वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 6 - अंतिम भाग Ranjana Jaiswal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वर्जित व्योम में उड़ती स्त्री - 6 - अंतिम भाग

भाग छह

रात के एक बजे ही मेरी नींद खुल गई। आंधी आज फिर प्रचंड रूप में तांडव मचा रही थी। इस बार उसके साथ बिजली .तेज बारिश और भयंकर आवाज़ में गरजते बादल भी थे। जैसे पूरी तैयारी, पूरी फ़ौज के साथ हमला बोला गया हो। छतों से टीन, फाइवर, घास -फूस के छज्जे उड़कर दूर- दूर जा पड़े थे। भड़ -भड़ तड़ -तड़ की आवाज़ आ रही थी। प्राचीन शास्त्र में मेघ -नाद को पुरूष सौंदर्य का मापदंड माना गया है, पर इस समय तो उनका नाद दिल को दहला दे रहा है। लगता है वे फट कर गिर ही पड़ेंगे। सुबह -शाम आकाश की गोद में खेलने वाले, बार -बार रंग -रूप बदलते, चाँद, सूरज, हवा के साथ धमाचौकड़ी करते बादलों को देखकर कौन कह सकता है कि उनके दिल में इतनी आग है ...इतना गुस्सा है.. इतनी विद्युत है!
किसके आदेश से वे काली फौजी बर्दी पहनकर आकाश रूपी युद्ध के मैदान में उतर आते हैं, भयंकर गर्जना करके शत्रु को ललकारते हैं ...बिजली की तलवार चमकाते हैं ।  बारिश-बूंदों के तीरों की बौछार करते हैं और आंधी की गदा घुमाते हैं। आख़िर उनका युद्ध किससे है ? उनके सामने तो कोई शत्रु नहीं दिखता या ये भी हो सकता है  टिकता न हो, इसलिए नहीं दिखता। 
धरती से उनकी कोई शत्रुता नहीं । आकाश उनका क्षेत्र है। क्या उनकी लड़ाई धरती -वासियों से हैं, जिन्होंने धरती को नरक बना रखा है? क्या वे भी धरती को सूरज की तरह ही प्यार करते हैं और उसको स्वच्छ, शीतल, उर्वर, प्रदूषणमुक्त और स्वर्ग -सा सुंदर बनाना चाहते हैं!
आह, यह प्यार!क्या है ये!क्यों इसके लिए मन उदास रहता है सूनापन महसूस करता है । सब कुछ होने के बाद भी इंसान को अभाव, अपूर्णता का अहसास क्यों होता है! इसकी जैविक व भौतिक व्याख्या यह की जाती है कि स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु इसके जिम्मेदार हैं, जिनके द्वारा प्रकृति सृष्टि को अनवरत रूप से चलाना चाहती है। प्रकृति ने जीव-मात्र की प्रकृति में विपरीत के प्रति आकर्षण का बीजारोपण इसीलिए कर दिया है, जो एक उम्र के बाद सभी जीवों में स्वत: प्रस्फुटित हो जाता है। इसे किसी को सिखाना नहीं पड़ता। मनुष्य पढ़ना -लिखना मशक्कत से सिखता है ।  हर ज्ञान को परिश्रम से हासिल करता है । सभ्य सुसंस्कृत बनने में भी उसे समय लगता है, पर प्रेम करना उसे सीखना नहीं पड़ता। कीट- पतंगों, पशु -पक्षियों के कौन से लव- गुरू होते हैं? वह अपने साथी का आकर्षण ही है, जो आलसी अजगर में मीलों की यात्रा करने की स्फूर्ति भर देता है।  साधारण रूप -रंग वाली मोरनी को ख़ूबसूरत पंखों वाला मोर नाच -नाचकर रिझाता है? आपस में लड़ते -झगड़ते रहने वाले नर अपनी मादा के प्रति इतने प्रेमिल हो जाते हैं। 
हां, यह वही आकर्षण है जो प्रकृति ने सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए एक अचूक मंत्र की तरह इस्तेमाल किया है। साधारण जीवों की अपेक्षा मनुष्य ज्यादा सभ्य -सुसंस्कृत है इसलिए उसने उसे सुंदर तरीके से अपने जीवन में स्थान दिया है उसे एक आकर्षक नाम दिया है--प्रेम!
