प्रायश्चित - भाग-17 Saroj Prajapati द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रायश्चित - भाग-17

अपने परिवार को एक बार फिर से जुड़ा हुआ और खुशहाल देख, दिनेश की मां अब काफी खुश रहने लगी थी। जिसका असर उनकी सेहत पर भी दिख रहा था। धीरे धीरे उनके स्वास्थ्य में भी सुधार होने लगा था।

दिनेश और शिवानी में मां को दिखाने के लिए ही सही अब थोड़ी बहुत बातचीत होने लगी थी। मां की सुधरती हालत देखकर दोनों को ही अपने निर्णय पर संतोष था।
लेकिन वह कहते हैं ना कि जब व्यक्ति इस संसार से विदा लेने वाला होता है तो उसकी सारी बीमारियां कट जाती है। ईश्वर भी अपने पास बुलाने से पहले व्यक्ति को सुखी, खुश व निरोगी कर देता है। जिससे कि उसे अपने परिवार से बिछड़ने का दुख ना हो । हम सांसारिक प्राणियों को इस बात का आभास मात्र भी नहीं होता। ऐसा ही कुछ दिनेश की मां के साथ भी था।
हां, वैसे उस व्यक्ति को जरूर इसका थोड़ा-थोड़ा आभास होने लगता है। लेकिन शायद ही कोई इसे स्वीकार कर पाता हो।
सभी अब उनकी तरफ से निश्चिंत हो गए थे कि मां पूरी तरह से स्वस्थ है। अब वह अपने कुछ दैनिक कार्य भी खुद करने लगी थी। बच्चों के साथ अपना समय बिता कर खूब खुश रहती थी। सबसे ज्यादा खुशी उन्हें अपने बेटा बहू के फिर से एक हो जाने की थी और सब उनकी खुशी में खुश थे। चाहे यह खुशियां स्थाई ना थी।
धीरे धीरे समय पंख लगाकर उड़ रहा था । उन सबको गांव में रहते हुए अब डेढ़ साल होने को आया। लगभग 6 महीने से दिनेश की मां में पूरी तरह स्वस्थ थी।
छुट्टी का दिन था शिवानी ने सुबह के कई काम निपटा लिए थे और दिनेश भी सुबह की सैर से लौट आया था।
दिनेश मां को ना देख कर शिवानी से बोला "मां कहीं बाहर गई है क्या!"
नहीं वह अभी सो कर नहीं उठी!
"क्या! मां तो कभी इतनी देर तक नहीं सोती! तुमने उठाया नहीं उन्हें!

"सर्दी ज्यादा है ना इसलिए नहीं उठाया। उठते ही वो किसी ना किसी काम में लग जाती है तो मैंने सोचा जितनी देर से उठे अच्छा ही है। वैसे मैं उठाने जा ही रही थी उन्हें!"

कहकर वह अपने सास के कमरे में उन्हें उठाने गई। एक दो बार आवाज देने के बाद भी वह नहीं उठी तो शिवानी ने हाथ लगाकर उनको झिंझोड़ा तो उनमें कोई हरकत ना थी। देखकर उसका कलेजा धक से रह गया और उसके मुंह से चीख निकल आई।
उसके चीखने और रोने की आवाज सुनकर दिनेश दौड़कर अंदर गया।
मां की हालत देखकर वह भी‌ स्तब्ध रह गया।
किसी तरह से पड़ोसियों की सहायता से वह उन्हें हॉस्पिटल लेकर पहुंचा। डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया।
सुनकर दिनेश के आंसू निकल आए । अपनी सास के पार्थिव शरीर से लिपट कर शिवानी भी बहुत रोई। रिया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था लेकिन सबको रोता हुआ देखकर वह इतना तो समझ गई थी कि उसकी दादी के साथ कुछ ना कुछ हुआ है। यह सब देख कर वह भी अपनी मां की कंधे पर सिर रखकर सुबकने लगी।
यह बुरी खबर सुनकर दिनेश की बहन भी कुछ देर में ही वहां पहुंच गई। अपनी मां के पार्थिव शरीर को देखकर वह तो चक्कर खाकर बेहोश हो गई। किसी तरह से शिवानी ने गांव की औरतों के साथ उसे संभाला और सांत्वना दी।

किंतु कोई भी शब्द ऐसी परिस्थिति में एक बेटी के लिए बेमानी हो जाते हैं। जिसका पिता पहले ही गुजर गया हो और अब मां! उस पर क्या बीत रही होगी! शायद ही कोई अंदाजा लगा पाए।
मां बेटी का रिश्ता सब रिश्तो में बढ़कर होता है और आज वो मां उसे छोड़ कर चली गई। किस तरह से वह अपने दिल को तसल्ली दे। कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे!

