करवट बदलता भारत - 5 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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करवट बदलता भारत - 5

karavat badalta bharat

’’करवट बदलता भारत’’ 5

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत्‍ नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

अनमोल गुदड़ी--

जिंदगी भर चीखकर क्‍यों जमाना जी रहे।

रेशमी-अनमोल गुदड़ी, इस तरह क्‍यों सीं रहे।।

नीर नीरज तुम्‍ही हो, बादलों से धीर हो-

फिर तरसती प्‍यास है क्‍यों खुद खुदी क्‍यों पी रहे।।

बदल जाते सभी रिश्‍ते, बख्‍त की तासीर ले-

लोग मिलते हैं बहुत पर, किस तरह से जी रहे।।

हो खफा, दुनियां की राहें, हार मग बैठो नहीं-

कदम दर-कदमों बढ़े हैं, वे पथिक, हम ही रहे।।

इक रहा ईमान-दौलत तो कहां कंगाल है-

ये विरासत है हमारी जिसे लेकर जी रहे।।

है यही निश्‍चय सही में, कामयाबी मिलेगी-

भलां, समझे नहिं जमाना, हम तो सही बो रहे।।

लोग वो, मिलते नहीं हैं, जो निभाएं नेह को-

लूट के अड्डे यहां हैं, कौन-कितने क्‍या कहें।।

कब तलक जिंदा रहेगी, ये नफरती दास्‍ता-

आएगा मनमस्‍त मौसम, नहीं रहेंगे कह-कहे।।

ठूंठ का विस्‍तार--

नींम का बुढ़बा हुआ वह पेड़ कितना है बड़ा।

पीढि़यां छाया बिठायीं आज तक यौं ही खड़ा।।

है नहीं छाया अधिक पर है बड़ा, वह छांव-सा।

पुज रहा है आज भी वह, पूर्वजों सा है अड़ा।।

था हरा जब खेलते थे-गोद में सब बाल भी-

जिंदगी की कहानी का पाठ उसने ही पढ़ा।।

बिखर करके बीज उसके, उग गए आकार ले-

एक नए संसार का, आकार जिसने ही गढ़ा।।

सब उसी को ढक खड़े हैं, प्‍यार की मनुहार ले-

है यही परिवार उसका, जो युगों को ले खड़़ा।।

खूब उलझे हुए रिश्‍ते, जो जड़ों से हैं जड़े-

उसी से पोषित हुए वो, उसी के संग मैं खड़ा।।

मानता खुद को हरा वो है, मगर वह ठूठ ही-

सब बने श्रृंगार उसके, वो उन्‍हीं से है जड़ा।।

उसी का इतना बड़ा संयुक्‍त सा परिवार यह

खुद हुआ है ठूठ, फिर भी मोद उसका है बड़ा।।

कुछ करो—

संक्रमण को रोकने को, यह करो।

ऊष्‍मा खुद में बढ़ाओ, नहिं डरो।।

समय की ठिठुरन सभी मिट जाएगी।

अग्नि की तासीर अन्‍दर में भरो।।

वायु बर्फीली चले, चलती रहे-

ऊष्‍मा उर में बढ़ा सरदी हरो।।

आएंगे मौसम, चले भी जाएंगे-

खुद में जज्‍बाती-शिकंजा तो भरो।।

यदि डरे तो मौसम डराऐंगे तुम्‍हें-

सामना करने का कुछ साहस करो।।

कदम चढ़ते हैं नहीं हिमगिर कभी-

हौंसलो की बानगी कुछ तो धरो।।

कया करैंगी धुंध अरू काली घटाएं।

दोस्‍ती रवि-वायु से गहरी करो।।

कमजोर हो, जीना भी, जीना है नहीं-

मनमस्‍त कुछ बातें, समय की भी करो।।

नौजवानो--

नौजवानो खून को खौलाओ तो।

बुजदिली को मैंट, साहस लाओतो।।

आएंगे अवरोध चिंता मत करो-

हौंसलों के गीत, अपने गाओ तो।।

फैला रही जो भ्रान्तियां, उनसे सजग-

व्‍यवस्‍था में मोड़, इतना लाओ तो।।

अर्थियों पर रोटियां जो सैंकते-

हर तरह से, उनको तुम ठुकराओ तो।।

पापियों के पाप घट को फोड़ दो-

नफरतों के उपबनों को जलाओ तो।।

धर्म के ठेके मिटा दो धरा से-

बेबशों को नेह दे, गले से लगाओ तो।।

कोई तुमको आंख दिखलाए अगर,

आंख को भी, फोड़ के दिखलाओतो।।

बदल सकते हैं तुमहारे हौंसले इस दौर को-

देश हो मनमस्‍त बीड़ा उठाओ तो।।

किताबें--

किताबें पढ़ो तो यारो न जाने क्‍या क्‍या कहती।

हमारे जहन में बैठी जवानी, इनमें रहती।।

पढ़ा जिनने, इन्‍हें मन से, हीरा लाल बे हो गए।

यहीं फौलाद की धरती- इनमें सरस्‍वती रहती हैं।।

