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स्वतन्त्र सक्सेना के विचार - 4

लेख

वैज्ञानिक चेतना , भविष्‍य केा जानने की चिन्‍ताएं

डॉ स्‍वतंत्र कुमार सक्‍सेना

भविष्‍य के प्रति जिज्ञासा व चिन्‍ता सारे मानव मात्र में है प्रत्‍येक व्‍यक्ति जानना चाहता है कि कल कैसा होगा ।आज हमारे पास बहुत सारे साधन हैं । व्‍यवस्थित जीवन है । परन्‍तु जीवन जटिल भी है तनाव युक्‍त है उसे व्‍यक्ति अपने परिवेश की विभिन्‍न सूचनाएं’ (जानकारियां) प्राप्‍त करके ऐसी ही घटनाएं पहले कब व किनके साथ हुईं उनकी जानकारी व उनसे सम्‍पर्क करके स्‍वयं विचार करके, जांच परख, विश्‍लेषण व तर्क करके उनको हल करने करने का प्रयास करता है। एक बार असफल होने पर दुबारा विचार करता है दूसरा कारण खोजता है कमी खोजता है। भविष्‍य को सुन्‍दर बनाता है।

आज मानव यह भी जान गया हैकि कुछ समस्‍याओं के कारण प्राक़ृतिक हैं।जैसे रोगों का कारण कीटाणु,असंतुलित.अपर्याप्‍त भोजन, अस्‍वच्‍छ परिवेश है। इसके अनुसार वैज्ञानिक ज्ञान के द्धारा मानव, पशु और पेड. पौधेां की बीमारियां दूर की गईं,मानव व पशु के संतुलित आहार की व्‍यवस्‍था की गई,पौधों के रोगों का उन्‍मूलन विभिन्‍न दवाओं के छिडकाव से ,खाद व सिंचाई की व्‍यवस्‍था की गई ।बहुत से कारण प्राकृतिक हैं,बाढ,सूखा,भूकम्‍प तूफान आदि इनका भी हल वैज्ञानिक चिन्‍तन, कारणों की खोज, सामूहिक प्रयास से किया गया।अभी भी मानव के समक्ष कुछ विकराल समस्‍याएं हैं । प्रयास निरंतर जारी है।

कुछ समस्‍याएं सामाजिक व राजनैतिक हैं।जिनका हल मानव समाज व विभिन्‍न देशों की सरकारें करतीं हैं।भांति भांति के सामाजिक व राजनैतिक आंदोलन व विचार विमर्श इसी संदर्भ में चलते हैं ।कुछ मामलों में अंर्तराष्‍टीय प्रयास भी होते हैं जैसे वर्तमान करोना महामारी के संदर्भ में ।

इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद आज भी मानव भविष्‍य के प्रति आश्‍वस्‍त नहीं है।साधनों की विपुलता होते हुए भी वे सभी के लिए सुलभ नहीं हें ,बहुत सारी जनता को शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य ,चिकित्‍सा ,रोजगार के अवसर उपलब्‍ध नहीं हैं। भूख विश्‍व में ही नहीं हमारे देश में भी एक बडी समस्‍या है।

जब ‘आज’ ही संकट में हो तो भविष्‍य के प्रति व्‍यक्ति निश्‍चित ही आशंकित होता है।और जब भविष्‍य में कोई आशा की किरण नजर न आए ,कोई अवसर न दिखाई दे तो मन निराशा के गहन अंधकार में डूब जाता है।ऐसे में बहुत सारे निराश नौजवान या तो मृत्‍यु का दामन थाम लेते हैं आत्‍महत्‍या कर लेते हैं ।या वे दूसरों के प्रति निर्भर लापरवाह हो जाते हैं ,अपमान प्रतारणा को सहते जीवन गुजारते हैं, कुछ विद्रोही चिडचिडे उद्दंड हो जाते हैं।कुछ नशे की अंधेरी गली में अपने को डुबो लेते हैं ।कुछ लोग अपराध का दामन थामते हैं और उस अंधी गली में प्रवेश कर जाते हें जहां से बाहर निकलने का कोई रास्‍ता नजर नहीं आता भटक जाते हैं ।