दिनेश ने अपनी बहन को गले लगाकर सांत्वना देते हुए बोला "धीरज रख बहन, तेरा भाई है अभी! मां की कमी तो पूरी नहीं कर सकता फिर भी कोशिश करूंगा कि मैं उनकी हर जिम्मेदारी पर कर सकूं। "
गले लग दोनों बहन भाई खूब देर तक रोते रहे।
सबको रोता बिलखता छोड़कर दिनेश की मां को गांव वाले अंतिम यात्रा पर ले गए। ऐसी यात्रा जहां से कोई वापस नहीं आता।

एक दो दिन बाद जब दिनेश की बहन का मन शांत हुआ तो उसने शिवानी से पूछ "भाभी, पिछली बार मैं जब मिलकर गई थी, तब तो मां पूरी तरह ठीक है। आपसे भी फोन पर जब पूछती थी। आपने हमेशा उनकी कुशलता ही बताई । फिर अचानक से! यह सब!"
"हां दीदी, हम तो खुद सोच सोच कर परेशान हैं। शायद मां का हमारे साथ इतने दिनों का ही साथ था। वैसे भी अब कुछ भी सोच कर क्या फायदा।" शिवानी आंसू पोंछते हुए बोली।

तेरहवीं की क्रिया के बाद दिनेश की बहन ने रोते बिलखते उन दोनों से विदा ली।
दिनेश की मां के साथ ही घर की खुशियां भी चली गई। वैसे भी वह खुशियां अस्थाई तो थी। इसलिए उन्हें, उनके साथ जाना ही था।
दोनों के दरमियां फिर वही चुप्पी की दीवार खिंच गई। दिनेश तो शिवानी से आगे से किसी बात को बोलने की पहल भी ना कर पाता ।उसे हमेशा डर बना रहता कि कहीं वह उसे छोड़कर चली ना जाए। कितनी बार उसका मन करता समझाएं लेकिन यह सोचकर चुप हो जाता, अगर वह नाराज हो गई तो तो क्या होगा!
पर एक ही घर में दो अजनबियों की तरह कब तक कोई रह सकता है। जो गुनाह उसने किया कि नहीं शिवानी उसकी सजा उसे दे रही है और वह ना चाहते हुए भी अपने आप को बेकसूर साबित नहीं कर पा रहा था।
हां ,दोनों बच्चे उन दोनों के बीच एक सेतु का काम कर रहे थे। जिनके कारण शिवानी की वह चुप्पी की दीवार जब तब
ढह जाती।
पहले सास और अब बच्चों की वजह से शिवानी को दिनेश के साथ ना चाहते हुए भी बात करनी ही पड़ती थी। ‌ वैसे वह भी नहीं चाहती थी कि उनके झगड़े व तनाव का असर बच्चों की परवरिश पर हो इसलिए जहां तक होता है, वह बच्चों के सामने सामान्य रहने की कोशिश करती ।
दिनेश की मां को गुजरे हुए 6 महीने हो गए थे। एक दिन जब दिनेश अपने काम से वापस लौटा तो उसने शिवानी से कहा " शिवानी मुझे ,तुमसे कोई जरूरी बात करनी है!"