वह मनुष्य है जिसने प्रेम को कई रूपों में देखा है। उसे विविध नाम दिया है । उसके लिए प्रेम सिर्फ भौतिक नहीं है आध्यात्मिक भी है, मानवीय भी । उसका प्रेम सिर्फ देह का आकर्षण नहीं, मन आत्मा को तृप्त करने का साधन भी है। यह मनुष्य मात्र के प्रति ही नहीं, जीव -जंतुओं, पेड़ -पौधे से लेकर ईश्वर तक है। वह मनुष्य ही है जो देह -तृप्ति के बाद भी एक -दूसरे से मानसिक रूप से जुड़ा रहता है। साथी की जरूरत उसे सिर्फ़ सहवास के लिए नहीं होती, बल्कि जीवन को आगे बढ़ाने और उसे पूर्णता प्रदान करने के लिए भी होती है। 
पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक, आर्थिक, मानवीय यहां तक कि आध्यात्मिक जरूरतें भी एक- दूसरे के प्रेम से पूरी होती हैं।  फिर क्यों सन्त- महात्मा इसे मुक्ति में अवरोधक कहकर, इसे माया मानकर इससे दूर रहने की सलाह देते रहे हैं ? 
इंद्रियों का निग्रह अच्छी बात है। सभी धर्म -सम्प्रदायों में इसे अनिवार्य माना गया पर प्रेम पर तो सबका विश्वास रहा है। सभी मानते हैं कि ईश्वर को प्रेम द्वारा ही पाया जा सकता है फिर वे प्रेम के ख़िलाफ़ क्यों हो जाते हैं? प्रेम को भले ही भौतिक, आध्यात्मिक में विभेदों में उलझाया जाए पर भौतिक व्याख्याओं द्वारा ही तो अध्यात्म को समझाया जाता है। मीरा कृष्ण नामक किसी पुरुष की दीवानी न होकर भगवान कृष्ण की दीवानी थीं, पर थीं तो दीवानी ही । उनकी प्रेमभिव्यक्तियाँ किसी हीर, लैला, , सोहनी, जूलियट आदि से अलग कहाँ थीं!वही उदासी, तड़प, सानिध्य की चाह, एकनिष्ठता, समर्पण, उत्सर्ग!कबीर भी तो अपने राम के लिए 'बहुरिया' बने रहते थे और उनके लिए तड़पते हुए कहते थे---वो दिन कब आएंगे भाई। जा कारन यह देह धरि है मिलबो अंग लगाई। 
अध्यात्म में साधक को आत्मा -परमात्मा के मिलन से परमानन्द मिलता है तो स्त्री पुरुष को भी तो दैहिक मिलन से चरमानन्द की प्राप्ति होती है। 
मुझे लगता है कि प्रेम प्रेम होता है चाहे उसे जिस भी रूप में देखा जाए । माँ जब अपने नवजात शिशु को पहली बार अपने सीने से लगाती है, वह सुख तो ब्रह्मानन्द से कम नहीं होता । सूरदास भी यशोदा के लिए कह उठते हैं---जो सुख सुर, देव, मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनि पावै। यसोदा हरि पालने झुलावै। 
