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मैं तो ओढ चुनरिया - 23

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय तैंतीस

बचपन बचपन ही होता है । एकदम भोला और मासूम । दुनिया जहान की फिक्रों से बेखबर । सीधा और सच्चा । इसकी बात यूँ याद आई कि मैं चौथी कक्षा में पढती थी । मेरी कक्षा में मेरे साथ तीस लङकियाँ और पढती थी । सब अलग अलग जातियों से । उसी कक्षा में चार कुम्हारों की लङकियाँ भी पढती थी । पुष्पा , शीला , दया और क्षमा । एक बार ये चारों लङकियाँ कक्षा से अनुपस्थित रहने लग गयी । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । एक एक कर सात आठ दिन बीत गये । नौवें दिन बहनजी ने कक्षा में पूछा कि क्या तुम में से किसी को पता है कि ये लङकियाँ क्यों नहीं आ रही ।
सब चुप थे क्योंकि किसी को कारण पता ही नहीं था । आधी छुट्टी को खाना खाने के बाद सब खेलने लगे । अचानक चंदा ने कहा – अब शीला कभी पढने नहीं आएगी । उसकी पढाई छूट जाएगी ।
क्यों ? क्यों ? क्यों ? – एक साथ कई आवाजें सवाल बन गयी ।
परसों उसकी शादी हो गयी । चार महीने बाद उसका गौना होगा और वह अपनी ससुराल चली जाएगी ।
बेचारी ! सबने ठंडी साँस भर कर कहा ।
मेरे लिए यह शादी शब्द नया था । सारी रात इसी बारे में सोचती रही । अगले दिन पुष्पा और दया स्कूल आयी तो पहचान में ही नहीं आ रही थी । स्कर्ट की जगह लाल रंग की साङी , दोनों हाथ भर लाल और हरे रंग की चूङियाँ , माथे पर बङी सी बिंदी और सिर पर ढेर सारा सिंदुर , पाँवों में बिछुए और पायल । कक्षा में घुसी तो छुनमुन छुनमुन पूरी कक्षा संगीत से भर गयी । सब उन्हें और उनकी साङी को छू छूकर देख रहे थे । दया ने बताया कि उसके सासरेवालों ने ऐसी पाँच नयी नकोर साङी भेजी हैं उसके लिए । साथ ही ढेर सारी चूङियाँ और ढेर सारा सिंदुर भी । पुष्पा को ससुराल से गले के लिए चाँदी की हँसुली और अँगूठी मिली थी । कानों की बाली उसके बाबूजी ने बनवायी थी और पायल और नाक की लोंग मामा लेकर आय़े थे ।
मुझे तो वे दोनों मंदिर में रखी माँ अम्बा की मूरत जैसी लगी । फर्क इतना ही था कि ये बोल रही थीं और मूरत अचल अडोल खङी रहती है । उस दिन पूरा दिन उनकी शादी की बातें सुनते हुए बीता । शादी में कौन कौन आया था । क्या पकवान बने । मंडप में उनकी बहनों ने दूल्हे को कैसे परेशान किया । एक एक बात बार बार कही सुनी गयी ।
स्कूल से घर आई तो वही बातें दिमाग में घूम रही थी । खाना खाते हुए अचानक मेरे मुँह से निकला – माँ मेरी शादी कब है ।
माँ शायद इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी । उसने हैरान होकर पूछा – क्या कहा तूने
तब तक मैं अपनी सोच से बाहर आ गयी थी इसलिए अपनी बात पर शर्मा गयी । माँ ने दोबारा पूछा- तूने कुछ कहा ।
नहीं – मैं चुपचाप कौर कुतर रही थी ।
