अभिव्यक्ति - दहलीज के पार Yatendra Tomar द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अभिव्यक्ति - दहलीज के पार

एक आम भारतीय गृहिणी की तरह रजनी भी अपने घर को पूरी जिम्मेदारी के साथ संभालतीं है हर दिन सुबह सूरज से पहले उठ कर देर रात तक घर के कामों की आपाधापी सी मची रहती है रात होते होते शरीर बुरी तरह थक चुका होता है और फिर गांवों ,छोटे कस्बों में शहरो की तुलना में काम भी थोड़ा अधिक श्रम वाला होता है,छोटे बड़े इतने सारे काम होते हैं कि रजनी अपने लिए भी थोड़ा वक्त नहीं निकाल पातीं, ऐसा नहीं है कि रजनी कुछ और काम करना नहीं चाहती पर कभी समय ही नहीं मिलता,उसका सारा समय घर परिवार के कामों में ही बीत जाता है, वो समय जिसे वो कह सके कि मेरा अपना निजी समय मेरे स्वयं के लिए जिसमें वो अपनी पसंद के कुछ कामों को कर सके, रजनी की शादी भी कम ही उम्र में हो गई थी भला 18 साल मे इतनी मानसिक परिपक्वता कहा आती है कि कोई घर, परिवार और बच्चों को सम्भाल पाएँ। रजनी आगे और पढ़ना चाहती थी एक बार पूछने पर उसने कहा था कि उसे बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता है वो शिक्षिका बनना चाहती हैं, रजनी की तरह कितनी ही लड़कियां होती है जिनकी शादी आज भी कई बार कम ही उम्र में कर दी जाती है खासकर थोडे ग्रामीण क्षेत्रों में। होने को तो यह 21 वी सदी है लेकिन मन पर जिन प्रभावो की छाप गहरी और पुरानी हो उन्हें तोड़ने में जरा वक्त लगता है, रजनी का घर से निकलना भी कम ही होता है साल भर में बस कुछ ही मौके आते हैं या तो किसी सम्बंधी का विवाह इत्यादि हो या फिर रक्षाबंधन हो कुल मिलाकर 4-6 बार, बाकी समय वहीं चार दीवारी का चोकोर घेरा, बाजार जाना भी कभी-कभार ही होता है वो भी तब जब साथ में मोहल्ले-पडोस की कुछ और महिलाएँ हो या फिर पतिदेव हो; आज भी गांवों में,छोटे कस्बों में महिलाएँ मानसिक रूप से इतनी स्वतंत्र नहीं हो पाई है कि कहीं भी आ जा सके, पास के बाजार तक जाने से पहले रजनी को भी कई बार सोचना पड़ता है किसी की मनाही नहीं है लेकिन एक तरह का दबा छिपा मानसिक,सामाजिक बंधन और डर मन पर थोडा हावी रहता है, हम लोगों ने भी कभी घर में,समाज में महिलाओं से खुल कर नहीं पूछा,इन विषयो पर उनसे कभी खुल कर बात ही नहीं की,शायद महिलाओं को उतनी मानसिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के मौके जरा देर से मिले, पर हाँ अब स्थिति बदलने लगी हैं पर अभी भी बहुत प्रयास किए जाना वाकी है।
कभी-कभी जब सफाई करते वक्त कागज का कोई टुकड़ा रजनी के हाथ आता तो वो उसी कागज के टुकड़े पर लिखे शब्दों को पढ़ने लगती और जब कभी रजनी को नींद नहीं आती तब वो देर रात तक सोचा करती कि उसे भी अपनी पसंद के ढेर सारे काम करना था,आगे पढ़ना था शिक्षिका बनना था, उसे भी कुछ अपनी एक निजी पहचान बनानी थी छोटी ही सही जिसे वो खुलकर कह सके कि "हाँ मैं हूं " घर परिवार से हटकर माँ ,बहू,पत्नी इन सब पहचानो से हटकर, ताकि वो खुल कर स्वयं को अभिव्यक्त कर पाए बिना किसी मानसिक बंधन के। रजनी को कभी कोई ऐसा मिला भी नहीं जिसे वो अपने मन की बात खुलकर बता सकती, कोई ऐसा जो उसकी होंसला अफजाई कर सके, रजनी ने कई बार सोचा भी कि इस विषय पर घर वालों से पति इत्यादि से बात की जाए पर वो चुप ही रहती मानो जानती ही हो कि सबकी प्रतिक्रिया क्या होगी मानो उसे बागी करार ठहरा दिया जाएगा, सो यही सब सोचकर वो चुप रह जाती। इन सब बातों को सालों बीत चुके हैं सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं। पर जब पिछले हफ्ते कुछ कागजों को ढूंढने वक्त दोस्तों के साथ के कुछ पुराने फोटो मेरे हाथ लगे तब से दोस्तों से मिलने का बहुत मन हुआ सो मैंने तय किया कि क्यों न पुराने सभी दोस्तों से एक एक करके मिला जाएँ, फिर क्या था मैं भी निकल पड़ा कई किलोमीटर सफर तय करने के बाद सड़क कच्चे रास्ते से होती हुई एक घर के सामने आकर खत्म हुई, मैंने देखा कि घर के बरामदे में हाथ में चाॅक लिए ब्लेक बोर्ड के सामने एक महिला कुछ बच्चों को पढ़ा रही है पास जाकर देखा तो मेरी प्रसन्नता का भी ठिकाना न रहा वो रजनी ही थी, अपने बचपन की दोस्त कोे पढ़ाते हुए देख ऐसा लग रहा था कि मानो कोई पंछिन पिंजरे से निकल कर खुले आकाश में उड़ रही हो और इस आजादी की चमक उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे रही थी,रजनी ने "अपने मन की और घर की चार दीवारी "दोनों दहलीज़ों को पार कर दिया था,अब आसपास के गांवों के सारे बच्चे पढ़ने के लिए रजनी के पास ही आते हैं ,इतना ही नहीं रजनी कुछ और महिलाओं के साथ मिलकर महिला शिक्षा जागरूकता के लिए काम भी कर रही है। ताकि उसकी तरह फिर कभी किसी और रजनी को इस सब से न गुजरना पड़े।