हां, एक अंतर जरूर आया है प्रेम में । आज की पीढ़ी कहती है 'लव इन फॉल' । वह नहीं जानती कि प्रेम में मनुष्य गिरता नहीं, वह तो उसमें बहुत ऊंचाई पर पहुँच जाता है। इतनी ऊंचाई पर कि सारे भेद -भाव स्वतः तिरोहित हो जाते हैं।  उसकी आत्मा का इतना विकास हो जाता है कि सारी सृष्टि उसमें समाहित हो जाती है। वह अपने प्रिय में इस तरह रम जाता है कि मिलन -वियोग, नजदीकी- दूरी, पाना- खोना सब बेमानी हो जाता है। राधा कहाँ कृष्ण के साथ रह पाईं? मीरा ने कब कृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन पाए ? पर दोनों का प्रेम अमर है एक अमर प्रेमिका हुई दूसरी महान भक्त। प्रेम में देह साधन जरूर है साध्य नहीं। प्रेम की दैहिक अनुभूतियां जरूर होती हैं पर उससे ज्यादा मानसिक और आत्मिक अनुभूतियां होती हैं। प्रेम तो सूक्ष्म भाव है संवेद है वह खुद को अभिव्यक्त देह के माध्यम से ही कर पाता है, इसलिए देह से परे प्रेम की बात वायवीय है। देह सब कुछ नहीं पर कुछ तो है।  साधक... और भक्तों के ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति भी तो देह के माध्यम से ही तो ज्ञात हुई। अगर शास्त्र, पुराण और अन्य ग्रन्थ नहीं लिखे गए होते तो मनुष्य को आध्यात्म, ब्रह्मानन्द आदि के बारे में कैसे पता चलता? उनके हृदय के भाव, आत्म- अनुभव किसी की वाणी, किसी की लेखनी द्वारा ही तो अस्तित्व में आए होंगे और वाणी या लेखनी का इस्तेमाल किसी मनुष्य देह ने ही किया होगा। 
मुझे बचपन से ही गुस्सा बहुत आता है। मुझे लगता है कि व्यक्ति, परिवार, समाज या संसार से मुझे जो मिलना चाहिए, नहीं मिला। मेरे साथ  हर जगह... हर क्षेत्र में अन्याय किया गया । हर जगह मेरा हक छीनकर किसी और को दे दिया गया और मैं कुछ कर नहीं पाई क्योंकि मैं अपने हक के लिए लड़ने की ताकत नहीं संजों पाई। मैं सोचती रही कि कोई मेरे लिए लड़े ...मेरा अधिकार दिलाए पर कोई ऐसा क्यों करता!मेरी लड़ाई से किसका स्वार्थ सिद्ध होने को था ? जिसने स्वार्थ सिद्ध भी किया, उसने भी तो मेरे लिए कुछ नहीं किया। 
मेरे माता -पिता ने मुझे लड़की रूप में पैदा होने की सज़ा दी। मेरा सारा अधिकार मेरे अनुज को दे दिया क्योंकि वह लड़का था। उनका वंश आगे बढ़ाने वाला, उनकी चिता को आग देकर उन्हें मोक्ष देने वाला। 'सद्गति पुत्री से नहीं मिलती'-उनकी इस धारणा को मैं उनके अंत समय तक कहाँ तोड़ पाई!
