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उस दिन समिधा बहुत आनमनी रही | कितनी सस्ती है ज़िंदगी यहाँ ? किन आधारों पर जीवन जीते हैं ये लोग ? क्या है इनके जीवन का मंत्र ? क्या जीवन का यही आदि और अंत है? देखा जाए तो ज़िंदगी है क्या ? एक गुब्बारा? एक धागा ? एक पल? कोई कण ---पता नहीं ? मगर समिधा को यहाँ ज़िंदगी एक धमाके सी लगी । ऊपर से टपकी, नीचे धम्म से गिरी और बस ---फिर दूसरी ओर यह भी लगा यहाँ लोग ज़िंदगी जीते भी हैं तो एक शिद्दत से, मस्ती से जैसे उसने बाज़ार से गुज़रते हुए युगल में ज़िंदगी को महसूस किया था और ज़िंदगी ख़त्म भी होती है तो एक ताड़ी की मटकी सी फट्ट हो जाती है !
सच तो यह है कि इस धरती पर आने के साथ ही जाना भी सुनिश्चित है फिर भी जब तक साँसें हैं तब तक हमारे भ्रम हमें ‘अमरता’की ताड़ी पिलाए रखते हैं | यूँ तो जितने भी पल की हो ज़िंदगी, हो ज़िंदादिली से भरी-भरी !बहुत भला, सुंदर, प्यारा सा ख़्वाब है पर मनुष्य इतने दर्शन में जी नहीं पाता | उसके सुख, दुख उसे पल-पल कचोटते रहते हैं | वह स्वयं तो धरती पर ही सुबकता रहता है और उसका आनंद दूर---मटकी भरी ताड़ी सा क्षण भर में टूटकर फैल जाता है | क्या हर दिन घटने वाली ऐसी घटनाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता इन पर? ऐसा कैसे हो सकता है ? संभवत: किसी दूसरे के लिए किसी का ऐसे जाना कुछ देर की ही एक घटना भर हो पर उन माँ-बाप के लिए तो उनका जीवन श्राप बनकर रह जाता है जिनकी संतान उनके सामने क्रूर काल का ग्रास बन जाती है |
शायद इन लोगों का सच केवल उनका वह पल है जो उनकी हथेली पर रोटी की तरह रखा है | सब उस रोटी को खाने की उत्सुकता और जल्दबाज़ी में रहते हैं | एक लपकने की सी स्थिति –सच ! ज़िंदगी को लपक लेना ही तो पड़ता है वरना वह तो मुट्ठी में से फिसलते रेत की भाँति कब सरक जाती है, पता ही नहीं चलता !!
समिधा असहज हो उठी, उसे बरसों पूर्व की भूली-बिसरी घटना की स्मृति हो आई और बासी पृष्ठ पलटती वह उस बीते हुए गुबार में समाने लगी |
उत्तर-प्रदेश में एक नज़दीकी रिश्तेदार के विवाह में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली तक समिधा के परिवार की यात्रा वातानुकूलित रेलगाड़ी में रही | बाद में गाड़ी बदलकर स्थानीय गाड़ी में जाना था | किसी प्रकार सारांश व बच्चों के साथ वह एक डिब्बे में चढ़ गई थी | कुली ने दिल्ली के स्टेशन पर रुकी दूसरी गाड़ी में उनका समान ठूँसकर चढ़ा दिया था | बच्चे उस समय किशोरावस्था की दहलीज़ पर थे | चौदह वर्ष की बिटिया निश्का यानि निक्कू पर ही सारी यात्रा के दरमियान सारांश की दृष्टि गड़ी रही |
हम चाहे कितने ही आधुनिक क्यों न हों जाएँ लेकिन अपनी बहू-बेटियों के लिए चैतन्य रहते हैं, जमकर खड़े रहते हैं | जहाँ तक हो सके हम उन्हें एक सुरक्षा-कवच से ढककर रखते हैं | उस स्थानीय रेल में खूब भीड़ थी| बिटिया को खिड़की पर बैठा दिया गया | सारांश की दृष्टि में उसकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक था | एक कोने में होने के कारण किसी यात्री के वहाँ तक पहुँचने की संभावना न के बराबर थी |
