साहित्य की जनवादी धारा
डॉ0 स्वतंत्र कुमार सक्सेना
साहित्य के पाठक एवं रचनाकार सुधी जन सबके मन में यह प्रश्न उठता है । साहित्य में जनवादी कौन सा तत्त्व है? साहित्य की कई धाराएं हैं। कुछ साहित्य को स्वांत: सुखाय मानते हैं । कुछ के लिये साहित्य आंतरिक भावों की अभिव्यक्ति है । साहित्य में जनवाद नई विधा नहीं है ,यह पुरातन है । हमारा समाज आदिम कबीलाई युग के बाद से ,दास प्रथात्मक समाज ,सांमत वादी समाज ,व वर्तमान पूंजीवाद युग का समाज वर्गों में बंटा समाज है ।इसमें कुछ शोषक- शासक वर्ग के लोग हैं जैसे पुराने जमाने में दासों के मालिक (भारत में 1868 तक दास प्रथा खत्म होने तक ),कुछ राजे –महाराजे (स्वतंत्रता के पहले तक )जमींदार ,बड़े - समृद्ध किसान,पूंजीपति , मिल मालिक ,सेठ-साहूकार ,व्यापारी ,अफसर, नेता ,आदि शेष मजदूर ,छोटे- मध्यम किसान,दस्तकार ,निम्न- मध्यम वर्ग के लोग ,शोषित पीिड़त करोड़ों जन हैं । यहीं साहित्य की भूमिका की बात है
साहित्य कला का उद्धेश्य –कला शब्द, रंग -रेखाओं ,स्वर- ताल , भंगिमा-मुद्रा द्धारा प्रकृति के जीवन को पुन: सृजित करती है ,जीवन को गहरे अर्थों में प्रतिबिम्बित करती है ।
सत्ताधारी वर्ग अपनी सत्ता को कायम रखने के लिये मात्र भौतिक बल (पुलिस, सेना, अदालत, जेल ) का ही दमन तंत्र के रूप में प्रयोग नहीं करता ,वरन् मूल्यों और विचारों के तंत्र पर भी एकाधिकार जमाता है ,और बुद्धि-जीवी ,मध्यम वर्गी लोग बहुधा सत्ता के प्रचार प्रसार से भ्रमित होकर या लोभ वश/ दबाव वश सत्ता सीन की सेवा करने को विवश होते हैं ।
वह कला या साहित्य जो सुविधा जीवी साहित्यकारों या कलाकारों द्धारा सत्तासीन शक्तियों की तरफ दारी में सृजित की जाती है । उसे दरबारी कला या साहित्य कहते हैं । दूसरी तरफ हर युग में ऐसे साहित्यकार /कलाकार रहे हैं जिन्होंने सुविधा/पुरूस्कार और सम्मान को ठोकर मार कर शोषित पीिड़त जनों की पीडा को वाणी/अभिव्यक्ति दी है ।मध्य युग में रचा गया संत व सूफी साहित्य हमारे देश में एक प्रेरणा स्पद साहित्य है ।प्रत्येक जनवादी साहित्य का सबसे बहुमूल्य सार है ,साधन हीनों के प्रति सहानुभूति एवम् उनके संघर्ष में तादात्म्य । साम्राज्यवादी – पूंजीवादी व्यवस्था व सामंती मूल्यों का सक्रिय व निरंतर विरोध ।मात्र उत्पीड़न व अत्याचारों की सपाट अभिव्यक्ति ही पर्याप्त नहीं वरन् उनके पीछे कौन सी शक्तियां हैं,कौन से विचार व कला रूप के पीछे क्या छिपे उद्धेश्य हैं ,इसे उजागर करना आवश्यक है ।
यथास्थिति वादी लोग पुन: हमारे देश में अंधविश्वास, भाग्यवाद ,जादू –टोना ,चमत्कार को बढ़ावा दे रहे हैं । ताकि लोग अपनी समस्याओं का हल इन तरीकों में ढूंढें व सामूहिक संघर्ष व वास्तविक हल से इनका ध्यान मोड़ा
