काश अंजु पी केशव अना द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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काश

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सर से पाव तक नज़ाकत, अंदाज़ ऐसे कि कोई देखे तो दो पल के लिए आँखे जरूर ठहर जाए। कुछ महीनों पहले ही मिली थी मैं "मिली" से, लेकिन गहरी दोस्ती हो गई थी हमारे बीच। तीखे नैन-नक्श वाली मिली के गेंहुए रंग में एक अजीब सी कशिश थी। बातें करने का आभिजात्य तरीका दिलकश था। कभी दुखी भी होती तो एक अदा से। अक्सर सोचती मैं कि क्यों छोड़ा होगा इसके पति ने इसे? कई बार पूछना भी चाहा लेकिन इतनी पुरानी नहीं थी हमारी दोस्ती और एकदम से खुल जाना, मेरे स्वभाव में भी नहीं था। किसी दोस्त के घर पर किटी में मिली थी मैं उससे और देखते ही देखते हमारे बीच के दायरे सिमटने लगे। मुझ आम सी, घरदारी में व्यस्त रहने वाली औरत के खयालों में, पता नहीं क्यों वह सेंध मारे जा रही थी। स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो मेरे हवासों पर छाई हुई थी मिली इन दिनों।
समय बड़े मजे से गुजर रहा था और कब मिली का व्यक्तित्व मुझ पर पूरी तरह हावी हो गया, जान ही न पाई। महसूस किया कि आजकल लोग टोका-टाकी कुछ ज़्यादा ही करने लगे हैं। "क्या बात है मिसेज भारद्वाज!. आप तो एकदम बदल सी गई हैं.... अरे आभा! तुम पे ये हेयरस्टाइल खूब जँच रहा है।" जैसी बयानबाजियाँ, आए दिन सुनने को मिलने लगीं। मन तो बल्लियों उछल जाता प्रशंसा सुनकर लेकिन मनोभावों को छुपाने का हुनर सीखने लगी थी मैं।धीरे-धीरे मेरा "मैं" खतम हो रहा था और मिली के साथ मेलजोल बढ़ता जा रहा था। अब वह बकायदा हमारे घर भी आने लगी। पति और बच्चों के साथ भी काफी हिलमिल गई थी। मेरे पति अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति थे और बहुत व्यस्त रहते थे इसलिए हमे समय नहीं दे पाते थे। मेरा अधिकतर समय बच्चों के साथ ही बीतता। उन्हीं के साथ बाजार, सिनेमा, जहाँ भी जाना होता, मैं जाती। अब कभी-कभी हमारे साथ मिली भी चली जाया करती और हम ख़ूब मज़े करते। वह मुझे बदल रही थी और मैं बदलती जा रही थी। अफसोस भी होता कि आज तक तो मैं सिर्फ घर-परिवार में ही उलझी रह गई, कभी ख़ुद पर ध्यान ही नहीं दिया। जिंदगी मस्ती और उल्लास से भर गई। वक्त के पर लग गए और मैं हवाओं में उड़ रही थी।
आज व्यस्तता थोड़ी ज़्यादा थी। मेरा जन्मदिन जो था और काफ़ी सालों के बाद मेरा जन्मदिन मनाने की योजना बनी थी। इस योजना की मुख्य कर्ता-धर्ता मिली ही थी। मैं उस पर और उसके परवाह पर वारी जा रही थी। कितना सोचती है मेरे लिए। इतना तो कभी मेरे अपने परिवार ने भी नहीं सोचा मेरे लिए। शादी के बाद तो कब जन्मदिन आता और चला जाता, पता ही नहीं चलता।एक घरेलू महिला के रुप में गुजर रही जिंदगी में, मैने भी कभी इन बातों को तूल न दिया। लेकिन आज जो आनंद आ रहा था, वो उम्मीद से परे था।