माँ ने रसोई समेट दी । कमरे में चटाई बिछा दी । मैं चौंके बैठी रोटी कुतरती रही । रोटी खत्म हुई तो स्टोर से अलमारीपोश उठा लायी । रसोई के सारे बरतन ढेर करके वहाँ कपङा बिछाया । फिर एक एक करके बरतन रगङ रगङकर जमाने लगी ताकि अगर माँ ने सुन लिया हो तो उस शर्मिंदगी से बचा जा सके । चार बजे यह सब निपटाकर उठी तो बाहर खेलने का समय हो चुका था । सहेलियों ने पुकारा तो मैं बाहर चली गयी । एक घंटा खेलकर लौटी तो होमवर्क में व्यस्त हो गयी । माँ ने इस बीच कोई सवाल नहीं पूछा तो मैंने मान लिया कि मां ने मेरी बात नहीं सुनी होगी । पर मन में शादी को लेकर उत्सुकता चरम पर थी । उन लङकियों की चमकती दमकती साङियाँ और पायल बार बार आँखों के सामने कोंध रही थी । रात को जब सारा काम निपटाकर माँ के पास लेटी तो फिर से पुष्पा और दया मेरी आँखों के सामने आ गयी ।
माँ तुम्हें पता है , मेरी क्लास में चार लङकियाँ पढती थी । चार दिन पहले उनकी शादी हो गयी । आज पुष्पा और दया स्कूल आयी थी बहुत सुंदर साङी पहन कर । पता है उन्होंने इतनी सारी चूङियाँ पहनी थी और पायल भी और बिंदी भी और मांग में सिंदूर भी । रमा कह रही थी अब वे ससुराल चली जाएंगी अपनी सास के पास । शादी के बाद वे ससुराल क्यूं जाएंगी माँ ।
माँ ने मुझे कस कर गले से लगा लिया – शादी के बाद हर लङकी को ससुराल जाना ही पङता है रानी ।
फिर उन्होंने शादी क्यों की । यही रह जाती अपनी माँ और पिताजी के पास ।
शादी भी सबको करनी पङती है । किसी को जल्दी किसी को देर से । पर हर लङकी एक दिन ससुराल चली जाती है ।
मुझे नहीं करनी शादी । मेंने नहीं जाना जुना ससुराल । मैं तो यहीं रहूंगी आपके पास ।
माँ हँस पङी । ठीक है मत जाना । अभी तो सो जा । सुबह उठना भी है ।
और मैं आज्ञाकारी बच्ची की तरह सो गयी । थोङी देर में ही सपनों की दुनिया मेरे सामने खुलती चली गयी । सपने में एक दूल्हा घोङे पर सवार होकर मेरी ओर आता दिखाई दिया । सजी सँवरी घोङी छम छम करती आ रही थी जिस पर बैठा दूल्हा परछाई जैसा था । सेहरे लगा चेहरा , कमर में लटकती तलवार पर न आगे बैंड न पीछे बाराती । पसीने पसीने होकर मेरी नींद खुल गयी । उसके बाद तो यह सपना मेरी जान का दुशमन हो गया । जैसे ही मेरी नींद लगती , यह ख्वाब आकर मेरी गरदन पर सवार हो जाता । घबरा कर मैं उठ बैठती । कितनी देर तक मेरी साँस अटकी रहती । मैं गायत्री मंत्र का जाप करती । अर्गला स्त्रोत्र पढती । ठाकुर जी से हाथ जोङती कि आज रात जब मैं सोऊँ तो यह सपना दिखाई न दे । पर इस सपने ने सालों मेरा पीछा नहीं छोङा । और खासियत यह कि उस घुङसवार का चेहरा मुझे कभी दिखाई ही नहीं दिया । वरना मुझे उसे ढूंढने के लिए वन वन , बागों में तङागों में , जंगल बेले में और भी न जाने कहाँ कहाँ खोजने जाना पङता । मीराबाई की तरह इकतारा बजाकर मैं भी उसके नाम के गीत बनाती और सुबह शाम गाया करती । लेकिन मेरी किस्मत में मीरा बनना कहाँ लिखा था । भाग्य में तो लिखाकर लाई थी इसी सपने को हर रोज देखना और हर रात को पसीने पसीने होकर उठ बैठना ।
कौन आया था न जाने ।
स्वप्न से मुझको जगाने ।
याद में उन उँगलियों के
है मुझे पर युग बिताने ।।
पर यह उन दिनों की बात है जब मुझे इन सब बातों का मतलब तक पता नहीं था । तब मैं दस और ग्यारह साल की उम्र के बीच से गुजर रही थी ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...

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