Dhaval Chandni Sea Way - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

धवल चाँदनी सी वे - 3

एपीसोड --3

नीलम कुलश्रेष्ठ

"पंडित जी के कारण । उन्होंने मुझे धीरे-धीरे प्राणायाम सिखाया, शवासन सिखाया, ध्यान करना सिखाया । मेरी तानों की अवधि कम होती गई । अब तो बस रात में सोते सोते एक दो तान आती है लेकिन आती ज़रूर है । कभी पलंग से सिर टकरा जाता है, कभी तकिया खिसक जाता है तो पलंग से नीचे भी गिर जाती हूँ ।" वह बताते-बताते ऐसे मुस्कुरा दीं जैसे किसी और की बात कर रही हों ।

उसने भारत की आध्यात्मिक साधना व उसकी शक्ति की बात सुनी थी लेकिन मधु जी के रूप में वह सामने देख रही थी । मधु जी में इस शक्ति को जाग्रत करने वाले थे पंडित जी ।

बचपन में पंडितजी उत्तर प्रदेश के अपने गाँव आई साधुओं की टोली के साथ चलते चलते गुजरात आ गये थे । उस टोली ने चाँदोद के इसी मंदिर में डेरा डाल दिया था, वह मंदिर के सामने वाले पेड़ के नीचे वज्रासन में बैठे हाथ जोड़े मंत्र का उच्चारण कर रहे थे, ‘योगेन पदेन, चितस्य वाचां, मलं शरीरस्य वैदकेन ।’

उस समय मंदिर के प्रमुख महंत सुबह घूमते हुए उधर से ही निकल रहे थे । इस बच्चे के निर्दोष संस्कृत उच्चारण को सुनकर उनके कदम वहीं ठिठक गये । जब बच्चे ने आँख खोली तो उन्होंने उसके सामने पास जाकर कहा, ‘मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाना चाहता हूँ । मेरे पास रहना पसंद करोगे ?’

उसे मंदिर की भव्यता, आस पास फैले बड़े-बड़े खेत वैसे ही प्रभावित कर रहे थे । उसने तुरंत ही हामी भर दी । महंत ने उन्हें विधिवत दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया । वह उन्हें वेदों के ज्ञान के साथ शास्त्रीय संगीत में भी निष्णात देखना चाहते थे । उन्हें हर तरह की पूजा अर्चना की विधि विधान सिखाने लगे । इन सबमें पारंगत होने के कुछ महींनो बाद ही प्रमुख महंत ने अपनी गद्दी उन्हें सौंप आँखें मूँद लीं ।

मंदिर में रहने वाले लोग ही जानते थे कि दिन भर पूजा पाठ में लगे रहने वाले पंडित जी ‘भरुच क्रांतिकारी पार्टी’ के सदस्य भी हैं । मंदिर में माथा टेकने वाले गाँव वाले जान भी नहीं पाते थे मंदिर के गर्भगृह में कितने हथियार जमा हैं या कौन सा क्रांतिकारी किस कोठरी में वेष बदलकर रह रहा है । क्रांतिकारियों को अनाज देना, हुलिया बदलने की सामग्री देना उनके यातायात के लिये बैलगाड़ी की व्यवस्था करना पंडित जी अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे ।

जब कहीं मंदिर से हथियार कहीं पहुँचाने होते तो या तो उन्हें अनाज के बोरे में छिपाकर बैलगाड़ी से भेज दिया जाता था या किसानों की पत्नियाँ अपने चणियाँ (लहंगे) के नीचे अपनी टाँगों पर उन्हें बाँध गंतव्य स्थान पर निकल पड़तीं । स्त्रियों से काम लेने का काम उनका सहायक महंत करता था ।

मंदिर में हो रहे रात के कीर्तन में जब मृदंग पर थाप पड़ रही होती, हारमोनियम पर ऊँगलियाँ दौड़ रही होतीं तो कोई सोच भी नहीं पाता था कि प्रमुख महंत मंदिर के किसी कमरे में लालटेन की बत्ती को नीचे कर पीले उजाले में किसी घायल क्रांतिकारी की मरहम पट्टी कर रहे हैं या जड़ी बूटियों से कोई दवा तैयार कर रहे हैं ।

जो महंत मंदिर के शास्त्रीय संगीत के किसी उस्ताद को बुलाकर तबले या दिलरुबा पर उनके साथ शास्त्रीय सुर साधा करते थे अब मधु जी की हर जर्जर साँस को अध्यात्म से साधने का बीड़ा उठा चुके थे । उनके दुबले पतले क्लांत चेहरे पर गुलाबी आभा उभरने लगी थी । थोड़े से स्वस्थ होते शरीर के कारण अब वह धुंधलाने लगी थीं, “मैं कॉलेज तो पढ़ने नहीं जा सकती घर पर पड़े-पड़े क्या करूँ?”

