Book Review of 'Dehshat'
शहर के वीभत्स पर्दे के पीछे के अपराध में जीवन का स्पंदन
अंग्रेजी साहित्य में जासूसी और नेगेटिव शेड्स वाले थ्रिलर उपन्यास का चलन हिन्दी की तुलना में बहुत अधिक है। एक समय था जब देवकीनन्दन खत्री और गोपालराम गहमरी द्वारा लिखित जासूसी और ऐयारी उपन्यासों का दौर था, तत्पश्चात् इब्ने सफ़ी बी. ए. के उर्दू उपन्यासों का हिंदी अनुवाद, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्रमोहन पाठक, विमल पंडित और रितुराज के जासूसी उपन्यासों की लहर चली। हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री रचनाकार द्वारा सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले थ्रिलर अथवा रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास लेखन विरली घटना है। नीलम कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘दहऽऽशत’ भारतीय समाज में देवी अथवा पूज्या माने जाने वाली स्त्री की प्रचलित छवि के विपरीत स्त्री के एक ऐसे रूप को अभिव्यक्त करता है जिसमें संस्कार नाम की कोई चीज़ ही नहीं है, जो अपने ‘स्त्रीत्व’ को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती तथा जिसके लिए नैतिकता अथवा आदर्श का कोई महत्त्व नहीं।
महिला समिति के बहाने से अपनी बंधी-बंधाई दिनचर्या से कुछ पल चुरा कर नीता, अनुभा व उपन्यास की नायिका समिधा, समिति की मीटिंग के ’महिलानुमा दिन’ का भरपूर आनन्द उठाती हैं। हमारे समाज में स्त्री भले ही कामकाजी हो अथवा घरेलू, उसकी दिनचर्या इतनी मशीनी होती है कि वह अपने जिंदा होने को धीरे-धीरे भूलने लगती है। ’’लाख वह एक व्यक्ति की तरह जीने की कोशिश करती है किन्तु स्त्री की चैखट में कैद हो जाती है या कर दी जाती है।’’ (पृ 9)
स्थापित देवी स्वरूप और प्रचलित दासी स्वरूप में श्रेणीबद्ध, घर-परिवार के लिए दिन-रात खटने वाली खांटी घरेलू औरत, पुरुष की मनमानियों और गैर ज़िम्मेदाराना हरकतों से बार-बार आहत होती है परंतु वह आखिरी साँस तक अपने परिवार को टूटने से बचाना चाहती है क्योंकि उसकी दृष्टि में, ‘‘विवाह एक स्त्री व पुरुष के बीच का रिश्ता भर नहीं है, न ही सिर्फ दैहिक कामनाओं की आपूर्ति। यह एक हसीन सामाजिक व्यवस्था है जो समाज से जोड़ती है, ढेरों रिश्तों का सुख देती है।’’ (पृ 135)
भौतिकता की अंधी दौड़ मनुष्य को पतन के गर्त में धकेल रही है। तथाकथित आधुनिक युग में ‘ईज़ी मनी’ कमाने की आड़ में वेश्यावृत्ति में संलिप्त एक ऐसा संभ्रात वर्ग पैदा हो चुका है जो शहर के माॅडर्न, पाॅश इलाके में सभ्य, सुसंस्कृत परिवारों के आस-पास चुपचाप अपने पाँव पसार रहा है। इस वर्ग की स्त्रियां सामाजिक आयोजनों, महिला क्लबों अथवा किट्टी पार्टियों के माध्यम से विभिन्न परिवारों की महिलाओं से मेलजोल बढ़ाती हैं और फिर उनके माध्यम से परिवार के पुरुषों तक अपनी पहुँच बना लेती हैं। परिवार की हित-चिंतक बनकर विश्वास जीतती हैं।
पूजा-पाठ, व्रत-उपवास का स्वांग रचकर ऐसी स्त्रियां अपनी शुचिता के प्रमाण जुटाती हैं। कभी प्रसाद की आड़ में और कभी घर में किसी जन्मदिवस, पार्टी अथवा आयोजन की बात कहकर खाने-पीने की चीजें एक से दूसरे परिवार तक पहुँचाई जाती हैं इसके बाद आरंभ होता है सम्बंधित पुरुष के दिमाग को अपनी गिरफ़्त में लेकर अश्लील गानों तथा पोर्न सी. डी. के माध्यम से उसकी कामुकता को मानसिक विकार में परिवर्तित करने के कुचक्रों और षड्यंत्रों का अंतहीन क्रम। आश्चर्य ये है कि इसमें साथ दे ते हैं पति बेटी व बेटा।
प्रस्तुत उपन्यास में ईज़ी मनी कमाने वाले ऐसे ही वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, उनके अनगिनत शिकारों में से एक हैं-समिधा का पति अभय। समिधा केम्पस के प्रशासन से शिकायत करती है तो इस उपन्यास में ये देखना एक दिलचस्प वाक्या है कि फ़िल्म 'मंडी' की तरह एन सभ्य समाज के बीच में देह व्यापार करने वालियों व शौकीनों का एक दल ही बन जाता है जो समिधा को 'सायकिक' साबित करने पर तुला है। शबाना आज़मी की मंडी में वेश्याओं को शहर से बाहर बसा दिया जाता है तो फिर उनके चारों ओर वहां नया शहर बस जाता है।
