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विनाशकाले.. - भाग 4

चतुर्थ अध्याय
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गतांक से आगे ….

रेवती के जीवन में छाए उदासी के बादलों की परछाई उसके मन के साथ- साथ चेहरे पर भी नजर आती थी।दमकता चेहरा अब मुरझाया से रहने लगा था।जब पति ही अपना न रहा तो साज-श्रृंगार किसके लिए करती।वह अक्सर सोचती कि ईश्वर ने उसके साथ यह अन्याय क्यों किया।रूप थोड़ा कम देता,परन्तु भाग्य पर यूँ स्याही तो न फेर देता।
जब मन कमजोर होता है तो उसे भटकते देर नहीं लगती।चोट खाया हृदय, आहत स्वाभिमान अक्सर बदला लेने की प्रवृत्ति के वशीभूत होकर अपना ही सर्वनाश कर बैठता है।या शायद मन की रिक्ति उसके सोचने-समझने की शक्ति भी हर लेती है।
रेखा को रेवती की सौतन बने 2-3 वर्ष व्यतीत हो गए।जीवन अपनी मद्धम गति से व्यतीत हो रहा था।पड़ोस के घर में आलोक किराए पर रहने आ गया था।वह 22 वर्षीय मजबूत कसरती बदन का,अच्छी शक्ल-सूरत का अविवाहित युवक था,जो पास ही किसी फैक्ट्री में कार्यरत था।वह सुबह-सुबह छत पर व्यायाम करता था।एक दिन सुबह चाय लेकर रेवती छत पर टहलती हुई पी रही थी, तभी उसकी निगाह आलोक पर पड़ी।दोनों छतों के बीच एक चार फुट की दीवार मात्र थी,जिसे आसानी से पार कर इधर -उधर आया-जाया जा सकता था।रेखा ने जबसे उसके कमरे में कब्जा जमाया था,तबसे वह ऊपरी मंजिल के दो कमरों के हिस्से में शिफ्ट हो गई थी, अपनी रसोई भी ऊपर ही अलग कर लिया था, वह वहां अपने तीनों बच्चों के साथ रह रही थी।मनोहर के किसी कार्य से उसे अब कोई लेना -देना नहीं था।काकी दोनों हिस्सों के कार्यों में बराबर की मददगार थीं।काकी को रेवती से विशेष स्नेह भी था और सहानुभूति भी।
आलोक ने रेवती को अपनी तरफ देखते हुए पाकर मुस्कुराते हुए कहा,"भाभीजी नमस्कार"।रेवती ने अचकचाकर उसके अभिवादन को गर्दन हिलाकर स्वीकार किया।अब तो कभी शाम,कभी सुबह एकाध बार रोज ही छत पर उनका आमना- सामना हो जाता।कुछ ही दिनों में वे आपस में बातें भी करने लगे।सच तो यही था कि रेवती भी आलोक की तरफ आकर्षित होने लगी थी।आखिर रेवती की अभी उम्र ही क्या थी,कुल 26 की ही तो हुई थी,इतनी सी उम्र में जीवन के कितने ही कटु अनुभव हो चुके थे।आलोक बातें करने में बेहद निपुर्ण था,ऐसी लच्छेदार बातें करता कि रेवती मंत्रमुग्ध सी उसको निहारते उसकी बातों को सुनती रहती।दिनों को महीनों में बदलते देर नहीं लगती।
रेवती के जीवन के झंझावातों से तो पूरा मुहल्ला ही परिचित था,फिर आलोक को सारी बातें कैसे न पता होतीं।वह अक्सर रेवती के जख्मों को कुरेदकर उनपर मरहम लगाने का प्रयास सा करता प्रतीत होता, कम से कम रेवती तो यही समझती थी।कहाँ पहचान पाई थी रेवती मनोहर के छद्म रूप को,जिसके साथ जीवन का इतना अहम समय गुजारा था,तो भला आलोक को ही क्या पहचान पाती।रेवती आलोक को अपना सच्चा हितैषी समझने लगी थी।अपने मन की हर पीड़ा को उससे बांट लिया था।आलोक जब कहता कि भाभी, मनोहर भइया की बुद्धि खराब थी कि आप जैसी अद्वितीय सुंदर हीरे को त्याग दिया, उनकी जगह मैं होता तो आपको सदैव पलकों पर बिठाकर रखता,तो वह निहाल हो उठती उसके मधुर वचनों को सुनकर।
एक तो आरम्भ से ही उसका मन तृषित रह गया था,उसपर अपनों की दगाबाजी ने उसके हृदय को मरुस्थल ही बनाकर रख दिया था।वो तो बच्चों की ममता एवं स्नेह के भरोसे वह जी रही थी, किंतु उसके अंदर की स्त्री तो जलविहीन मीन की भांति तड़प रही थी।उसके तप्त अंतस रेगिस्तान पर आलोक की मीठी बातें प्रेम की फुहारें बरसाकर अत्यंत शीतलता प्रदान करती थीं।बच्चों के बहाने वह घर में निर्विरोध आने-जाने लगा था।मनोहर को भी बड़ा भाई बनाकर शीशे में उतार लिया था आलोक ने।रेवती अक्सर आलोक के पसंद की चीजें बनाती एवं बड़े चाव से उसे खिलाती,आलोक भी उसके हाथ के स्वाद की तारीफों के पुल बांध देता।
आलोक रेवती की आंखों में अपने लिए आकर्षण को बखूबी महसूस कर चुका था।वैसे रेवती के अतुल रूप-राशि के प्रति आकर्षित तो वह भी प्रथम दर्शन में ही हो गया था, बस तभी से रेवती के मन में अपने लिए जगह बनाने के प्रयास में लग गया था।अक्सर पुरुष तो भ्रमर होता ही है,जब पुष्प स्वयं उसे आमंत्रित करे तो वह कहाँ मौका चूकता है।अतः एक दिन मौका पाते ही रेवती के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में थामकर उसकी आँखों में आंखें डालकर अपने प्रणय का निवेदन कर दिया, जिसे रेवती की झुकी निगाहों ने स्वीकार कर लिया।उसकी मौन स्वीकृति पाकर आलोक ने रेवती को आलिंगनबद्ध करते हुए उसके तप्त अधरों पर प्रणय चिन्ह अंकित कर दिया।आज रेवती के कपोल एक किशोरी की भांति शर्म से गुलाबी हो गए।उसके जाने के बाद भी देर तक उस स्पर्श के सम्मोहन में रेवती डूबी रही।फिर तो उनके प्रेम की आंख-मिचौली प्रारंभ हो गई।द्रुतगति से समय पँख लगाकर दो वर्ष उड़ गया।अब रेवती आलोक के प्रेम में आपादमस्तक डूब चुकी थी या यूं कहें तो आलोक ने उसे पूर्णतया अपने प्रेमपाश में जकड़ लिया था।
क्रमशः…..
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