तीनों काल हैं इनमें, सबके हाल हैं इनमें-

पल के पल इन्‍हीं में हैं, दुनियां इन्‍हीं में रहती है।।

बचपन चहकता इनमें, जवानी ज्‍वार भी इनमें-

बुढा़पे की नसीहत भी, पूरी जिंदगी रहती।।

सभी मौसम इन्‍हीं में है, गीतों की रवानी भी-

विज्ञान झूमता इनमें, मिशायल इन्‍हीं में रहती है।।

खुशी गम, हार जीतों संग प्‍यार दुतकार भी इनमें-

सुनो तो गौर से इनको, किताबें क्‍या न कहती हैं।।

इनके पास गर होगे, तुम्‍हारे पास ये होंगी-

सुनो मनमस्‍त की अर्जी किताबें बहुत कुछ कहती हैं।।

समय--

कभी मत भूलना प्‍यारे समय नव ज्ञान देता है।

इससे बच नहीं सकते समय इम्‍तहान लेता है।।

बिगड़ी को बनाने के गजब तासीर हैं उसमें-

तुम्‍हारे रूठ जाने पर भले से मना लेता है।।

समय के हौसलों के फैसलों में तुम बंधे प्‍यारे-

वही है खुदा, ईश्‍वर भी, तुम्‍हें भी जान लेता है।।

तुम्‍हारे सुख-दु:खों के पल, सभी इसकी कहानी है-

सभी को शाम ढलते ही, घरों पर बुला लेता है।।

पता इसका नहीं सबको, मगर सबका पता इसको-

इसकी अजब दुनियां हे, पता नहिं अपना देता है।।

समय की ये कहानी तो, समय को देख कर चल लो-

उनका समय बनता है, जिनका साथ देता है।।

समय के साध्‍य हो जाओ, समय आराध्‍य हो जाओ-

समय मनमस्‍त है उनका, समय जो साध लेता है।।

खून चलता है--

ओ मनीषी। हो सजग, क्‍यों हाथ मलता है।

आदमी चलता नहीं है, खून चलता है।।

भूलकर जाना नहीं उन बुजदिलों के घर-

कर्म करना दूर कौंड़ी आहें जो भरता है।।

चाहता हो फूल केवल, शूल से डरता रहे।

वो कभी-भी तो नहीं, फौलाद ढलता है।।

आज की इस दौड़ में, बस खून ही दौड़त दिखा।

इस बुढ़ापे से न पूंछो, खून खलता है।।

याद आती है वो नानी, किस कदर दौड़ा फिरा।

आज चढ़ते सीढि़यों पर, यौं फिसलता है।।

यंग दौड़ों पर बुढ़ापा ताकता कैसे सदां।

ज्‍यौं लौमड़ा, अंगूर ऊंचे, खा न पाता है।।

स्‍वयं में कुढ़ता बुढ़ापा, कोई हाल नहिं पूंछे-

घिसट जीता जिंदगी, नहिं दौड़ पाता है।।

मनमस्‍त से पूंछो नहीं कोई, इस कहानी को-

बीच नहिं चलता, किनारे गहे चलता है।।

हो कहां कविता--

जा रहे किस ओर सबरे, देश को तुम ही बचाओ।

कविता कहां हो आज तुम पहिचान अपनी तो बनाओ।।

तुम खड़ी होती जभी हो, देश का नक्‍शा बदलता-

सो रहे जो, जाग जाते, गीत कुछ ऐसे सुनाओ।।

तुम चली जब बन शताब्‍दी, रूक गयीं सब गाडि़यां-

घड़घड़ाती पटरियां हैं, चाल ऐसी तो बनाओ।।

नींद की लो नहिं खुमारी, प्‍यार की नहिं शेज सोना-

डोलना नहिं बनो, उपबन, धार बन खंजर दिखाओ।।

रोक नहीं पाते कभी भी, आंधियां तूफान तुमको-

पैर के छाले मिटाने, शीतली मरहम हो जाओ।।

तुम बनो हिमगिर सरीखीं और गहरी सागरों-सी-

खोजते तुम में सभी कुछ, मोतियों का घर हो जाओ।।

गड़गड़ाते मेघ संग, भूकम्‍प अस तूफान तुम हो-

आरती करते तुम्‍हारी, मनमस्‍त दुनियां को बनाओ।।

जिंदगी का गीत मांगो--

मांगने गर चले, तो फिर जिंदगी सा गीत मांगो।

भटकते वीरानगी क्‍यों, अजनबी सा गीत मांगो।।

याद रखते हो कभी क्‍या सफर की कुर्बानियां वे-

हार ही क्‍यों मांगते हो, मांगते तो, जीत मांगो।।

जिंदगी का अर्थ समझो, अर्थ से विस्‍तार मिलता-

खार ही क्‍यों मांगते हो, फूल की मनुहार मांगो।।

सदी दर सदियों चला है, जिंदगी का ये फसाना-

पतझड़ों से दोस्‍ती क्‍यों, वो बसंती वियार मांगो।।

प्‍यार से रोपो घरौंदा, बचपनी अठखेलियों का-

जिंदगी का वो सुनहरा, बचपना उपहार मांगो।।

मैंट दो रोती कहानी, इस धरा की पीठ से अब-

मनमस्‍त अर्जी है यही, हंसता हुआ संसार मांगो।।