कविता की आंखों का हिंस्र भाव, उसकी चेष्टाएं और सबसे बढ़ कर उसकी वहशी मुस्कराहट लाख पर्दों में छिपी होकर भी समिधा की आंखों से बच नहीं पाती। जिसमें उनका साथ देने लगता है- विकेश अभय का सबसे करीबी दोस्त। फिर भी अभय उस पर आँख मूंदे विश्वास करता है जबकि विकेश समिधा को न हासिल कर पाने व अभय के परिवार प्रगति से जलता अभय के विवाहित जीवन को ही कविता के साथ मिलकर ख़त्म करने पर आमदा है।
समिधा अपने आप से ही सवाल पूछती है, ‘‘क्या पाज़िटिव-नेगेटिव एनर्जी की बातें सच हैं?‘‘(पृ 239) वह अभय की सच्चे अर्थों में अर्धागिनी रही है परंतु कविता के हत्थे चढ़कर अभय पूर्णतः बदल जाता है। वह समिधा पर चिल्लाता है, उसे गालियां देता है, घर में तोड़-फोड़ करता है और अन्ततः एक दिन उसे पीट भी देता है। समिधा चूँकि जानती है कि अभय के इस बदले हुए व्यवहार के पीछे कविता के गैंग का हाथ है अतः वह अपनी परवाह न करके अभय को बचाने की हर संभव कोशिश करती है। विभाग में लिखित शिकायत देती है, कविता और विकेश की काॅल डिटेल्स निकलवाने के लिए दर-दर भटकती है, घर का फोन टैप होने, उसकी नज़रबंदी किए जाने और उसे ट्रक के नीचे कुचल कर मार दिए जाने की घृणित कोशिशों के बावजूद वह अपने लक्ष्य को आंखों से ओझल नहीं होने देती। विरोधी पक्ष की धमकी कि ‘‘अकेली औरत आखिर क्या कर लेगी‘‘, उसके लिए चुनौती बन जाती है।
समिधा केम्पस के प्रशासन से शिकायत करती है तो इस उपन्यास में ये देखना एक दिलचस्प वाक्या है कि फ़िल्म 'मंडी' की तरह एन सभ्य समाज के बीच में देह व्यापार करने वालियों व शौकीनों का एक दल ही बन जाता है जो समिधा को 'सायकिक' साबित करने पर तुला है। शबाना आज़मी की 'मंडी' में वेश्याओं को शहर से बाहर बसा दिया जाता है तो फिर उनके चारों ओर वहां नया शहर बस जाता है।
अभय के विभाग के लोग उसे साइकिक समझने लगते हैं। उसे एक ऐसी नीम-पागल औरत घोषित कर दिया जाता है जो मनोहर कहानियां पढ़ कर और तुलसी, पार्वती के टी.वी. सीरियल देख कर पगला गई है। समिधा दूसरों के कहने-सुनने की परवाह किए बगै़र अपने पति और परिवार का रक्षा कवच बन जाती है, आसुरी शक्तियों के दहन के लिए पावन यज्ञ की आहुति-समिधा बन जाती है। उसके परिवार तक पहुँचने वाली प्रत्येक बुरी नज़र उससे टकराकर लौट जाती है। वह अपनी बेटी रोली को स्त्री की उत्कट जिजीविषा और अदम्य संघर्षशीलता का परिचय देने वाली एक पौराणिक कहानी सुनाते हुए कहती है, ‘‘ये पौराणिक कथायें धार्मिक त्यौहारों के बहाने औरतें पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी बेटियों को सुनाती हैं। वे बेटियां अपनी बेटियों को जिससे वे अपने से जुड़े पुरुषों की देखभाल में, उनकी रक्षा में जी जान लगा दें।‘‘(पृ-187) बेटी द्वारा आपत्ति जताने पर समिधा उसे समझाते हुए कहती है, ‘‘वे अपने से जुड़े पुरुषों की रक्षा करेंगी तभी तक वे भी सुरक्षित हैं। इनके बहाने वह अपनी भी रक्षा करती हैं वर्ना बाहर की दुनिया तो एक जंगल है।’’ (पृ 187)
बाहर के जंगल को घर के भीतर तक उग आने से रोकने के लिए समिधा खुद अवरोधक बन कर रास्ते में डटी रहती है। अकेले में वह डरती है, अनहोनी की दहशत उसके रेशे-रेशे में व्याप्त हो जाती है, कभी उसे लगता है कि वह इन नर-पिशाचों के हाथों बेमौत मारी जाएगी, सारी दुनिया द्वारा पागल समझी जाने पर भी समिधा थक कर बैठ नहीं सकती, थम कर साँस नहीं ले सकती। अपने बचाव में पुलिस की सहायता भी नहीं ले सकती। वह बार-बार स्वयं को आश्वस्त करती है कि ड्रेक्यूला भले ही कितना जहरीला और भयावह क्यों न हो, बुराई का अंत अवश्यमभावी है। ‘‘बार-बार कोई अच्छा इंसान ड्रेक्यूला को मार देता है। कभी पानी, कभी आग, कभी क्राॅस से, कभी धूप से लेकिन कितने बरस? वह फिर-फिर जन्म लेता है और पिशाच पैदा करता है। एक अच्छा इंसान फिर उसका अंत करता है।’’ तो क्या इस प्रसंग में शी. डेªक्यूला कविता है और अच्छे इंसान के रूप में उसका अंत करने की भूमिका समिधा निभा रही है?