मेरी बहनें, जिनके लिए मैंने आगे बढ़ने का रास्ता खोला। हज़ार गालियां सुनकर और 'बिगड़ी लड़की' का खिताब पाकर भी लड़कियों के शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ गई, ताकि मेरी अनुजाओं के लिए नई दुनिया का मार्ग खुल सके, वे अंधेरी दुनिया से उजली दुनिया में आ सके, पर उन्होंने खुद उस रास्ते की कद्र न की।  उन्हें वही घिसा -पिटा, पारम्परिक रास्ता भाया। उनके लिए अच्छी लड़की कहलाने का लोभ ज्यादा बड़ा था, फिर भी उनमें शिक्षा का प्रतिशत दादी, नानी, माँ की अपेक्षा तो बढ़ा ही। 
मुझे उन पर गुस्सा इसलिए आता था कि वे शारीरिक सुंदरता को निखारने में ही लगी रहीं । कभी अपने मन या विचारों को सुंदर नहीं बनाया। आत्मिक उन्नति के बारे में नहीं सोचा। अपनी विशेषताओं को महत्व नहीं दिया। बस बाहरी चमक- दमक ही उनके लिए सब कुछ रहा। वे तो हमेशा उसके ही साधारण रूप -रंग को उपहास की दृष्टि से देखती रहीं।  उसकी खूबियों का मजाक बनाती रहीं। उच्चतर शिक्षा, लेखन और प्रगतिशीलता उनके लिए बकवास की चीज़ थी। वे माँ की कार्बन -कॉपी ही बनी ।  वे भूल गईं कि माँ ने दादी, नानी से अलग अपना व्यक्तित्व निर्मित किया था। बहुत -सी पारम्परिक बेड़ियों को काटा था। वो माँ ही थीं, जिनके मौन समर्थन और अप्रत्यक्ष सहयोग ने परिवार में शिक्षा की ज्योति जल सकी, वरना मैं बित्ते -भर की छोकरी अकेली क्या कर लेती? बहनें माँ से आगे बस फैशन, मेकअप, बाहरी शानो-शौकत में ही बढ़ी, वरना उन्हीं की तरह सुहाग और बेटों के लिए व्रत -उपवास, पूजा -पाठ, धर्म -कर्म करती रहीं और उनसे लतियाई जाकर रोती रहीं।  सभी बहनों में कुछ न कुछ विशेष प्रतिभा थी, पर किसी ने भी उन्हें विकसित नहीं किया और पति पर आश्रिता रहकर उनकी ज्यादती सहती रहीं। इसके बाद भी खुद को सती- सावित्री की श्रेणी में रखकर गौरवान्वित होती रहीं और मेरी निंदा इसलिए करती रहीं कि मैं मुक्त हूँ सारे बन्धनों, रीति- रिवाजों, सम्बन्धों, पारम्परिक व खुद निर्मित श्रृंखलाओं से। हालांकि उनके मन में भी कहीं न कहीं मेरी तरह स्वतंत्र होने की चाहत थी और जब भी वे अपना मन खोलतीं उनकी वह चाहत नज़र आ जाती। उनके दुहरे व्यक्तित्व, जीवन, विचारों पर मुझे गुस्सा आता रहा। 
मैं अपने भाइयों को नहीं बदल पाई। वे पितृसत्ता के वाहक ही बने रहे। भाई ही क्यों मैं न तो प्रेमी को बदल पाई न पति को मित्र तो वैसे भी उतने करीब नहीं थे। 
अपनी इस हार पर मुझे गुस्सा आता रहा। गुस्से में मैं उस रिश्ते से अलग हो जाती थी, जिसे बदल नहीं पाती थी। 
अब मुझे अपने उस गुस्से पर गुस्सा आता है। 
मेरे गुस्से को अध्यात्म में राजसी गुस्सा कहा जाता है। यह उसे आता है जिसे संसार से ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं होती हैं, पर पूरी नहीं हो पातीं। 
मुझे पता है कि मेरे परिवार, समाज, संसार को भी मुझ पर बहुत गुस्सा आता है क्योंकि मैं उनकी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं हूँ।  उनकी धारणाओं, परम्पराओंऔर विचारों के अनुसार नहीं चलती और जब मैं ऐसा करती हूँ तो वे क्यों मेरी परवाह करें? मेरे मरने -जीने की भी उन्हें फ़िक्र क्यों हो? उन्होंने मेरी हर विपदा, हर परेशानी या दुःख के समय यह कहते हुए हाथ खींच लिया कि तुमने हमारे लिए क्या किया, जो हम तुम्हारे लिए कुछ करें? माता पिता, भाई बहन सभी तो यही कहते हैं कि तुमने किया क्या है हमारे लिए!सच है कि मैंने उनके लिए कुछ नहीं किया विशेषकर आर्थिक क्षेत्र में । मैं तो जीवन -भर अपने ही अस्तित्व को बचाने में लगी रही। मेरे पास कभी इतना कुछ इकट्ठा ही नहीं हो पाया कि मैं उनके लिए कुछ कर सकूं। मुझे अपनी वाज़िब जरूरतों के लिए भी कठिन श्रम करना करना। सारी योग्यताओं के बावजूद मुझे सरकारी नौकरी नहीं मिली। कोई ईमानदार साथी नहीं मिला। न गॉड न गॉड फादर। समझौते मैंने किए नहीं। भौतिक सम्पन्नता मुझे हासिल नहीं हुई, फिर किसी की भौतिक जरूरतों को मैं कैसे पूरा कर पाती? 