इन सबसे जुडा एक और पक्ष है जिसका हमारे देश में बहुत प्रभाव है।कुछ अपने को पूजा पाठ में डुबा लेते हैं।कुछ विभिन्‍न तंत्र मंत्र का जाप करते हैं कुछ विभिन्‍न चमत्‍कारी संतों बाबा ओं की शरण्‍ में जाते हैं उनके या इनके चेले बनते हैं ।विभिन्‍न चमत्‍कारी देवी देवताओं की तीर्थ यात्राओं दर्शनों को जाते हैं कुछ ज्‍योतिषियों की शरण में जाते हैं ।पर कर्म का त्‍याग करके, उदयोग और प्रयासों से मुंह मोड. कर ,कल्‍पना में डूबे रहना, मन ही मन लडडू खाना, चमत्‍कारों के भरोसे बैठे रहना, कभी कभी संयोग से किसी को कुछ प्राप्‍त हो जाता है जिसका खूब प्रचार किया जाता है पर, अधिकतर तो अपनी बची खुची पूंजी भी कई बार गंवा बैठते हैं । हाथ आए अवसरों से भी हाथ धो बैठते हैं ।

जब व्‍यक्ति अपने पर विश्‍वास खो बैठता है तो वह विभिन्‍न अलौकिक ताकतों में विश्‍वास करने लगता है। आखिर इन सब बातों का प्रारंभ कैसे हुआ ?

आदि मानव जंगलों में रहता था ।वह पूर्णतया प्रकृति के बीच रहता था प्रकृति पर निर्भर था पर न तो प्रकृति के बारे में उसे अधिक ज्ञान था न ही प्रकृति पर उसका कोई नियंत्रण था। उसका सहज विश्‍वास था कि प्राकृतिक घटनाएं प्राकृतिक शक्तियों के प्रसन्‍न या नाराज होने से होती हैं ठीक वैसे ही जैसे उसके गण (कबीले)के सदस्‍य/साथी एक दूसरे से नाराज या प्रसन्‍न होते हैं ।इसे सर्वेश्‍वर वाद कहते हैं ।वर्षा या तूफान में बाढ. में आई नदी को वह नाच गा कर मनाता था । अपने शिकार किए गए पशुओं ,वन से इकटठा किऐ फल फूल आदि की भेंट चढाकर प्रसन्‍न करता था। यह कोई तर्क पूर्ण सोची समझी बात नहीं थी,मानव समाज की उस समय की प्रकृति के बारे में सीमित जानकारी के कारण सहज विश्‍वास थे। धीरे धीरे इन नाच गान समारोहों भेंट उत्‍सवों के कुछ वृद्ध व गुणी लोग जान कार बन गए व उन समारोहों का संचालन करने लगे शिकार के समय भी अधिकतर वे ही लोग नेतृत्‍व करते । उन्‍होंने अपनी इन्‍हीं प्रक्रियाओं को अपने निकट के संबंधियो प्रिय लोगों को बताया सिखाया इनमें कुछ वाक्‍य या गीत की पंक्ति जेाड् दी जिन्‍हें वे मंत्र कहते उनका भी विश्‍वास था कि इन गीतों व पंक्तियों में खास असर है वे इन्‍हें पीढी दर पीढी दोहराते कभी कभी कोई नया जोड. देता। इन मंत्रों को रहस्‍यात्‍मक शक्ति कहा गया, जिससे प्रकृति की नियंत्रक शक्तियां देवी देवता उनके वश में रहते ।इन मंत्रों और नाच गान भेंट पूजा के सामारोहों के कर्मकांड के जान कार वे वृद्ध व गुणी व्‍यक्ति गण(कबीले) के मुखिया/ ओझा/ पुरोहित बन गए। जैसे मिस्र देश में उस पुराने जमाने में नील नदी की बाढ. का पानी ही खेती के लिए आवश्‍यक था। उन पुरोहितों ने देख(अवलोकन) कर यह पता लगाया कि जब लुब्‍धक तारा उदय होता है तभी बाढ. आती है । वे पुरोहित तारा उदय होते ही मंत्र पाठ का अनुष्‍ठान प्रारंभ कर देते जनता समझती मंत्र पाठ के कारण बाढ. आई है वे इसका प्रचार भी यही करते । मंत्र पढने से बाढ. आने समझने के कारण ओझा का नियंत्रण लोगों पर बढ. गया जनता ओझा से भयभीत रहती उसे रहस्‍य मयी शक्तियों का मालिक समझती। मंदिर पर चढावा चढाया जाता।इन्‍हीं कबीले के मुखियाओं ओझाओं से सामंतवाद का प्रारंभ हुआ कहीं मुखिया और ओझा एक ही थे कहीं अलग हो गए । यही बाद में राजा और पुरोहित बने । जैसे बस्‍तर नरेश ही देवी के सबसे बडे पुजारी भी थे कई नरेश ब्राह्मण थे । जहां अलग थे वहां भी राजा और पुरोहित एक दूसरे का परस्‍पर ध्‍यान रखते थे और एक दूसरे की दैवी महात्‍म्‍य की प्रशंसा व सम्‍मान करते थे इसका प्रदर्शन भी करते थे । राजा ही देवता है ,पुरोहित पवित्र है। इनमें परस्‍पर मेल रहता था सांठ गांठ रहती थी ।इसका कोई तर्क संगत कारण नहीं था पर इस विश्‍वास का खूब प्रचार किया जाता था कि राजा को राज्‍य करने का दैवी अधिकार प्राप्‍त है पुरोहित को मंदिरों की पूजा पाठ को अधिकार उनमें चढे धन पर अधिकार धर्म ग्रंथों के मंत्रों की व्‍याख्‍या का अधिकार और कानून जो धर्म ग्रंथेां पर आधारित होते थे उनकी व्‍याख्‍या और परम्‍पराओं की व्‍याख्‍या का अधिकार था ।

