उदास इंद्रधनुष - 3 Amrita Sinha द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उदास इंद्रधनुष - 3

खा- पीकर जब तक हम लोग तो मैदान में गुड्डी (पतंग) उड़ाने पहुँचे तब तक मोहल्ले के कई बच्चे अपनी पतंगों को आसमान में लहरा रहे थे। जनवरी की हल्की गुनगुनी धूप ,देह को गरमी और साफ़ नीले आसमान में कलाबाज़ियाँ खाती रंग बिरंगी पतंगें आँखों को ठंडक पहुँचा रही थीं।

अब तक आदित्य भी पहुँच गया था मैदान में और भैया के साथ मिलकर पतंग उड़ाने की तैयारी करने लगा था ।मुझे उन लोगों ने लटई पकड़ने का काम सौंपा और कभी-कभी पतंग को ढील देने का।देखते ही देखते है हमारी पतंग दूर आसमान से बातें करने लगी।
मेरी कई सहेलियां भी आ गई थीं, हम लड़कियों को भाईयों ने सख़्त हिदायत दी थी कि लटई के धागे से दूर रहना क्योंकि शीशे से माझा किया हुआ है जिससे हाथ कटने का डर है।मायूस होकर मैं अपनी सहेलियों के साथ वहीं रखे ईंटों पर बैठकर गपशप करने लगी और लगे हाथ आसमान में भी झांकती जाती , जहाँ हवा में सरगोशियाँ करती पतंगें यूँ लहराती दीखतीं जैसे आसमान को चूम रही हों ।
हर तरफ़ से तेज़ आवाज़ आ रही थी लड़के चिल्ला रहे थे वह काटा…. वह काटा …
पतंगें कटतीं और लड़के दौड़ पड़ते और पतंगों को लूटने।
घंटो यह सिलसिला चलता रहा, तभी अचानक ही आदि की पतंग कट गई।
आदि मायूस चेहरा लिये अपनी लाल पूँछ वाल पीली पतंग को कटती हुई और हवा में बल खाती नीचे गिरती हुई देखता रहा। सबकी नज़रें गिरती पतंग पर थी कई लड़के आसमान की तरफ़ मुँह किए पतंग के पीछे भागे, मैं, आदि और भैया भी ।
गिरती पतंग को लूटने को सभी बेताब थे और सबसे ज़्यादा आदि । पतंग वहीं पास वाले मकान की छत पर गिरी। तभी आदि झट से दीवारों और कड़ियों के सहारे छत पर चढ़ गया । पतंग छत से लगे नीम के पेड़ में उलझी थी डोर छत पर पड़ी थी ।आदि डोर पकड़कर फँसी पतंग को निकालने की कोशिश करने लगा किंतु वह क़ामयाब नहीं हो सका, तभी उसने एक डंडे की मदद से पतंग को नीम के पेड़ से छुड़ाने की कोशिश की और पतंग निकल आई किन्तु यह क्या ! आदि जब तक सँभलता तब तक बिना रेलिंग की छत से नीचे गिर पड़ा ।
नीचे खड़े सारे बच्चे अवाक देख रहे थे तभी कुछ लड़कों ने शोर मचाना शुरू कर दिया और कुछ घर की ओर भागे। हम कुछ समझ पाते इससे पहले आदि नीचे ज़मीन पर लगी झाड़ियों में गिरकर उलझ गया। इतनी ही देर में कई बड़े लोग आ गये और चाचा जी और पापा भी भागे-भागे आ गये । आनन-फ़ानन में आदि को अस्पताल ले जाया गया ।इधर सारे बच्चे भाग कर अपने अपने घर में जा दुबके ।
आदि को जब होश आया और डॉक्टर ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं तब जाकर स्थिति थोड़ी सम्भली वरना चाची का तो रोते – रोते बुरा हाल था । डॉक्टर के सांत्वना देने पर चाची और चाचा जी के चेहरे पर संतोष का भाव आया । शुक्र था कि आदि झाड़ी में गिरा था जिसके कारण जान बच गयी वरना कोई भी हादसा हो सकता था।
दो दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद आदि को घर लाया गया।चाचा चाची ने उसकी तीमारदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी , चाचा जी ने भी एक हफ़्ते की छुट्टी ले ली । धीरे धीरे आदि स्वस्थ हो गया और स्थिति सामान्य हो गई ।
इसी बीच हमारे लिये एक अच्छी ख़बर आयी कि पापा का प्रमोशन हो गया है और साथ ही पटना ट्रांसफर भी। ये ख़बर सुनते ही चाची बहुत उदास हो गईं और आदि भी बहुत अपसेट हो गया।

