक दुहरा जीवन जीती रही हूँ भीतर की दुनिया कचपची, उलझी-जटिल और बाहर की दुनिया में सब वैसा ही | रूटीन बंधा-बँधाया जीवन | 
औरतें स्पर्श, गंध, रंग, प्रकाश, ध्वनि सबकी सुगंधी का एहसास करती हैं और इन अहसासों को अपने देह के स्तर पर जीती हैं | जब मैं एक साथ इतनी भूमिकाएँ निभाती हूँ तो क्या मुझे एक सपना देखने का अधिकार नहीं है? मेरे भीतर एक धर्म-युद्ध चलता रहता है जिसमें पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ मैं खुद हूँ | अपने समर्थन में भी और विरोध में भी | 
मेरे हृदय में सात समंदर का जल भरा है सहानुभूति से कहीं भी बरस पड़ता है | कहीं इसका सारा जल आँखों के रास्ते बह न जाए | कभी –कभी मैं अपने -आप को आसमान जैसा पाती हूँ जो इतना विशालकाय एवं सामर्थ्यवान होने के बावजूद छत की तरह किसी को छांव नहीं दे सकता | उस समंदर जैसा पाती हूँ जो अथाह जलराशि का अधिपति होकर भी किसी प्यासे की प्यास नहीं बुझा सकता, बस प्यासे की दशा एवं बेबसी पर खारे आँसू बहा सकता है | मैं या तो गरम दूध की तरह उबलती रहती हूँ या बर्फ की तरह ठंडी रहती हूँ | 
मेरी पीड़ा का इतिहास कौन जान सकता है मेरा अपराध यही है कि मैं जीना चाहती हूँ और इसी अपराध के लिए इतना दंड भुगत रही हूँ भाग्य और समाज दोनों से एक साथ संघर्ष कर मेरी जिजीविषा लहूलुहान हो उठी है | 
जो घट गया है वह मेरी स्मृति में स्पष्टता और गहराई से अंकित है | समय ने उसकी एक भी रेखा या रंगत नहीं मिटाई है | इस समाज में ऐसे-ऐसे जोंक हैं जो वह भी चूसने को तैयार हैं जो मुझमें शेष है ...मेरी ऊष्मा ...मेरा जीवन –रस और....इस धरती पर एक भी ऐसा प्राणी नहीं है जो मुझे पूरी तरह समझता हो | कुछ लोग मुझे उससे बुरा समझते हैं जितनी मैं हूँ और कुछ उससे अच्छा जितनी मैं हूँ | दोनों ही गलत हैं क्या इसके बाद भी जीने की जहमत उठाने का कोई फायदा है ? फिर भी मैं जीए जा रही हूँ ...उत्सुकता वश किसी चीज की तलाश में । यह कितना हास्यास्पद और तकलीफ देह है पर मैं अभी मर भी नहीं सकती क्योंकि अपने दुखों के प्याले को तलछट तक खाली नहीं किया है |  

कभी –कभी मुझे लगता है कि मैं विभक्त हूँ | मेरे भीतर और बाहर की स्त्री अलग हैं | 
मेरे भीतर की स्त्री घबराई, डरी, भयभीत, रोतड़ी एवं परम्पराओं व संस्कारों से जकड़ी हुई है | वह पराए पुरूष के स्पर्श से घबराती है | जो उसे अच्छा लगे, उसके पास रहते हुए भी सिकुड़ी रहती है | विवाहित दंपति के बीच नहीं आना चाहती, न ही अपने किसी स्वतंत्र कार्य से परिवार को अपमानित व तिरस्कृत देख सकती है | वह अपने विषय में झूठे या सच्चे आरोपों का ताना-बाना नहीं बुनना चाहती । वह न तो डेयरिंग है, न साहसी, न बोल्ड और न ही स्वतंत्र | पर बाहर की स्त्री बहुत ही निर्भीक है | अत्याचार के छोटे -बड़े तंत्र को तोड़ने में अग्रणी, उत्पीड़ित औरत को देखकर बिफर पड़ने वाली | प्यार में सौदेबाजी या जबर्दस्ती उसे पसंद नहीं, ना ही नुक्स ढूंढकर तिरस्कृत करने वाले लोगों को वह माफ कर पाती है | वह चाहती है कि जो उसे बुरा समझते हैं उसे अच्छा न कहें, पर वह जैसी है, वैसी तो स्वीकार करे | बाहर और भीतर की स्त्री के इस द्वंद में मैं फंस जाती हूँ | 
मेरे भीतर की स्त्री प्रेमी से अंतरंग रिश्ते रखकर परेशान होती है पर बाहर की स्त्री जो प्रेमी के साथ होती है, वह परेशान नहीं होती है | मुझे लगता है कि मेरे भीतर दूसरी, तीसरी, चौथी और भी कई स्त्रियाँ हैं  | एक दूसरे के साथ भी और अलग भी | मैं अपनी स्त्री के मनोविज्ञान को नहीं समझ पा रही हूँ| 
मेरे भीतर की एक दूसरी स्त्री मुझे समझाती है कि क्यों किसी के जरा-सा छू लेने मात्र से तू उसकी पालतू हो जाती हो ? धोखा देने वाले को गलत कहकर उसे भूल जाना बेहतर है | 
वह मुझे मूर्ख कहती है, जो अब भी उस प्रेमी को याद करती हूँ, जिसने मुझसे खुद ही सारे संपर्क खत्म कर लिए हैं | प्रेम में धोखा खाकर उसकी प्रतिक्रिया विस्फोटक हो गयी है | पर मैं समझती हूँ कि समस्या चाहे एक –सी हो, उसका समाधान सब अपनी अनुरूपता में करते हैं | माना कि वह एक महत्वाकांक्षी, स्वार्थी, नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यावहारिक युवक है, जो व्यक्ति स्त्री से प्रभावित होकर कुछ कदम साथ तो चल लेता है, पर निभा नहीं पाता | पर मैं आधुनिक, प्रगतिशील, जुझारू व्यक्ति स्त्री होते हुए भी अंतत: एक औरत ही हूँ | प्रेम में मीरा, राधा की परंपरा का निर्वाह करने वाली | जिस भी स्थिति में हूँ उससे अपने-आप ही बाहर आना है मुझे | अपनी लड़ाई खुद लड़नी है और जीतनी भी है | मेरा हथियार कलम है | लेखन आत्मबोध से लिखे जाने पर ही प्रभावी होता है | मैं अपनी औरत की आवाज खुद बनूँगी | मैंने लेखन में रमकर अपनी समस्या का समाधान किया है पर इस रमने में भी एक कसक है कि उसने मुझे अपनी स्मृतियों में मार दिया है पर मैं ऐसा नहीं करूंगी | मैं उसे अपने सृजन में जिंदा रखूंगी |