मेरे पास ज्ञान था ...विचार थे ...अनुभव था.... भावनाएं थीं, सबके लिए प्रेम था, पर यह किसको चाहिए था, किसी को नहीं!आर्थिक लेन- देन पर ही समाज में रिश्ते चलते हैं, आपसी व्यवहार चलता है, व्यवहारिकता, सामाजिकता, संसारिकता चलती है। मैं कहाँ से लाती इतना धन कि सबको खुश कर पाती। 
ऐसा भी नहीं कि मैं बहुत अभाव में थी। मेरे पास इज्जत से जीने योग्य चीजें थीं। मैं किसी की मोहताज़ नहीं थी, न किसी के रहमो-करम पर जीने के लिए विवश!मुझे कोई अपनी लाठी से हांक नहीं सकता था। मैंने अपने जीवन में ऐसे व्यक्ति को टिकने ही नहीं दिया, जो मुझ पर शासन कर सके। मेरा मालिक बनकर मुझे अपनी अंगुलियों पर नचा सके। मुझे कोफ़्त होती थी, जब गहने- कपड़ों और मेकअप से सजी अपनी बहनों को देखती थी क्योंकि उनके मालिक थे, वे उन्हें सजाते भी थे और भरी महफ़िल में उनकी इज़्ज़त भी उतार लेते थे। उनके टुच्चा विचारों और बनावटी लाइफ स्टाइल के हिसाब से उन्हें चलना पड़ता था। मैं तो दो दिन भी इस तरह के आदमियों के साथ नहीं निभा सकती। परतंत्रता कितनी भी लुभावनी हो वह स्वतंत्रता के आत्मिक सुख के आगे नहीं टिक सकती। सोने का पिंजरा भी तिनके के घोंसले का मुकाबला नहीं कर सकता। 
पर मेरी बहनें उसी पिंजरे में खुश थीं.... उसमें गौरवान्वित होती थीं। क्योंकि वहां उन्हें दाना -पानी, सारी सुविधाएं बिना किसी चिंता और प्रयास के मिल जाती थीं, जिनके लिए मुझ जैसी चिड़िया को पूरे दिन मशक्कत करनी पड़ती थी। 
इस देश में ज्यादातर नींद में सोई हुई स्त्रियाँ हैं, जो मुझसे इसलिए नाराज हो जाती हैं कि मैं उन्हें जगाने का प्रयास करती हूँ। वे कुछ सोचना नहीं चाहतीं । अपनी यथास्थिति से निकलना नहीं चाहती । उनका ये गुस्सा तामसिक कहलाता है। 
आजकल मेरा गुस्सा सात्विक हो गया है क्योंकि अब मुझे दूसरों पर नहीं खुद पर गुस्सा आता है। अपनी कमियों, कमजोरियों, अक्षमता, नाकामयाबी पर गुस्सा आता है। मुझे अब तक दूसरों पर किए गए गुस्से पर गुस्सा आता है। मैं खुद पर काम कर रही हूँ। खुद को सुधार रही। अपने उन अस्त्र -शस्त्रों को धो -माँजकर चमका रही हूँ, जिससे दुनिया बदलने के अपने सपने को साकार कर सकूं। 
मेरी एकमात्र ताकत मेरी लेखनी है ...मेरे विचार हैं।  मैं उनको ऐसा धारदार बनाने में जुटी हूँ, जिससे मेरा वार खाली न जाए। मुझे पता चल गया है कि जीवन भी एक युद्ध क्षेत्र है जिसमें सभी अपने हथियार से लड़ रहे हैं । तो ....मैं भी अपनी कुदरती कलम से लड़ूँगी। संसार मेरा मजाक बनाए ..मुझ पर हँसे, पर मैं उन पर गुस्सा नहीं करूंगी। 