हमें विदा करते समय चाची इतना रोईं कि लगा जैसे किसी सगे से बिछड़ रही हों ।
समय बीता , पटना आते ही नए स्कूल, नए घर और नए दोस्तों के बीच हम भागलपुर को थोड़ा भूल से गए ।
कुछ सालों बाद, एक दिन अचानक ख़बर आयी कि बाथरूम में फिसलने से चाची का ब्रेन हैमरेज हो गया और यही उनकी मृत्यु का कारण बना ।ख़बर सुनकर हम सब सन्न रह गए।माँ के तो आँसू ही नहीं रुक रहे थे।
प्रभाकर चाचा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था।पापा ने फ़ोन पर ही उनको ढाढ़स बँधाया और शीघ्र ही मिलने की बात कही ।उन्हीं से मालूम हुआ कि आदि इन दिनों बी॰आई॰टी॰ मेसरा के इंजीनियरिंग कॉलेज के फ़ाइनल ईयर में था और माँ के देहांत की ख़बर सुनकर बेसुध था, भागा हुआ मुज़फ़्फ़रपुर आया था।
चाची के जाने के बाद पूरा घर वीरान हो गया । चाचा जी ने वोलेंटरी रिटायरमेंट ले लिया था और आदि इतना मेंटली डिस्टर्ब्ड था कि फ़ाइनल ईयर की परीक्षा में बैठ ही न सका ।साल भर में स्थिति कुछ सँभली किन्तु आदि वापस इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं गया।उसकी ज़िद्द के आगे हारकर चाचाजी ने वहीं मुज़फ़्फ़रपुर में अपनी रिटायरमेंट के पैसे से मोटर पार्ट्स की दुकान खुलवा दी । इसी दौरान कई लोन भी सिर पर आ गए ।पर , चाचा जी ने ने कभी हिम्मत नहीं हारी , सोचा चलो आदि सँभल जाए तो सब ठीक रहे ।
चाची के जाने के बाद वैसे भी उनकी दुनिया आदि तक ही सिमट गई थी ।
साल भर बाद ही आदी के लिए एक रिश्ता आया । चाचा जी ने ख़ूब जाँच परख कर हामी भर दी।लड़की अच्छे घर की थी और आदि को भी पसंद थी, चाचा जी ने अपनी हैसियत के मुताबिक़ पूरा ख़र्च किया । सब खुश थे ।
दो वर्षों बाद काफ़ी कुछ बदला । भैया दिल्ली शिफ़्ट हो गया है और मैं अमित के साथ मुंबई अपनी गृहस्थी संभालते हुए व्यस्त हो गयी।पापा बहुत स्वस्थ नहीं रहते इसलिए ज़्यादातर घर पर ही रहते । माँ अपने सेल्फ़ हेल्प ग्रुप के तहत ख़ुद को व्यस्त रखतीं ।कभी- कभार चाचा जी का ही पटना आना जाना होता रहता ।
माँ बता रहीं थीं कि हाल में ही चाचा जी पापा से मिलने गए थे । उन से मिलकर लगा कि वे आजकल बेहद उदास रहते हैं, ज़्यादा कुछ तो उन्होंने नहीं कहा , पर धीरे से इतना कहा कि – भाभी, पहले जैसा अब कुछ भी नहीं रहा , ज़िंदगी कट रही है बस इतना ही समझ लीजिए ।
पुरानी यादों में उलझी , चाचा जी के बारे में सोचते सोचते कोमल को कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला।
सुबह उठते ही उसे याद आया की सब्ज़ी मंगवानी है,बाई आ गई थी ।तो उसे चाय बनाने को कह कर ,कोमल वहीं बालकनी में मटर छीलने बैठ गई, सुबह की ठंडी बयार मन को तरोताज़ा कर रही थी । रात की बातों से उबरने के लिए उसने यूट्यूब पर जगजीत सिंह की ग़ज़ल लगाया और सुनने लगी,तभी विमला चाय लेकर आ गयी।
भाभी चाय
हूँ ऊँ… तिपाई पर रख दे विमला ।
अच्छा भाभी काम हो गया अब मैं चलती हूँ विमला ने कहा
हाँ ठीक है जाते हुए दरवाज़ा बंद करती जाना
कोमल ने वहीं बैठे बैठे हुए अलसाते हुए कहा। अब तक हल्की गुनगुनी धूप भी बरामदे में पसर गई थी । जगजीत सिंह की आवाज़ मन को गुदगुदा रही थी …. जिन्दगी धूप तुम घना साया ….
कुछ देर यूँ ही आंखें बंद कर आराम कुर्सी में पसरी गुनगुनाती रही , तभी ख़याल आया कि मटर पनीर और चावल बनाना है याद आते ही झट से उठी और किचन में जाकर गैस ऑन कर पतीले में पानी चढ़ा दिया ।तभी कॉल बेल बजा । दरवाज़ा खोला तो सामने अमित खड़े थे ।