गाड़ी अपनी मंथर गति से छुकर- छुकर चल रही थी | छोटे-छोटे स्टेशन आते, गाड़ी रुकती, चलती फिर रुकती | बच्चे परेशान होने लगे थे, वे अपनी गर्दनें डिब्बे की खिड़की में से जितनी बाहर जा सकती थीं, निकालकर छोटे-छोटे ऐसे स्टेशनों को देखने में तल्लीन हो गए थे जो उन्होंने कभी देखे ही नहीं थे | उनके लिए वह सब कुछ बहुत नया था |
एक स्टेशन पर गाड़ी रुकती, स्कूल के लड़के चढ़ते, गाड़ी सीटी देकर चलने का प्रयास करती नज़र आती, छुक-छुक! मानो कोई नई दुल्हन मंथर गति से अपने पाँव आगे बढ़ाने की चेष्टा कर रही हो | इतनी देर में फिर व्यवधान उपस्थित हो जाता | गाड़ी न जाने क्यों रुक जाती? और ऐसा एक बार नहीं बार-बार हो रहा था | अब तो बच्चे ही क्या बड़े भी परेशान होने लगे थे |
“आख़िर बात क्या है ? ”सारांश ने ऊबकर आस-पास बैठे हुए यात्रियों से पूछा |
पता चला कि ये स्कूल /कॉलेज जाने वाले लड़के बार-बार गाड़ी की चेन खींच देते हैं और गन्नों के खेतों में उतर जाते हैं | कुछ उतरकर गन्ने तोड़ते हैं तो कुछ उनकी पहरेदारी में डिब्बे के गेट पर लटके रहते हैं | जब गाड़ी चलने के लिए सीटी देती, तब कोई न कोई गाड़ी की चेन खींच देता |
“ऐसे तो न जाने कितनी देर में गाड़ी पहुँचेगी ---“सारांश के स्वर में बच्चों के लिए चिंता झलक रही थी, विशेषकर बिटिया की चिंता !
“साब ! इस गाड़ी में बहुत तकलीफ़ है ---कम से कम चार घंटे लेट चलती है | ”इस बात ने सारांश को और भी चिंता में डाल दिया |
निक्कू परेशान सी दिखाई दे रही थी।सारांश उससे भी अधिक परेशान –मनन यानि मोनू ज़रूर मस्ती में डूबा अपने चारों ओर के वातावरण का लुत्फ़ उठाने की चेष्टा कर रहा था | सारांश ने बेहूदा शोर डिब्बे के अंदर आते हुए सुना तो उठकर खिड़की में से झाँककर बाहर देखा जहाँ निक्कू बैठी थी | गेट पर कुछ शोहदे किस्म के लड़के थे जो बाहर की ओर लटक-लटककर निक्कू को देखने की होड़ लगा रहे थे | सारांश अब निक्कू से खिड़की से हटकर बैठने के लिए कहने लगे थे पर निक्कू ने उनका कहना मानने से साफ़ इंकार कर दिया |
“नो, आई फ़ील सफ़ोकेटेड “उसने भुनभुनाकर कई बार यह दोहरा दिया था | कुछ देर बाद समिधा ने भी खिड़की से बाहर झाँकने की चेष्टा की | उसने लटकते हुए आधे बदन वाले लड़कों को देखा जिनके केवल पंजे ही डिब्बे में जमा होंगे | शेष आधे से अधिक शरीर डिब्बे से बाहर लटक रहा था | उन लड़कों की उम्र यही कोई पंद्रह/सोलह साल की रही होगी | हो सकता है कोई उन्नीस/बीस का भी हो |