राजे महाराजे उनके पुरोहित खूब ठाठ से रहते पर अधिकांश जनता निर्धन थी व उसकी सामाजिक दुर्दशा भी थी उन्‍हे राज्‍य में हस्‍तक्षेप का कोई अधिकार नहीं था।उनकी दुर्दशा के लिये उन्‍हें ही जिम्‍मेदार ठहराया जाता ! इसके लिये वे पूर्वजन्‍म का सिद्धांत लाए जिसका कोई प्रमाण नहीं था तुमने पूर्वजन्‍म में पाप किए इसलिए गरीब हो नीचे वर्ण में जन्‍म लिया अब पूर्वजन्‍म के बारे में पता लगाना असंभव था राजाओ पुरोहितों ने पूर्वजन्‍म में पुण्‍य किए । फिर भाग्‍य था तुम्‍हारा भाग्‍य ही खराब है।अगला जन्‍म सुधारने के लिये जरूरी था कि बिना कोई शिकायत किये राजा और पुरोहितों की सेवा करे, उनके दिए हुए जूठे बचे खुचे भोजन, फटे पुराने उतरन कपडों के बदले ,यह तो दासता थी । पर वे यही एक मात्र रास्‍ता बताते थे ।आम जनता को जानबूझ कर वैज्ञानिक तर्क पूर्ण सोच से दूर रखा गया।

परन्‍तु सारे ही लोग ऐसे नहीं थे।भारत से दूर पश्चिम के देश यूनान में एक दार्शनिक ‘थेलिस’ का नाम उल्‍लेखनीय है। जिन्‍होने पहली बार बताया कि सूर्य ग्रहण पृथवी और सूर्य के बीच चन्‍द्रमा की छाया पड.ने के कारण होता है। वे दुनिया के पहले वैज्ञानिक माने गए ।वे ‘मिलेटस’ शहर वासी थे।सूर्य ग्रहण ईसा से 585वर्ष पूर्व 28 मई को पडा था।

वैज्ञानिक ज्ञान का अर्थ है अवलोकन ,मतलब इंद्रियों द्धारा देख कर, सुन कर, स्‍पर्श करके, सूंघ कर, चख कर ज्ञान प्राप्‍त करना व बुद्धि द्धारा उनका समन्‍वय करना किसी घटना के होने के पीछे छिपे लौकिक कारण का पता लगाना। विभिन्‍न यंत्रों के साधनों के अविष्‍कार से हमारी अवलोकन जांच परख की सामर्थ का विस्‍तार हुआ है।जैसे दूरबीन के अविष्‍कार से पहले चन्‍द्रमा का इतने विस्‍तार से अवलोकन संभव नहीं था।बहुत सारे तारों के बारे में मालूम नहीं था।

लोकायत चेत्‍यान्‍वीक्षिकी

कौटिल्‍य अर्थशास्‍त्र के अनुसार अन्‍वीक्षिकी विद्या श्रेष्‍ठ है।

प्रदीप:सर्व विद्या नामु पाय: सर्व कर्मणाम्

आश्रय: सर्व धर्मानाम् शाश्‍वदान्‍वीक्षकी मता

यह अन्‍वीक्षकी सभी विद्या ओं का प्रदीप है,सभी कर्मों का उपाय है ,सभी धर्मों का आधार है।

