मैं तो ओढ चुनरिया - 16 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मैं तो ओढ चुनरिया - 16

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय -16

पाठशाला में दो चीजें मुझे बहुत अच्छी लगती , एक तो तख्ती सुखाना । हम घर से एक तरफ वर्णमाला और दूसरी तरफ गिनती लिखकर लाते । बहनजी हर बच्चे को बुलाकर उसकी तख्ती देखती फिर तख्ती पोचने भेज देती और हम पाठशाला के इकलौते नल पर बैठे अपनी बारी का इंतजार करते । बारी मिलती तो इतना खुश होते मानो कारुं का खजाना मिल गया हो । फिर घिस घिस कर तख्ती साफ करते , फिर गचनी या मुलतानी मिट्टी से तख्ती पर लेप लगाते । इसके बाद तख्ती धूप में सूखने डाल देते । हर एक मिनट बाद देखने जाते कि कितनी सूखी है । बीच बीच में उसे जोर से हिलाते हुए गाना गाते – सूख मेरी तख्ती सूख । और तख्ती सूख जाती । फिर शुरु होता – दवात में स्याही की टिकिया के साथ पानी डाल उसे हिलाने का – मेरी स्याही सबसे गुड्डल । और तब तक हिलाते रहते जबतक हाथ और कंधे दुखने न लगते ।
दूसरा सबसे अच्छा काम था बारह बजे से एक बजे तक सारे बच्चे लाईनों में खङे हो जाते । और गिनती, पहाङे ,कविताएँ दोहराते । सबकी कोशिश होती ऊँचा से ऊँचा बोलने की । इस दौरान बहनजी आराम से कुरसी की पीठ से कमर लगाकर आँखें बंद कर समाधि में गुम होकर ध्यानस्थ मुद्रा में बैठी रहती । कहीं कुछ गलत बोला जाता तो अचानक अपनी आँखें खोलकर अपना बेंत मेज पर बजा देती ।
इस पाठशाला में मैं पाँच महीने के लगभग पढी फिर अचानक एक दिन मेरा दाखिला आर्य़ कन्या पाठशाला में करवा दिया गया । यहाँ बहुत बङा स्कूल था । बहुत सारी अध्यापिकाएँ और ढेर सारे बच्चे । हर कक्षा के पाँच विभाग । मेरा विभाग था बी । कक्षा में पैतीस लङकियाँ थी और तीन अध्यापिकाएँ पढाने आती । एक हिंदी पढाती । दूसरी गणित और विज्ञान और तीसरी हमें कला , तकली , क्राफ्ट जैसे विषय सिखाती । यहाँ भी आखिरी दो कालांश मौखिक अभ्यास के होते । कक्षाओं में भी लिखित से अधिक ध्यान मौखिक पर ही रहता । पाठ पढना , उसकी कहानी अपने शब्दों में सुनाना , कविताएँ कंठस्थ करना यह सबके लिए जरुरी था । गणित की कक्षा में आधा , पौना , सवा , डेढ के पहाङे याद कराये जाते या फिर कटवा पहाङे ।
क्राफ्ट में हमने गत्ते पर अबरी चिपका कर पुस्तक चिह्न यानि बुकमार्क बनाना सीखा । मैंने कई बुकमार्क बनाये । दोनों मामा के लिए भी और अपने लिए भी ।
माँ ने लोगों के कपङे फिर से सीने शुरु किये थे । वे दोपहर में मशीन निकाल कर बैठ जाती और अक्सर पेटीकोट या शमीज सिल रही होती । इस तरह उन्होंने सौ रुपये इकट्ठे कर लिए । उस समय के हिसाब से एक बहुत बङी रकम थी यह । अब उन्हें धुन सवार हुई कि छोटा सा घर हो पर अपना होना चाहिए । नानी के घर से थोङी दूरी पर एक बाग कटा और उसके प्लाट काटे गये तो माँ नानी को साथ लेकर उसे देखने गयी । एक जमीन का टुकङा माँ को पसंद आया । यह सौ गज का था और कीमत रजिस्टरी का खर्चा मिला कर पाँच सौ रुपये । माँ ने शाम को पिताजी को बताया कि सिर्फ पाँच सौ रुपये का प्लाट है । पिताजी सोच में पङ गये । चालीस रुपये महीना कमाने वाले आदमी के लिए पाँच सौ रुपयों का इंतजाम करना आसमान के तारे तोङने से भी मुशिकल काम था । लेकिन माँ पूरे हौंसले में थी । अगले दिन वे केसरादेई के पास गयी और चार सौ रुपये में अपनी मटरमाला गिरवी रखकर एक रुपया सैंकङा पर ले आई । रुपये पिताजी के हाथ में आये तो वे मान गये । प्लाट का ब्याना दे दिया गया और एक महीने में रजिस्टरी भी हो गयी ।
अगले दिन भंगन कमाने आई तो मैंने बङे अधिकार से कहा – सुन सुनहरी , अब हम यहाँ से अपने नये घर में चले जाएंगे ।
मां पास ही कहीं खङी सुन रही थी । झपटती हुई आई और खींच कर दो झापङ लगा दिये -
तेरे से छोटी हैं क्या ? मौसी कहने में जीभ मुङती है तेरी । नाम कैसे लिया तूने ।
माँ ने बार बार सुनहरी से माफी माँगी – तेरी छोटी बेटी है । माफ कर दे इसे ।
सुनहरी बार बार झुके जाए । कोई न बहनजी । मैंने तो कान ही नहीं दिया । आप ने ऐसे ही चमेटा लगा दिया ।
माँ अंदर जाकर अपना पुराना सूट और एक रुपया ले आई । मेरे हाथ से उसे दिलाया तब जाकर माँ को चैन मिला । मैंने उस दिन एक बात सीखी कि घर में काम करनेवाले सबको आदर देना चाहिए खास तौर पर जब वे उम्र में आप से बङे हों ।
उस दिन से माँ को खब्त हो गया कि जितनी जल्दी हो सके , ब्याज पर लिया चार सौ रुपया उतारना है । वे दिन में बनियानों के लेबल लगाती । तब एक दर्जन बनियान पर लेबल लगाने के पाँच पैसे मिलते थे । आठ दर्जन से ज्यादा उठाकर लाना असंभव काम था तो माँ चार चार दर्जन के दो बंडल दस बजे लेकर आती और तीन बजे तक पूरा करके वापिस छोङ आती । शाम के लिए वे टाफी या स्याही की पुङिया ले आती । रात को लालटेन की रोशनी में हम माँ बेटी या तो टाफियों पर रैपर चढाते या स्याही की पुङिया बाँधते । सौ टाफी के रैपर चढाने पर पाँच पैसे मिलते और स्याही की पुङिया के दर्जन के पाँच पैसे । इस तरह एक डेढ रुपया हर रोज बन जाता । पर यह मुश्किल काम था । खास तौर पर मेरे जैसी पाँच छ साल की छोटी बच्ची को अपने ललचाते मन को काबू में करके टाफियों पर कागज चढाना किसी साधक की साधना से कम नहीं था । ऊपर से नींद अलग उधम मचाये रहती । आँखें बंद हो जाती तब माँ हौंसला देती बस दस टाफी और करले तब तक मैं तुझे एक कहानी सुनाती हूँ और मैं कहानी सुनने लग जाती ।
खैर माँ की मेहनत सफल हुई और आठ महीने बाद माँ ने सारा कर्जा उतार दिया । केसरादेई ने ब्याज में से दस रुपये छोङ दिये थे । उसी दिन माँ ने शाम को पिताजी से मकान की नींव रखने की बात की ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...