यह पूरा इलाक़ा विभिन्न जातियों के गाँवों का था | ये युवक उन्हीं गाँवों के लड़के थे | मज़बूत कद-काठी लेकिन ऊपर के भाग में शरारतों का पिटारा !वे लंबे-तड़ंगे तथा हृष्ट –पुष्ट भी थे और उनकी आँखों से एक अजीब सी लोलुपता छ्लक रही थी| ये लड़के निक्कू की खिड़की की तरफ़ डिब्बे के दरवाज़े के डंडे से लटके ऐसे झाँक रहे थे जैसे कभी कोई लड़की न देखी हो और वो अभी लपककर गेट का हैंडिल छोड़कर उस खिड़की की सलाखों पर आकार चिपक जाएँगे जहाँ निक्कू बैठी थी |
समिधा ने देखा सारांश की आँखों में क्रोध घिर आया था पर यहाँ स्थिति ऐसी थी कि क्रोध करना यानि और मुसीबत मोल लेना !उन्होंने समिधा से निक्कू को वहाँ से हटाने के लिए कहा लेकिन भीड़ इतनी अधिक थी कि उसे सरकाना नामुमकिन था | यात्री डिब्बे में ठूँस –ठूँसकर ऐसे भरे हुए थे जैसे भेड़-बकरियाँ ट्रक में ठूँसकर किसी क़त्लखाने ले जाई जा रही हों | बच्चों की भलाई वहीं बैठे रहने में ही थी इसलिए समिधा किसी न किसी तरह स्वयं निक्कू के पास जा बैठी और उसे वहाँ के वातावरण के बारे में, खेतों के बारे में बताने लगी | उसने देखा निक्कू के चेहरे पर खीज पसरी हुई थी | उसके निक्कू की बगल में बैठने के बावजूद भी लड़के उसी प्रकार लटके हुए थे | शर्म तो उनकी आँखों में बिल्कुल थी ही नहीं !एक आदिम भूख उनके चेहरों पर पसरी चुगली खा रही थी |
इतनी छोटी वय के लड़कों के लिए ऐसा सोचना समिधा को अच्छा नहीं लग रहा था ---परंतु वास्तविकता को नकारा भी तो नहीं जा सकता था | गाड़ी धीरे-धीरे रेंगने ही लगी थी कि अचानक ही बवंडर सा एक शोर उठा | गाड़ी के हैंडिल से लटके हुए लड़कों में से कोई एक नीचे गिर पड़ा था | निक्कू ने उसे गिरते हुए देखा था और भय से काँप उठी थी | अपना मुँह जल्दी से माँ की ओर घुमाकर वह माँ से चिपट गई थी, उसका हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था | समिधा ने उसे अपनी बाहों में कस लिया |
निक्कू बहुत अधिक डर गई थी, सहम तो मोनू भी गया था पर निक्कू उस गिरते हुए लड़के को देखकर अजीब भौंचक सी रह गई थी मानो उसने धरती को फटते हुए देख लिया हो | वह माँ से चिपककर सुबकने लगी थी |
समिधा ने उसे बमुश्किल संभाला, वह स्वयं भी तो हतप्रभ रह गई थी | उसके पेट में गुड़गुड़ होने लगी थी | उसका संवेदनशील मन न जाने कहाँ-कहाँ तक बीएचटीकेने पहुँच गया ----!
‘न जाने बेचारा किसका बेटा होगा ? न जाने इसके माँ-बाप का क्या हाल होगा ? क्या गुज़रेगी उन पर ? ”
समिधा के दिमाग में पर लग गए थे और उन परों के सहारे वह न जाने कहाँ-कहाँ उड़कर बार-बार बिटिया के पास आ जाती थी | उसका दिल धौंकनी की भाँति धड़क रहा था और आसपास के लोगों की बातें सुन रहा था | डिब्बे में बैठे यात्रियों के लिए कोई नई बात नहीं थी, कुछ असहज था ही नहीं | कुछ यात्री खड़े होकर बाहर झाँकने का प्रयत्न कर रहे थे, कुछ आराम से बैठे-बैठे ऐसे ही बातें कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो |
“ये सौरे तो रोज यूँ ही मरते रहवै हैं ---“दूसरे ने कहा और आराम से चिंतामुक्त होकर बीड़ी फूँकता बैठा रहा |