सांख्‍यं योगो लोकायतं चेत्‍यान्‍वीक्षिकी।

सभी विद्याओं में अन्‍वीक्षकी विद्या सर्वोपरि है।

एक बार भगवान बुद्ध कोसल जनपद में स्थित केशमुत्‍त कलामों के पास पहुंचे।केशमुत्‍त कलामों लोगों ने भगवान से कहा -‘भगवन।कुछ श्रमण ब्राह्मण हमारे पास आते हैं ,वे अपने ही मत को प्रकाशित करते हैं,दुसरों के मत की निन्‍दा करते हैं। दूसरे भी आते हैं ,वे भी अपने मत को प्रकाशित करते हैं दुसरों के मत की निन्‍दा करते हैं । इससे हमारे मन में संदेह उत्‍पन्‍न होता है , हम किसकी माने और क्‍यों ?

भगवान ने कहा –हे कलामो, सुनी हुई बात पर विश्‍वास मत करो,परम्‍पराओं में विश्‍वास न करो ,किसी बात पर केवल इसलिए विश्‍वास न करो कि किसी प्राचीन ऋषि का कथन है या धर्म ग्रंथ में लिखा है बडे बूढों ने कहा है ,किसी बात पर केवल तब विश्‍वास करो जब उसे जांच परख लो उसका विश्‍लेषण कर लो यह देख लो कि वह तर्क संगत है ,तुम्‍हें नेकी के रास्‍ते पर ले जाती हो और सबके लिए लाभदायक हो तब तुम उसके अनुसार आचरण करो ।

उसी तरह भारत में ज्‍योर्तिविद आर्य भटट ने आकाश का निरंतर अवलोकन करके पता लगाया कि पृथवी लटटू की तरह घूमती है ।(आर्य भटट कविता)उसे बराह मिहिर ने इस आधार पर कि यह लोक विश्‍वास व शास्‍त्र के अनुसार सही नहीं है इसे अमान्‍य कर दिया। जब कोई बात युक्ति या तर्क में उचित सिद्ध करना संभव नहीं होता तो परम्‍परा व शास्‍त्र की दुहाई दी जाती है ।कहा जाता है कि यह भारतीय ज्ञान है अत : इसे माना जाना चाहिये ।

‘भारतीय संस्‍कृति के स्रोत ‘ पुस्‍तक में पृष्‍ठ क्र 6 में लेखक श्री डा भगवत शरण उपाध्‍याय द्धारा दी गई जानकारी विस्‍मय पैदा करती है ।

