करवट बदलता भारत - 10 - अंतिम भाग बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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करवट बदलता भारत - 10 - अंतिम भाग

’’करवट बदलता भारत’’ 10

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत्‍ नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

कैसा जमाना--

कैसा जमाना, अब आया यहां है-

कोई-किसी का, होता कहां है।।

लगाके वे ही आग, देखें तमाशा-

सीखा लगाना, बुझाता कहां है।।

सीखा कुचलना, कुचलना, कुचलना-

गिरे को उठाता कहॉ वो, यहां हैं।।

सिसकियां भी दबायीं, जातीं यहां है।

जनतंत्र कैसा, विरूपित हुआ है।।

सियासत के सब कोई, ओढ़े दुशाले-

सियासी हवा का, मजमां यहां है।।

मचाते तबाही, आग पै आग बरसा-

नेह की नीर बारिस, अब तो कहां हैं।।

किधर जाएगी, मानवी की ये बस्‍ती-

मनमस्‍त कोई दिखाता, यहां पर, कहां हैं।।

धुआं जहां उठे--

तुम्‍हारी समझ, आज कैसी कहां है।

धुआं जहां उठे, आग होती वहां है।।

न भूलो इसे, गौर इस पर है करना-

आंख चौड़ी करो-ये लम्‍बी जहां है।।

कान खोले सुनो, ना बहाना चलेगा-

चाह होती जहां, राह होती वहां है।।

तुम्‍हारे जलाए-जले घर पड़े हैं-

देखो उन्‍हें, गिनो, कितने कहां हैं।।

गढ़ो नेक नेकी, जिन्‍दगी की कहानी-

बसाना उसे, जो उजड़ी जहां है।।

चलना पड़ेगा, कंटकों में तुम्‍हें ही-

तुम्‍हारी कहानी ही, ये जहां-तहां हैं।।

अगर तुम कहीं हो-नाविक जो सच्‍चे-

कश्‍ती संभालो, नहिं डूबत जहां हैं।।

चलन अटपटा—--

पीटते हैं उसे, जो सदां से पिटा।

मैंटते हैं उसे, जो सदां से मिटा।।

है गुनाहे वफा, बे गुनाहे सजा-

जिंदगी का यही सिलसिला-कब घटा।।

आसमां के तले, ओढ़ सोते कफन-

उनको तोहफा यही तो अजूबे मिला।।

जिंदगी की, जो दौड़ें, रहा दौड़ता-

उसका गुलशन कही-भी, कभी ना खिला।।

पसीने-पसीने , पसीना यहां-

फिर भी मिलती रही हैं, उसी को गिला।।।

कब तक देते रहोगे, सजा पर सजा-

नहीं मनमस्‍त कोई, रहनुमां मिला।।

कुछ तो सोचो, ये चालैं बदल लो जरा-

तुमरा चलना रहा, जो सदां अटपटा।।

गांव रोशन नहीं---

भलां तुम कहो, गांव रोशन नहीं है।

खम्‍मा सिर्फ, कहीं लाईन नहीं है।।

है अजूबा कहानी, यहां रोड़ की भी।

कागजों पै बने, रोड़ वहां पै नहीं।।

आठ दिन में कभी, डॉकिए के दर्शन-

चिट्ठी डाली मगर, आई तो नहीं।।।

पाठशाला अधूरी-तो चूती कहीं-

शिक्षकों की कमी, बहुत पायी कहीं।।

पांच सालें गई, पांच अच्‍छर पढ़े-

कहीं तो घंटी किसी ने, बजाई नहीं।।

नाम शाला लिखे, बच्‍चे बीने पनी-

दाल रोटी तो, भैंसों ने खाई कहीं।।

बात किनी कहैं, किस-किस की कहैं-

सियासत को कभी, शर्म आई नहीं।।

ये है तस्‍वीर मेरी, मेरे देश की-

रोटी मनमस्‍त, भरपेट खाई नहीं है।।

घटता आदमी--

आदमी की कहानी, यूं घटती लगी।

उस पर भी देखा, वो बटती लगी।।।

आदमी भी यहां, आदमी ना रहे।

ऐसा क्‍या हो गया, जहन्‍नुम जो जगी।।