"हां कहो!" शिवानी रूखीआवाज में बोली।
"शिवानी जिस कंपनी में, मैं काम करता हूं उन्होंने अपनी एक ब्रांच शहर में खोली है और मेरे काम से खुश होकर उन्होंने मुझे ब्रांच मैनेजर बनाया है। इसलिए अब हमें यहां से शिफ्ट करना होगा!"
"दिनेश तुम्हारी तरक्की की खबर सुनकर अच्छा लगा लेकिन मैं और बच्चे यहीं रहेंगे। तुम जाओ।"
"शिवानी तुम अकेले यहां पर बच्चों के साथ, सब कुछ कैसे संभालोगी।‌ मैं चाहता हूं, तुम भी साथ चलो। देखो शिवानी यह तो तुम देख रही हो ,जितने अच्छे स्कूल शहर में है, गांव में नहीं। रिया अब सेकंड क्लास में हो गई है और अगले साल रियान का भी एडमिशन करवाना है। इतना अच्छा मौका हमे मिला है। इसे मैं हाथ से नहीं जाने दे सकता। यह हमारे बच्चों के हित में है।
ठंडे दिमाग से सोचो और फिर फैसला करो ऐसा ना हो जल्दबाजी में लिया गया, तुम्हारा यह फैसला हमारे बच्चों के लिए आगे चलकर नुकसानदायक हो।"
शिवानी कुछ नहीं बोली और उठकर चली गई।
पूरी रात उसे नींद नहीं आई। वह रात भर दिनेश की बातों पर विचार करती रही और उसे भी यही सही लगा कि बच्चों की खातिर उसके साथ शहर जाना ही सही रहेगा।
वैसे भी इन मासूमों का क्या कसूर। पिता की करनी की सजा बच्चों को तो कतई नहीं मिलनी चाहिए।
वैसे भी मैंने अपनी सास से वादा किया था कि दिनेश को छोड़कर नहीं जाऊंगी। जब रहना एक ही छत के नीचे है तो यहां रहूं या वहां क्या फर्क पड़ता है!
सुबह ऑफिस जाने से पहले दिनेश ने शिवानी से पूछा "शिवानी क्या सोचा तुमने!"

"ठीक है मैं चलूंगी !"

"शिवानी मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।" दिनेश मुस्कुराते हुए बोला।
दिनेश की मुस्कुराहट शिवानी के दिल में तीर की तरह चुभ गई।
शिवानी उसे जलती हुई नजरों से घूरते हुए बोली "दिनेश
यह फैसला मैंने बच्चों की खातिर लिया है। यह मत सोचना कि मैं वह सब भूल बैठी हूं। हम साथ जरूर रहेंगे लेकिन नदी के दो किनारों की तरह। जो कभी नहीं मिल सकते। अपनी इस आग में, मैं बच्चों की खुशियां नहीं जलाना चाहती। कहते हुए शिवानी वहां से उठ कर चली गई।

दिनेश चुपचाप उसे जाते हुए देखता रहा। बस मन ही मन सोच रहा था, शिवानी जल तुम रही हो तो मैं भी तिल तिल रोज मर रहा हूं। तुम तो बिना सोचे-समझे, मुझे ऐसे अपराध की सजा दे रही हो, जो मैंने कभी किया ही नहीं। सोचता हुआ दिनेश किसी तरह अपने आप को किसी तरह घसीटते हुए घर से बाहर निकल गया।
दिनेश ने आपने शहर जाने के बात जब अपनी बहन को बताई तो वह उदास होते हुए बोली "दिनेश अब तुम भी शहर चले जाओगे तो मेरा मायका तो बिल्कुल ही खत्म हो जाएगा!"
"ऐसा क्यों कह रही हो दीदी। मजबूरी ना होती तो मैं बिल्कुल भी ना जाता। बच्चों की खातिर मुझे यह सब करना पड़ रहा है। दीदी , कभी आप वहां आ जाना और कभी हम आपसे मिलने आ जाया करेंगे। अगर आप ऐसे बोलोगे तो मेरा जाना मुश्किल हो जाएगा।"
"नहीं दिनेश! तुम सही कह रही हो। मैं थोड़ा स्वार्थी हो गई थी। वैसे भी रिश्तो में मिठास हो तो दूरियां कोई महत्व नहीं रखती और मुझे तो पता है मेरे भाई भाभी मुझे कितना चाहते हैं। ठीक कहते हो तुम जैसे भी जिसको समय मिलेगा, वैसे ही वह दूसरे से मिलने पहुंच जाया करेंगा। चलो तुम वहां जाकर पहले अच्छे से सेटल हो जाओ। फिर मैं बच्चों के साथ कुछ दिन वहां रहने आऊंगी।"

"हां हां बिल्कुल दीदी। हम आपका इंतजार करेंगे !" कह उसने फोन रख दिया।
बच्चे तो गांव छोड़ना ही नहीं चाहते थे। गांव के खुले माहौल में उनका काफी मन रम गया था। गांव छोड़ते समय रिया कितना रोई थी।
एक महीने बाद ही दिनेश परिवार सहित शहर में शिफ्ट हो गया और उसने अपने नये ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल ली।
दिनेश को बच्चों के लिए स्कूल ढूंढने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई ‌। उसके घर से कुछ ही दूरी पर उसे काफी अच्छा स्कूल मिल गया जहां उसने रिया का एडमिशन करा दिया।
क्रमशः
सरोज ✍️