वैसे गुस्सा तो रहेगा... देह है ...तो गुस्सा भी होगा क्योंकि यह प्रकृति की देन है । एक संवेद है, जिससे कोई नहीं बच सकता पर मैं उस संवेद का ...उस गुस्से का इस्तेमाल सही जगह करूंगी। छोटी -छोटी बातों पर गुस्सा कर अपनी ऊर्जा को नष्ट नहीं करूंगी। मैं अपने गुस्से का सकारात्मक उपयोग करूंगी । 
मुझे पता है कि धीरे -धीरे मेरा यह सात्विक गुस्सा भी तिरोहित होता जाएगा और मैं देह से रूह तक की यात्रा में एक कदम और आगे बढ़ जाऊँगी। 
क्या प्रेम की पूर्णता किसी एक से नहीं पाई जा सकती? क्या थोड़ा -थोड़ा प्रेम मिलकर ही  पूर्ण प्रेम बन पाता है। प्रेम ईश्वर का ही तो एक रूप है जैसे ईश्वर खुद को अनेक रूपों में प्रकट करता है वैसे ही प्रेम भी । 
मेरे जीवन में भी प्रेम कई रूप धरकर आया। किसी एक रूप ने मुझे प्रेम की पूर्णता नहीं दी। कुछ काल- विशेष के लिए कोई प्रेम आया और फिर विलुप्त हो गया।  उसकी जगह भरने दूसरा प्रेम आया और अंततः सभी प्रेम मिलकर एकाकार हो गए। मेंने अलग -अलग खण्डों में प्रेम का अनुभव किया और पूरी शिद्दत से प्रेम को महसूस किया। मैं कह सकती हूँ कि मैं ने प्रेम किया है प्रेम पाया है। प्रेम के हर भाव -अनुभाव को महसूस किया है। प्रेम की गहराई और ऊंचाई दोनों से परिचित हूँ। यही कारण है कि प्रेम -दृश्यों को पढ़ते -लिखते, देखते- सुनते वह उसमें खो जाती हूँ। प्रेम को जीने लगती हूँ!
मैंने मानसिक, दैहिक, आत्मिक सभी रूपों में प्रेम को जीया है और इसीलिए मेरा प्रेम देह से रूह की यात्रा कर रहा है। दुनिया मेरे प्रेम को नहीं समझ सकती। समाज मुझे दुष्चरित्र कह सकता है यहां तक कि मुझसे प्रेम करने वाले भी मुझसे दूर हो सकते हैं पर मैंने जो पा लिया है, उसे कौन छीन सकता है? अब तो मुझे प्रेम के लिए किसी इंसानी देह की भी आवश्यकता नहीं। मेरा प्रेम प्रकृति का एक अंग बन चुका है जिसमें सबके लिए एक -जैसा बहुत सारा प्रेम है!
फिर भी यह अतृप्ति क्यों? क्यों एक अजीब तरह की उदासी मुझे घेरे रहती है? क्यों पुरुष की चाहत मुझे आज भी है? कौन है वह पुरुष, जो अब तक मेरे जीवन में नहीं आया? मैं नदी की तरह आकुल -व्याकुल किस सागर की ओर दौड़ रही हूँ? क्यों अब तक मुझे सागर नहीं मिल पाया? क्या वह गलत रास्तों पर भटक गई है? 