परिस्थितियों ने उसे ऐसे झंझावात में उलझा दिया है कि किसी सूरत निस्तार दिखाई नहीं देता। वह कदम-कदम पर कविता की सारी चालें नाकाम कर देती है, उसके सारे मंसूबों पर पानी फेर देती है परंतु तूफान है कि थमने का नाम नहीं ले रहा। समिधा का मन होता वह दुनिया से चीख-चीख कर कहे कि लाख शिकायत करने वाली औरतों को तुम पागल करार करते रहो या फंसाते रहो झूठे मुकद्दमों में लेकिन अब तो न जाने कितनी समिधाएं रूप बदल-बदल कर जन्म लेंगी......न जाने कितनी सदियों तक........न जाने कितने जन्मों तक।’’ (पृ 278)
‘दहऽऽशत’ उपन्यास में वर्णित समस्या कपोल कल्पित न होकर हमारे समाज की एक ज्वलंत समस्या है जो महानगरों में बड़ी तेजी से फैल रही है। ‘ईज़ी मनी’ के नाम पर पुरुषों को चंगुल में फंसा कर कविता जैसी स्त्रियां पैसे और गहने तो ऐंठती ही हैं अपितु उनके परिवारों में दरार डालकर उनकी सम्पत्ति तक भी हड़प लेती हैं। पहले देह व्यापार एक लेन देन वाला व्यापार था लेकिन समाज के बाज़ारीकरण के कारण कुछ लोगों द्वारा गंदा गेम खेलकर ड्रग्स का इस्तमाल कर इसे घृणित अपराध भी बना दिया जाता है।
इस उपन्यास की ख़ूबसूरती ये है कि ये महिला समिति के क्लब में होने वाले फ़ंक्शंस नृत्यों गीतों महिला बतकहियों से पाठक को इस भीषण अपराध से बार बार खींच लाकर एक मनोरंजन व आल्हाद में सराबोर करता चलता है क्योंकि समिधा एक कुशल नर्तकी भी है।
भूमिका में लेखिका ने लिखा है कि ‘यह उपन्यास कोई उत्कृष्ट साहित्य-सृजन के लिए नहीं लिखा गया है‘ अपितु लेखिका का उद्देश्य समाज में ‘पागल’ ‘साइकिक’ अथवा ‘डायन’ मानी जाने वाली औरतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना और माॅडर्न कहलाने वाले समाज के उस लिजलिजे हिस्से को उजागर करना है जो हमारे सिस्टम से प्रश्रय पाकर बेख़ौफ़ अपनी जड़ें पसार रहा है। इस उपन्यास में लेखिका ने इस घृणित सिस्टम की पर्तें उघाड़ी हैं जिसके साये तले पाप और अपराध पनपता है और जिसकी गिरफ़्त में सिसकती समिधाएं साल-दर-साल दहशत के साये में मर-मर कर जीती हैं। मुठ्ठी भर रेत की मानिंद एक-एक करके उनकी सारी खुशियां हाथ से सरकती चली जाती हैं। ज़िंदगी के दोराहे पर खाली हाथ और रीते मन खड़ी यह समिधाएं समाज की नकारात्मक शक्तियों के विरुद्ध सकारात्मकता का अक्षय ऊर्जा स्रोत हैं।
Dr Ritu Bhanot
दहऽऽशत, उपन्यास, अमन प्रकाशन, कानपुर-------
नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद (गुजरात), मो. 9925534694