आदमी क्‍यों चला, वर्ग के सर्ग में-

इसको किसकी औ कैसी हया ये लगी।।

कितनी गहरी-सी खायीं, जो खोदीं गई-

पीढि़यां मिट गई, पर वो ना मिटीं।।

जानकर ये भी, बदतर लगा आदमी-

ऐसी-कैसी यहां, मृगतृष्‍णा जगी।।।

आगे कहां जाएगा-ये पता भी नहीं-

लौटने की तो आशा, अभी ना जगी।।

कोई समझाओ तो, क्‍यों कर पागल हुआ-

ये है अपना वतन, अपनी लौटे जमीं।।

ये है अपना ही घर, अपने प्‍यारे सभी-

सुख, अपनों में, अपनों से मिलता सदां।।

राहें बतायीं--

राहें बतायी तो, खफा हो गए वे।

उसे कत्‍ल करके, सजा दे रहे बे।।

सब कुछ सहा और जगाया था तुमको-

सोने की फिर से, दबा दे रहे वे।।

जागे नहीं तो, बना देंगे पंगु-

दबाकर तुझी को, कजा दे रहे वे।।

बगावत न करदें, बना देंगे गूंगे-

हस्‍ती जो तेरी, मिटाते रहे हैं वे।।

माना नहीं तो, बना देंगे बकरे-

तेरी कहानी मिटाते रहे वे।।

भूंखों मरा, लात घूंसों पिटा नित-

तेरी ही बस्‍ती जलाते रहे वे।।

कब तक सहेगा, अरे मूंढ़ मानव-

जगजा अभी-भी, जगाते रहे वे।।

कहर जो ढहा--

कहर जो ढहा, रात सोई नहीं थी।

रातों जगी, किन्‍तु रोई नहीं थी।।

लगे है अभी-भी वो सपने सजाने-

रक्तिम धरा, अब भी धोई नहीं थी।।

कैसे घसीटी, और तोड़ी जो अस्थि-

उसकी निशानी भी, मैटी नहीं थी।।

अंगारे जलते हैं, आंखों की बस्‍ती में-

कैसे भुलादें, वो लोई नहीं थी।।

निठुर आदमी की है, निष्‍ठुर कहानी-

उसने यही आग, बोई नहीं- थी।।

धुआं उठ रहा है, संभल के भी रहना-

रवानी तुम्‍हारी, किस्‍सा कोई नहीं थी।।

यह तनमनी--

सोचें तुम्‍हारी, रूबाइयां बनीं।

दरारें नहीं, चौड़ी खाइयां बनीं।।

डरे हैं वे इतने, नहीं आंख खोलें-

उठत तड़पने हैं, घनी से घनी।।

जमीं आपकी है, गगन आपका,

फिर भी, तुम्‍हारी क्‍यों आंख तनी।।

जन,धन, धर्म, न्‍याय, संसद तुम्‍हारी-

तुम्‍हारे सभी ग्रह, सुककर-शनी।।

कहीं चैन सोते, न चैनों दिखा-

करै रात कुनमुन, उठै अनमनी।।

ऐसा हुआ क्‍यों, तुम्‍हें सोचना है-

तुम्‍हारी कहानी क्‍यों-ऐसी बनी।।

संभालो इसे, आज, रहते समय-

मनमस्‍त, क्‍यों-कर है, यह तनमनी।।

Dhol-पुर--

Dhol-पुर के Dhol-भाजन, मुबारक हो तुम्‍हें जन्‍नत।

बजाए और के बजते, त्‍यागी त्‍याग, नहिं मिन्‍नत।।

जनाजा उठ रहा ए तो, परिश्रम की कमाई का-

न देखत अंग अंगनाई, उनसे राखते खुन्‍नत।।

तुम्‍हें घेरे खड़ी लगता-यहां धृतराष्‍ट्र की सैना-

अंध युवराज भी लगते, न करते आप से मिन्‍नत।।

स्‍वर्ग जाते हुए देखा, कभी कोई त्रिशंकू भी-

ग्‍यान के तुम पुजारी हो, कैसे सोच की जन्‍नत।।

और के कभी खाने पर, भरा कब पेट है खुद का-

तुम्‍हारी बुद्धि को लानत, न सोचा आज तक, अब तक।।

कागा-कब हुए पुरूखे हवि और पाक खाने पर-

किन की चाल पर भटके, संभलो और हो संयत।।

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, अन्‍तस में करो चिन्‍तन।

समझ मनमस्‍त खुद को ही, नहीं कहीं और है जन्‍नत।।