“बच्ची ! तुम हिन्दी का अभ्यास आरम्भ करो । इसका साहित्य पढ़ो तो एक विराट दुनियाँ से तुम्हारा परिचय होगा ।”

पंडित जी ने मधु को हिन्दी पढ़ानी आरम्भ की तो इनकी सीखने की क्षमता पर चमत्कृत रह गये । एक वर्ष बाद इन्होंने इनसे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की परीक्षा भी दिलवा दी । उन्हें देश की उन दिनों की उथल पुथल को देखकर ऐसा लगने लगा कि हिन्दी ही इस राष्ट्र को एक सूत्र में बाँध सकती है । उन्हें जैसे ही कोई मेधावी छात्र दिखाई देता उसे पकड़ लेते, बेटा चल राष्ट्रभाषा रत्न की परीक्षा दे ।

उनकी बात को टालना किसी के लिये संभव नहीं था । उस गली के दूर दराज के छात्र छात्राएँ यहाँ हिन्दी पढ़ने आने लगे । मधु जी उन दिनों जब भी कविताएँ पढ़ती तो उन्हें लगता किन्हीं कोमल भावनाओं की लहरी में बही चली जा रही हैं । उनकी कलम स्वतः ही इन भावनात्मक लहरों में डूब चल निकली । उनकी कविताओं को हिन्दी की शीर्षस्थ पत्रिकाएं प्रकाशित करने लगीं । अपने भयंकर दौरे और दमे के बीच भी वड़ोदरा की साहित्यिक गोष्ठियों व मुशायरों में उनकी कविताएँ मंगाकर पढ़ी जाती थीं, “मेरी पीड़ा प्यार हो गई, पतझड़ आज बहार हो गई या चमन आबाद करने को बहारें लेकर आया हूँ ।”

एक दिन होली की शाम को पंडित जी के छात्र उनके यहाँ आ जुटे, पंडित जी, “आज तो ठंडाई बनाई जाये ।”

मजूमदार ने रसोई में सिलबट्टे को खूब रगड़कर धोया । उस पर बादाम, काली मिर्च, खसखस, भाँग, गुलाब की पत्तियाँ खूब बारीक पीसी गई । अपनी घोटी हुई भाँग सबने गिलास भर-भर कर खूब चढ़ाई सब चक्क हो गये ।

तभी चतुर्वेदी ने फरमाईश की, “देसाई और जोशी तुम जाओ और शिवम पान हाउस से पान लेकर आओ ।” जब आधे घंटे तक वे नहीं आये तो सब चिंतित हुए । पंडित जी से नहीं रहा गया तो मजूमदार से बोले, “जो, देखकर आओ वे कहाँ रह गये हैं ?”

“हम दोनों भी साथ में जाते हैं ।” बचे हुए भी दो उठ लिये क्योंकि दिमाग़ में भाँग का सनाका इतना था कि उन्हें लग रहा था पंडित जी के सामने अपनी लड़खड़ाती ज़बान से कहीं उल्टी सीधी बात न कह बैठें ।

तीनों के जाने के बाद फिर आधा घंटा हो गया और पंद्रह बीस मिनट बीते । पंडित जी को बहुत चिंता होने लगी ।

“नीरा जी! जानती हैं, पंडित जी रात के ग्यारह बजे अपने शिष्यों को ढूँढ़ने निकले वे ‘शिवम पान हाउस’ पर नहीं मिले, पता है कहाँ मिले ?”

‘कहाँ ?’

वे ज़ोर से हँस पड़ी थीं, ‘पाँचों’ अपने यहाँ के तालाब सूरसागर की दीवार पर हथेली पर मुँह टिकाये एक लाइन में बैठे दिखाई दिये । पंडित जी का दिल उनका उतरा मुँह देखकर घबरा गये पता नहीं क्या अनहोनी घट गई है । उन्होंने पूछा, ‘आप लोग ऐसे दुखी क्यों बैठे हो ?’