जा सके जैसे-गणेश जी का दूध पीना ,लॉटरी से धनवान बनने के सपने का विस्तार । आजकल एक और प्रवृत्ति है विज्ञान को मानव जीवन की कठिनाईयों के हल में अक्षम साबित करना व जीवन की समस्याओं का हल आध्यात्म में ढूंढना ।
जनवादी लौकिक कठिनाईयों का हल लौकिक जीवन में ही ढूंढता है । किसी अलौकिक हल ,अवतार वाद व व्यक्ति वाद में आस्था नहीं रखता । वह पीड़ित मानवता के मुक्ति संघर्षों में हिस्सा बंटाने की प्रेरणा व साहस देता है ।
जनता के साहित्य से अर्थ ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को व जीवन आदर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो व उसे मुक्ति पथ पर अग्रसर करता हो ,इस मुक्ति पथ का अर्थ ,राजनैतिक , सामाजिक ,आर्थिक मुक्ति से लगा कर अज्ञान से मुक्ति तक है। अज्ञान से मुक्ति का अर्थ है एक नव जागरण का संदेश ।
सुबह होने तक दीपक जलाए रखने का नाम है जनवाद ,
खनकती बेिड़यों को तोड फेंकना ही नहीं ,मुक्ति पथ पर कुलांचें भरने को आमंत्रण ,जब हम सब भय मुक्त होकर नये समाज के सृजन में निरत हों । मर कर स्वर्ग की कामना नहीं ,पृथ्वी पर स्वर्ग के सृजन की कामना संजोने वाला साहित्य ही जनवादी साहित्य है ।ये सपने हमें सिर्फ देखने नहीं हैं इनका निर्माण करना है और इनके निर्माण में आने वाली रूकावटों को न सिर्फ पहिचानना है वरन् उन्हें दूर करने का नाम जनवाद है।यह मात्र अतीत की प्रशंसा व आत्ममुग्धता से प्राप्त नहीं होगा वरन् निरंतर संघर्ष ,सहयोग एकजुटता से प्राप्त होगा ।और साहित्यकार की भूमिका जनता को मुक्त पथ का मार्ग बताने वाले मशालची की होगी ।
परंतु साहित्य कहीं मात्र नारेबाजी बनकर न रह जाए ,वह हमारे बृहत्तर शोषित पी िड़त जन की पीड़ा को अभिव्यक्ति दे ,न सिर्फ अंधेरा व परछाईंयां वरन् वे विषैले नख- दंत भी जाहिर करना है जो इनके पीछे हैं ।
जो साहित्य पारलौकिक स्वप्न दे ,अंधविश्वास की अंधेरी खाई में जनता को धकेल दे ,साम्प्रदायिक ता की मदिरा में जन समूह को मदहोश कर उंच नीच का विष पिला कर मानव को मानव से आत्म हंता दंगे में उलझा कर देश में घृणा का साम्राज्य कायम कर देश की एकता खतरे में डाल दे ऐसे साहित्य को जनवादी साहित्य नहीं कहते ।परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर से कोई सरोकार नहीं रखते । हमारी संस्कृति में जो भी श्रेष्ठ व मंगलकारी है ,प्रेरणास्पद है ऐसे सम्पूर्ण धरोहर को शिरो धार्य करते हुए हम विवेक से निरंतर निर्णय करते हें कि क्या लेना है व क्या छोड़ना है ।
सारा नया अच्छा है व सारा पुराना त्याज्य है व इसके विपरीत भी हमें स्वीकार्य नहीं ।
पुराणमित्येव न हि साधु सर्व
भारत के कोटि कोटि शोषित पीड़ित जनों की पीड़ा व संकटों की चीत्कार को गर्जना में बदलने वाले उनके स्वप्नों के शिल्पी हैं जनवादी ।
सावित्री सेवा आश्रम डबरा