ज्‍योर्तिविज्ञान के क्षेत्र में रोमानों का अत्‍यंत महत्‍तव पूर्ण योगदान था ।सप्‍ताह के संबंध में रोमन ग्रंथ पंचांग का और सप्‍ताह के नामों का प्रचलन हुआ (कैसियस के अनुसार)जो 230 ईसवी में उसने लिखा था। तब तक ग्रहों के बारे में पंचागीय नाम प्रचलित किये गए थे। भारत ने यहूदी ईसाई सप्‍ताह स्‍वीकार कर लिया जिसमें क्रम यहूदी प्रणाली में रखा गया और नाम ईसाई ।बराह मिहिर जिसने रोम को श्रीलंका से 90अंश पश्चिम में माना था इससे परिचित था और उसने इसका प्रयोग भी किया। रोमन सम्राट कांटेस्‍टाइन ही था जिसने सन्321 ईसवी में रविवार को विश्राम का दिवस घोषित किया ।और सात दिनों के सप्‍ताह की विधिवत् स्‍वीकृति दी । यद्यपि हिन्‍दुओं में जन्‍मकुन्‍डली प्राचीन समय से ही लोकप्रिय है फिर भी संस्‍कृत में इसके लिये कोई शब्‍द निश्चित नहीं था और भारतीय इसके लिये जिस विदेशी शब्‍द होडा चक्र का उपयोग करते थे जो यूनानी शब्‍द होरस (सूर्य देवता) से बना है। इस तरह ज्‍योतिष की विदेशी स्रोतों से संलग्‍नता प्रदर्शित होती है।नक्षत्रों का प्रदर्शन मानव जिज्ञासुओं द्धारा निरंतर जारी रहा है ।भारत में आर्य भटट की स्‍थापनाएं झुठला दीं गईं।जॉन के बाद पश्चिम में प्रमुख नाम हैं, निकोला कॉपरनिकस का, जिसने 1505 ईसवी में प्रकाशित पुस्‍तक में पहली बार बताया कि पृथ्‍वी सूर्य के चारों ओर घूमती है ।सूर्य पृथवी के चारों ओर नहीं घूमता ।तत्‍कालीन धर्माधिकारियों ने इस सत्‍य का विरोध किया ।कॉपरनिकस स्‍वयं पादरी थे। पर उनकी जल्‍दी मृत्‍यु हो गई ।पर कॉपरनिकस से सहमत विद्धानों को पीडा दी गई ।एक और पादरी विद्धान जियार्दानी ब्रूनो को कॉपरनिकस की स्‍थापना का समर्थन करने के कारण1600 ईसवी में जिन्‍दा जला दिया गया ।कॉपरनिकस ने दूसरी बात भी बताई कि पृथ्वी सूर्य का वृत्‍त में नहीं वरन् दीर्घ वृत्‍ताकार में चक्‍कर लगाती है अत: वर्ष के कुछ माह वह सूर्य के करीब होती है कुछ माह सूर्य से उसकी दूरी बढ जाती है इसी से ऋतु परिवर्तन होते हैं ।बाद में गैलीलियो गैलिली ने दूरबीन के द्धारा कॉपरनिकस की स्‍थापनाओं को सत्‍यापित किया ।तत्‍कालीन धर्माचारियों रोमन कैथोलिक चर्च के पादरियों /पोप ने गैलीलियो को भी दण्‍डित किया उसे चर्च से पादरियों के सामने घुटने टेक कर माफी मांगनी पडी नजर बंद रहना पडा अपनी खोज को झूठा कहना पडा। आज दुनिया के सारे ही वैज्ञानिक व विद्धान कॉपरनिकस की स्‍थापना को स्‍वीकार करते हैं ।धार्मिक सत्‍ताएं भी इसका विरोध नहीं करतीं ।परन्‍तु फलित ज्‍योतिष में यही मान्‍यता व्‍याप्‍त है कि सारे ग्रह पृथवी का चक्‍कर काटते हैं ।फलित ज्‍योतिष्‍ अपने को गणित व विज्ञान बताता है । वैज्ञानिक अवलोकन से यह साबित हो चुका हे कि सूर्य ग्रह नहीं तारा है व चांद पृथ्‍वी का उपग्रह है न कि स्‍वयं ग्रह और राहू एवम्‍ केतु का वास्‍तविकता में कोई अस्‍तित्‍व नहीं ,परन्‍तु ज्‍योतिषियों ने अपनी अपनी मान्‍यताओं व गणनाओं में इन वैज्ञानिक तथ्‍यों के अनुसार कोई परिवर्तन नहीं किया ।खगोल वैज्ञानिकों ने सूर्य मण्‍डल में जो नये तीन ग्रह यूरेनस ,नेपचून ,व प्‍लूटो तलाशे हैं उन्‍हें भी फलित ज्‍योतिषी अपने ग्रह मण्‍डल में शामिल नहीं कर पाए क्‍यों?अत: वैज्ञानिक तथ्‍यों की उपेक्षा करके उनसे आंख मूंद लेने वालों को किस तरह वैज्ञानिक कहा जा सकता है। खगोल विज्ञान एक विज्ञान है,जिसकी स्‍थापनाएं कॉपरनिकस के द्धारा बदली गईं बाद में उपरोक्‍त नये ग्रह ढूंढे गए । खगोल विज्ञान आज भी निरंतर अवलोकन नई नई और विकसित दूरबीनों द्धारा नई नई खोजें की जा रही हैं । पर इसका फलित ज्‍योतिष से कोई तर्क संगत संबंध नहीं है । अंध विश्‍वास विरोधी आंदोलन के नेतृत्‍व में अग्रणी भूमिका में रहे डा अब्राहम कोबूर ने कई भविष्‍य वाणियों का सर्वेक्षण किया अध्‍ययन किया आईए कुछ प्रसिद्ध भविष्‍य वाणियां देखें।

-5 फरवरी 1962 आठ ग्रह मकर राशि में इकटठे हुए ,आतंक फैलाया गया कि प्रलय होने वाली है। विशाल यज्ञों पूजा समारोहों का आयोजन हुआ ढोंगी साधु पंडों की बात बन आई। पर प्रलय जैसा कुछ नहीं हुआ ।

वर्षों नास्‍त्रेदम के नाम पर आतंक फैलाया गया कि जुलाई 1999 के पहले सप्‍ताह में दुनिया नष्‍ट हो जाएगी पर दुनिया पहले जैसी चल रही है ।