एक ने अपनी लड़खड़ाती आवाज़ में बताया, “पंडित जी ! ‘शिवम पान हाउस’ को बहुत ढूँढ़ा, वह मिल ही नहीं रहा । बेचारा इस तालाब में गिर कर मर गया है ...हा..हा...हा...हा ।” मधु जी ने यह बताते हुए बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकी थी । पंडित जी उन पाँचों को बड़ी मुश्किल से ऑटो में डालकर घर लाये थे । उन्हें सुबह किसी पत्ती का रस पिलाया तो नशा उतरा। जिसका भी नशा उतरता, वह पूछता, ‘मैं कहाँ हूँ?’ जानती हैं, उनमें से आज कोई अमेरिका में डॉक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई प्रोफेसर है, कोई फलाना है, कोई ढिमका है ।

पंडित जी अपने शिष्यों की सफ़लता की इस घोषणा से मुस्कुरा देते । मधु बेन के बीमार जीवन की पंडित जी के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।

उस दिन मधुबेन का दरवाज़ा बंद था । ऊपर की सारी खिड़कियाँ बंद थी । उन्हीं के सामने वाली पड़ोसिन ने अपना दरवाज़ा खोलकर बताया था, पंडित जी बीमार हैं अस्पताल में हैं ।

वह अस्पताल का पता लेकर बदहवास वहाँ के लिये चल पड़ी थी । पंडित जी तो बीमार हैं । लेकिन उस बीमार काया पर क्या बीत रही होगी ?

उस प्राइवेट अस्पताल के चार पलंग वाले वार्ड में उसे देखते ही मधु बेन उसके गले में बाँहें डालकर रो पडी थीं । वह भी हिचकी भरकर रोते हुए सोच रही थी कि वह पंडित जी को पलंग पर चुपचाप लेटे देखकर रो रही है या मधु जी के भविष्य की कल्पना करते हुए । आँसू पोंछते हुए उसने पूछा था, ‘मधु जी कुछ काम बताइये ।’

उन्हों ने अपने को संभालते हुए कहा था, ‘काम की तो कुछ चिंता नहीं है । हमारे खाने पीने का झंझट तो है नहीं । ब्लैक कॉफ़ी तो बना ही लेते हैं । जान पहचान के डॉक्टर का नर्सिंग होम है, चिंता मत करिए ।’

‘हाँ, लेकिन अब तो उन्होंने मुझसे कह दिया है कि बच्ची जो भी प्रयास करना है कर ले, वे ड्रिप ले रहे हैं। मेरे बनाये फ्रूट शेक भी ले रहे हैं ।’ वे नीचे सिर झुकाकर डबडबाई आँखें ऊपर उठाकर बोली, ‘बस महाप्रयाण की तैयारी है ।’

घर लौटकर भी उसका मन स्थिर नहीं हो पा रहा था, क्या होगा मधु बेन का? उनकी हर साँस का संबल तो पंडित जी हैं । वह अंतिम घड़ी भी आ गई, उसने समाचार पत्र में पढ़ा था । पैंतीस वर्ष मधु जी को साथ दे पंडित जी चल बसे थे ।

मधुबेन बयोदशी संस्कार की तैयारी में सफेद साड़ी पहने हुए थी । अंदर से आटा लेकर देना, हवन की सामग्री एक जगह  एकत्र करने में जुटी हुई थीं । उनके घर में कुछ परिचित व रिश्तेदारों की भीड़ भाड़ थी ।

कुछ दिनों बाद उन्होंने बताया था, “आठ अक्टूबर उन्नीस सौ चौरासी के दिन पंडित जी को आत्म साक्षात्कार हुआ था नीरा जी । जब वे ध्यान करके उठे तो उनके चेहरे का जो अलौकिक तेज़ था देखते हुए बनता था । तभी उनको पता लग गया था कि एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु निश्चित है ।”

“आपको कैसे पता लगा?”

“मैं बीमार रहने के कारण बिस्तर से उठ नहीं पाती थी । उन्होंने ज़बरदस्ती बिस्तर से उठना सिखाया, सीढ़ियाँ चढ़ने उतरने की, नीचे जाकर दरवाज़ा खोलने की आदत डलवाई । मेरे पेट में कुछ भी नहीं पचता था। राम जाने उन्होंने क्या मंत्र फूंका या पूजा की, मैं मूँग की दाल का पानी पीने लग गई । जब भी समय मिलता मुझसे जीवन की नश्वरता, आत्मा परमात्मा पर बात करते रहते थे ।”

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com

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