कोविड 19 का दूसरा दौर, लॉकडाउन की लंबी अवधि, सेवावकाश, एकांतवास, दुनिया की बेरुखी, अपनों की निष्ठुरता सबने मुझे आत्ममनन का अवसर दिया है। मैंने इस अवधि में अपने पूरे जीवन की पुनरावृत्ति कर ली है। उन्हें फिर से जी लिया है। अब मुझे समझ में आ गया है कि मैं क्यों उदास हूँ और मुझे किसकी प्यास है? 
नदी जब समुद्र को पाने के लिए अपनी दोनों बाहें फैलाए मदहोशी में दौड़ रही होती है। रास्ते में पड़ने वाले जाने कितने ताल उससे आ मिलते हैं। उसका जल और सघन हो जाता है उसकी मिठास और बढ़ जाती है, पर वह तालों के लिए रूकती नहीं। किसी ताल में उसको रोके रखने की सामर्थ्य भी नहीं । वे छिछले होते हैं नदी गहरी इसलिए उसे संभालना तालों के बस का नहीं होता। वे तो खुद अपनी जगह से उखड़कर उसकी धार में बह निकलते हैं। नदी अपनी बेसुधी में आगे बढ़ती रहती है। तालों के आ मिलने से न तो उसका जल -तन प्रदूषित होता है न उसके मन से सागर की चाहत कम होती है। वह उतनी ही बेदाग चुनरी ओढ़े पिया मिलन के लिए भागी चली जाती है। उसे शांति तभी मिलती है जब वह अपना तन-मन, जीवन अपने प्रियतम को समर्पित कर उससे एकमेव हो जाती है। अपना अस्तित्व तक मिटा देती है। ' तेरा तुझको सौंपती'। 
मुझे समझ में आ गया है कि मैं भी एक नदी हूँ और समुद्र वह परमपुरुष है, जिसकी बचपन में मैं भक्त थी। जिसके ध्यान में मैं इतनी निमग्न हो जाती थी कि सभी मुझे मीरा कहते थे। मीरा ...कृष्ण की दीवानी ....मीरा ...!कहीं मीरा ने ही तो मेरे रूप में जन्म नहीं लिया है? आज की मीरा ..!
मुझे दुनियावी रिश्तों ने अपने घेरे में कैद करना चाहा और मैं उनसे मुक्त होने के लिए छटपटाती रही। मुझे कृष्ण से प्रेम था पर मनुष्य के प्रेम मुझे भरमाते रहे पर किसी भी ताल में कहाँ सामर्थ्य थी कि नदी को अपने में समेट कर रख सके? सबने दिगभ्रमित किया मुझे। छोटे-बड़े पहाड़, जंगल, ताल -तलैया सभी ने मुझे रोका ...इधर- उधर घुमाया, ऊपर -नीचे किया, चढ़ाया- उतारा पर मेरी जलधारा को कोई मलिन नहीं कर पाया क्योंकि मेरे हृदय में निश्छल, पवित्र प्रेम की धारा थी। कई बार लगा कि गन्दे नालों के आ मिलने से मैं अपवित्र हो गई । कितनी बार रेगिस्तान में फँसकर मैं सूखने के कगार पर पहुंच गई पर अपनी मंजिल तक पहुंचे बिना मैं खत्म कैसे हो जाती? मेरा  समुद्र तो मेरे हृदय में हिलोरे ले रहा था, मुझे सूखने कैसे देता? मैं चिर नवीन बनी रही। 
हाँ, अब मैं समुद्र के पास पहुंचने ही वाली हूँ बस कुछ ही कदम और ..। देह से रूह तक की यात्रा बस पूरी होने वाली है। मैं अपने परमपुरुष में विलीन हो जाऊँगी। फिर मैं नदी नहीं सागर कहलाऊँगी।