स्‍वर्गीया इंदिरा गांधी के 1980 के चुनाव के बाद सुप्रसिद्ध ज्‍योतिषी श्री बी बी रमन ने कहा कि छठवें घर में गुरू के मेल के साथ राहु का मेल पिछडी जाति से संबंधित या अल्‍प संख्‍यक समुदाय में से उठे किसी राजनैतिक नेता की ओर संकेत करता है । पर हमें पता है स्‍वर्गीया श्रीमती इंदिरा गांधी विशाल बहुमत से जीतीं थीं ।

यह भी गलत आकलन होगा कि सारे ही संत ज्‍योतिष्‍ के प्रति समर्पित थे। महान मधुगीत से तुलसीदास स्‍वयं ही घटनाओं की सफलता में प्रयास की महत्‍ता स्‍थापित करते हैं

,सुदिन सुमंगल तबहिं जब राम होंहिं जुवराज ।

या उनकी ही एक चौपाई ----

कातर मन कर एक अधारा ,दैव दैव आलसी पुकारा ।

धर्म के व्‍यापारी करण के प्रति उनकी एक और बडी सटीक टिप्‍पणी----

बेंचहि वेद धर्म दुह लेंहीं,कहं ते परस छोंहि विष लेंहीं।।

और कबीर का प्रसिद्ध पद तो इससे भी आगे जाता है---

करम गति टारे नांहिं टरी

मुनि वशिष्‍ठ से पंडित ज्ञानी शोध के लगन धरी ।

सीता हरण मरन दशरथ को वन में विपत परी।

कहां वह फंद कहां वह पारिध कहां वह मिरख परी।

ले गयो सिया को हर के रावण सोने की लंका जरी ।

पांडव जिनके आप सारथी तिन पै विपत परी ।

राहु केतु और मातु चंद्रमा विधि संयोंग परी ।

कहत कबीर सुनो भई साधौ होनी हो के रही ।।

इसी संदर्भ में सुप्रसिद्ध कवि रहीम का दोहा ----

जो रहीम होनी कतहुं होत आपने हात ।

राम न जाते हरिन संग सिया न रावण साथ।।

सुप्रसिद्ध धर्म सुधारक आर्य समाज के संस्‍थापक स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती अपने ग्रंथ सत्‍यार्थ प्रकाश में कहते हैं कि सुर्य चंद्र ग्रह नक्षत्र जड हैं अत: उनकी प्रसन्‍नता व प्रकोप बेमानी है ।

और उनसे भी उग्र शब्‍दों में भारतीय नवजागरण की दूसरी महान विभूति स्‍वामी विवेकान्‍नद फटकारते हुए कहते हैं ----मैं आप लोगों जैसे अंधविश्‍वासी मूर्खों की जगह पक्‍के अनीश्‍वर वादियों को ज्‍यादा पसंद करूंगा अनीश्‍वरवादी जीवित तो होता है वह किसी काम तो आ सकता है,किन्‍तु जब अंध विश्‍वास जकड. लेता है तो मस्‍तिष्‍क ही मृत हो जाता है बुद्धि जम जाती है मनुष्‍य पतन के दलदल में गहरे डूबता चला जाता है ।यह कहीं ज्‍यादा अच्‍छा है कि लोग तर्क और युक्ति का अनुसरण करते हुये अनीश्‍वरवादी बन जाएं बजाये इसके कि कह देने मात्र से अंधों की तरह तेंतीस करोड देवी देवताओं को पुजने लगें (भारतीय चिंतन पर )

और अंत में -------

बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति का श्‍लोक -----

वेद प्रमाण्‍यं कस्‍यचित क‍र्तृवाद:,स्‍नाने धर्मेच्‍छा जातिवादवलेय:

संतापरंभ: पापहानाय चेति ध्‍वस्‍त प्रज्ञानाम् पंचलिंगानि जाड्ये।।

वेद(ग्रंथ) की प्रमाणता ,किसी (ईश्‍वर) की सृष्टि का कर्तापन (कर्तृवाद)स्‍नान( करने्) में धर्म होने की इच्‍छा रखना,जातिवाद (जातिवादावलेयJ) छोटी बडी जाति होने का घमंड और पाप दूर करने के लिये (शरीर को ) संताप देना (उपवास)तथा शारीरिक तपस्‍या करना ये पांच अकल के दुश्‍मनों (ध्‍वस्‍त प्रज्ञानाम)की मूर्खता जडता की निशानियां हैं ।

सावित्री सेवा आश्रम

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