इन्हीं ख्यालों में गुम जल्दी-जल्दी सुबह का काम निपटाया और टाईम पास के लिए टीवी ऑन किया ही था कि बेटे के स्कल से बुलावा आ गया। पता चला कि खेलते-खेलते वह ग्राउंड में गिर गया। थोड़ी चोट भी लग गई सो वापस लेकर आना था। पतिदेव तो घर में थे नहीं, पास से रिक्शा लेकर मैं ही चली गई। स्कूल पहुँच कर सारी औपचारिकताएँ पूरी की और बेटे को लेकर निकल गई। अभी कुछ ही दूर आई थी कि सामने कुछ दूरी पर नज़र ठहर गई। ये तो मिली थी। यहाँ क्या कर रही है। इसने तो कहा था कि आज बहुत व्यस्त हैं। "अच्छा तो मैडम जी मेरा बर्थडे अरेंजमेंट कर रहीं हैं, मुझसे छुपा कर और मुझसे बहाना बनाया कि शाम तक बीजी हूँ।" सोच कर ही मेरा मन झूमने लगा। कुछ देर के लिए मैं बेटे की चोट भी भूल गई और उसका सरप्राइज न खराब हो, इसलिए उसे आवाज भी नहीं दिया। बस चुपचाप निकलने ही वाली थी कि बगल की दुकान से निकलते शख़्स को देख धड़कने रुक गईं। ऐसा क्यों हुआ, नहीं बता सकती लेकिन हुआ था ऐसा। मेरी सांसे थम गई थीं कुछ पल के लिए.... "तो क्या ये दोनों मिलकर मेरे बर्थ-डे का आयोजन कर रहे हैं" दिमाग नें दिल को तसल्ली देते हुए प्रश्न किया। खुद से ही सवाल जवाब करते हुए वह आगे बढ गई। क्या था जो उसके दिल में अटक सा गया था? क्या पति के हाथ में आइस्क्रीम के वो कोन, जो आज तक कभी उन्होंने मेरे लिए नहीं खरीदी, या फ़िर लिपस्टिक ठीक करने के लिए बढ़ाया हुआ रुमाल.... सबकुछ तो सामान्य ही था फिर भी कुछ था जिसने जिंदगी की रवानी को रोक सा दिया था। कब घर आ गया पता ही नहीं चला। शाम भी हुई, सालगिरह भी मनी, धूम-धड़ाके भी हुए लेकिन नज़र और जिगर, कहीं ठहर से गए थे। सबने इस बात का संज्ञान भी लिया लेकिन बेटे की चोट को इसका कारण समझ, ज़्यादा खोजबीन नहीं की गई। मैने दिल को तसल्ली देने की बहुत कोशिशें की मगर एक पत्नी का दिल था। आने वाले तूफ़ान का अंदाज़ा कर चुका था। सब कुछ तो एकदम पूर्ववत ही था लेकिन आँखों से उतरे पर्दे के पीछे सब साफ-साफ नज़र आ रहा था। मैंने कभी इशारों में, तो कभी हिदायतों में, बात को संभालने के लाख प्रयास किए, लेकिन बात निकली भी और बहुत दूर तक गई भी।पीछे छूट गई तो सिर्फ मैं। भावनाओं का जो इक बवंडर उठा, उसने मेरे प्यार,परिवार और समर्पण की चूलें हिला कर रख दी। विरोध का परिणाम ये हुआ कि आवारगी का एक सैलाब बह निकला जिसने मुझे, मेरी ही दहलीज़ से बाहर कर दिया।
महीनों बाद आज अपने मायके में, अपने माँ-बाप, भाई-बहन और अपने बेटे के सामने, आँखों में आक्रोश, मन में तपिश और हाथों में तलाक़ के काग़ज़ात लिए, अपमान की प्रतिमूर्ति बनी मैं बेवश खड़ी हूँ। आँखों में छाते हुए अंधेरे के पीछे उसकी इठलाती-इतराती छवि घूम जाती है और दिल के अंदर, गहरे एक कसक उठती है जो चीखती हुई कह रही है कि "काश!!! मैं तुमसे ना मिली होती........ मिली।"
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