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मैं तो ओढ चुनरिया - 17

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय -17

पिताजी माँ की बात टाल गये । लेकिन माँ को जुनून सवार था इसलिए सुबह उठते ही उसने फिर से मकान बनाने की बात छेङी । पर पिताजी को काम पर जाना था और मुझे पढने सो बात बीच में ही रह गयी । समस्या पैसों की थी । मकान बनाना कोई गुङिया की शादी रचाना नहीं था । पर माँ की लगन का क्या करते । माँ मौके बेमौके मकान शुरु करने की बात ले बैठती । आखिर हार कर पिताजी नींव बनाने के लिए मान गये । माँ की खुशी का ठिकाना नहीं था । कम से कम नींव तो बने फिर आगे का देखा जाएगा ।
उसी शाम माँ मुझे साथ लेकर केसरादेई के पास गयी । केसरादेई की हवेली शाहनी की हवेली कहलाती थी । ये किसी रईस मुसलमान की हवेली थी जो विभाजन के दौरान अपना परिवार लेकर पाकिस्तान चला गया था और लाहौर से आए शाह और शाहनी को अलाट हो गयी थी । हवेली बहुत बङी थी । कई कमरे , कई बरामदे थे उस में । बाहर सङक पर खुलता लकङी का बङा सा दरवाजा था जिसमें पीतल की कीलें और कोके लगे थे । दोनों तरफ ऊँचे चबूतरे बने थे जिन पर बंदूक लिए पहरेदारों की मूर्तियाँ खङी की गयी थी । ये मूर्तियाँ बिल्कुल सजीव मालूम होती थी । रौबदार चेहरे वाली इन मूर्तियों की बङी बङी मूछें मुझे बहुत अच्छी लगी । ये बङा दरवाजा हमेशा बंद रहता । अंदर बाहर जाने के लिए इस बङे दरवाजे में एक खिङकीनुमा दरवाजा बना था । सब लोग आने जाने के लिए इसी खिङकी का इस्तेमाल करते । उसके बाद एक लंबी सी डयोढी थी , आजके जमाने के लोग उसे गैलरी कहते हैं । डयोढी पार करने पर एक और दरवाजा था । उसके आगे बनी थी बङी बङी बैठकें । बैठक से आगे बङा सारा आँगन था । फिर एक कुँआ । और सामने दूर दूर तक फैला बरामदा । उसके पीछे लगभग दस कमरे जिनमें शाहनी के किरायेदार रहते थे । ये नाममात्र का किराया देते एक या दो रुपए । अव्वल तो शाहनी का कोई काम कर देते और किराये की भरपाई हो जाती । शाहनी का लाहौर में अच्छाखासा कारोबार था । विभाजन के समय करीब पचास तोले सोना और एक हजार रुपया नकद लेकर वे हिंदोस्तान आ गयी थी । यहाँ आकर उन्होंने सूद पर पैसे देने का काम शुरु किया । और ये काम चल निकला था ।
मैं माँ के साथ डयोढी को पार कर दरवाजे पर आई । वहाँ से बैठक पार कर आँगन में पहुँची तो शाहनी आँगन में चारपाई पर सुंदर कढाई की चादर बिछाए बैठी पालक काट रही थी । माँ ने उन्हें राम राम की और मुझे भी नमस्ते कहने के लिए टहोका दिया पर मैं तो शाहनी को देखती ही रह गयी । सब कुछ भूल कर टकटकी लगाये उन्हें ही देखती जा रही थी । क्या तेजस्वी रूप था । एकदम गोरी चिट्टी , झक सफेद । तीखे नैन नक्श । आँखें बङी बङी जिनमें रौब के साथ ममता भी दिखाई दे रही थी । महंगे रेशमी कपङे का नीला सूट पहने वे देवी लग रही थी । माँ को देखते ही उन्होंने सब्जी एक ओर सरका दी ।
आओ आओ बङे दिन बाद आना हुआ ।
निर्मला अंदर से पीढी तो दे ।
तुरंत एक लङकी दो पीढीयाँ ले आई । माँ पीढी पर बैठ गयी । मुझे भी एक पीढी दी गयी पर मैं तो माँ का पल्ला पकङ कर खङी रहना चाहती थी । उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया – ये तेरी बेटी है । इधर आ । पढती है क्या क्या पढके आई है आज भई तेरी बेटी को तो कुछ भी नहीं आता ।
मैंने एकदम थोङे दिन पहले सीखी कविता सुनानी शुरु करदी –
उठो लाल अब आँखें खोलो
पानी लाई हूँ मुँह धोलो
बीती रात कमल दल फूले
उनके ऊपर भँवरे झूले
अरे वाह यह तो बहुत अच्छा है । वे उठी और अंदर से भुने हुए दाने और गुङ ले आई । ले ये तेरा इनाम ।
माँ ने डरते डरते कहा – शाहनी वो प्लाट लिया था न । उस पर नींव बनानी है ।
कितने पैसे चाहिएं बोल
शाहनी पाँच सौ में हो जाएगा ।
शाहनी ने आवाज दी – अजी इस बच्ची को पाँच सौ रुपये निकाल कर देना । और साथ में हिसाब की कापी भी लेते आना ।
करीब पाँच मिनट बाद एक कमजोर सा आदमी प्रकट हुआ । उसने पैसे और कापी शाहनी को पकङा दी । शाहनी ने एक बार फिर से नोट गिने । सिक्के गिने । और तीन सौ रुपये के नोट और दो सौ रुपये के सिक्के माँ को दे दिये । कापी में लिख कर माँ को हिसाब दिखा दिया । इस बीच मैं कभी शाहनी को देखती , कभी उस आदमी को जिसे माँ ने शाहजी कहा था । पैसे लेकर माँ लौट आई पर मेरे मन में शाहनी की भव्य छवि बस गयी थी जो आँख से ओझल ही न होती थी । साथ ही याद आता साधारण कद काठ का दुबला पतला असामान्य सा शाह नाम का प्राणी झिसका शाहनी से कोई मेल ही नहीं था । शाम को जब हम स्याही की पुङिया बनाने बैठे तो मैंने माँ से शाहनी के दिव्य रूप का जिक्र किया । माँ ने एक ठंडी साँस ली – हाँ बेटे , जितनी तन से सुंदर हैं ,उससे कहीं ज्यादा मन सुंदर है उनका । सती है वे सती ।
चल आज तुझे इन्हीं की कहानी सुनाती हूँ । कोहाट में एक कपङे के व्यापारी थे । तीन बेटे थे उनके और एक बेटी । बेटी का केसर घुला रंग देखकर दादा दादी ने नाम रखा केसर । केसर बचपन से ही बहुत दयालु और समझदार थी । घर में किसी चीज की कमी न थी । एक दिन पिता व्यापार के सिलसिले में लाहोर गये । वहाँ के सबसे रईस लाला भगवान दास से भेंट हुई । बातों बातों में पता चला कि लालाजी का एक ही बेटा है । सोलह साल का । उन्होंने चाँदी के पाँच रुपये देकर रिश्ता पक्का कर दिया ।
घर में जब उन्होंने इस संबंध की चर्चा की तो सबने संतोष ही दिखाया । एक साल बाद तेरह साल की केसर दुल्हन बनकर लाहौर आ गयी । सास ने बहुत लाड चाव किये । एक से एक दामी सूट साङियाँ बनवाकर दिये । एक किलो सोना और पाँच किलो चाँदी के जेवर बरी में चढाए । दोनों शहरों में कई महीने तक इस बरी और शादी की चर्चा रही । पर केसर देखती ,उसकी सास की आँखों में गहरी उदासी छाई रहती है । खासकर जब वह पहन ओढ कर उनके पाँव छूती है । धीरे धीरे सालभर बीत गया पर सास की उदासी कम होने की जगह बढ रही थी । आखिर एर दिन केसर ने सास को घेर ही लिया – अम्मा क्या हुआ । हमसे कोई भूल हुई है तो बताओ । हमें देखकर आप उदास क्यों हो जाती हो
अम्मा का इतने दिन से संभाल कर रखा हुआ बाँध टूट गया । वे फूट फूट कर रो पङी । केसर घबरा गयी । पर चुपचाप देखती रही । जब अम्मा देर तक रो चुकी तो उन्होंने केसर के सामने अपना आँचल फैला दिया – मेरी बच्ची हम तेरे गुनहगार हैं । माधव जिस दिन पैदा हुआ , तभी मैं जानती थी कि यह सामान्य नहीं है पर मेरी ममता अंधी हो गयी । जानती थी कि अगर बाहर भनक लग गयी कि माधव हिजङा है तो खुसरे इसे ले जाते । इसलिए इस राज को सारी दुनिया से छिपाकर रखा । यहाँ तककि लालाजी से भी । बेटी सच यही है । तेरे साथ ज्यादती हुई है । तू जो कहेगी ,जो करेगी वही होगा । अब दोनों घरों की इज्जत तेरे हाथ में है ।
केसर गुमसुम खङी सुन रही थी । चुपचाप कमरे से बाहर हो गयी । दिन भर वह काम में उलझी रही । रात को चुपचाप सो गयी । सास बहु के फैसले का इंतजार कर रही थी आखिर उससे रहा न गया । उसने केसर को पूछा – फिर तेरा क्या फैसला है बेटी
मेरी किस्मत का फैसला तो उसी दिन हो गया था जिस दिन मेरे पिताजी मेरी सगाई करके गये थे अम्मा । अब तो जो किस्मत में लिखा है , वही सच है । आप निश्चिंत रहिए । जो सच आपने राज बनाकर इतने साल से छिपा रखा है , वह राज ही रहेगा ।
सास ने बहु को गले से लगा लिया । और सारी जिंदगी जब तक जिंदा रही , बहु को पलकों पर बिठा कर रखा । केसर ने माधव को हमेशा पति का मान दिया । वही सत का तेज उनके चेहरे पर हमेशा दिखाई देता है । तेरह साल की उम्र में शादी करके आई केसर अब तरेपन साल की हो गयी है , पर रिश्ता आज भी उसी आश्था से निभा रही हैं । कोई शिकवा नहीं , कोई शिकायत नहीं ।
मैंने देखा , माँ की आँखों से आँसू निकल कर गालों पर बह आये हैं । मेरा दिल केसरादेई के लिए श्रद्धा से भर गया ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...

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