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विनाशकाले.. - भाग 3


तृतीय अध्याय
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गतांक से आगे …..

अब जब रेवती ध्यान से इधर एक वर्ष की स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर रही थी, तो उसकी निगाहों से पर्दा हट रहा था और शेष रेखा ने बताया था।एक बार रेखा जीजाजी को चाय देने कमरे में गई थी तो चाय के साथ उन्होंने उसका हाथ भी पकड़ लिया था, किशोरी रेखा को पुरुष का प्रथम स्पर्श अच्छा लगा था, जिससे उसने हाथ छुड़ाने का कोई उपक्रम नहीं किया।मनोहर खेला-खाया वयस्क पुरुष था,उसे समझने में तनिक विलंब नहीं हुआ कि रेखा बड़ी आसानी से उसकी गिरफ्त में आ जाएगी।उसने प्रयास प्रारंभ कर दिया, कभी अकेले में रेखा को गले लगा लेता,कभी उसके गालों को प्यार से सहलाकर चूम लेता।रेखा को अभी दुनियादारी का विशेष ज्ञान तो था नहीं, उसे तो जीजा के इन कृत्यों से रोमांच का अनुभव होता।कभी-कभी तो मनोहर दोनों बच्चों के साथ रेखा को रेवती के सामने भी गले लगा लेता,रेवती उसे सामान्य पितृ तुल्य स्नेह समझती।उसे मनोहर पर अटूट विश्वास था, वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि रेखा से 18-19 वर्ष बड़ा मनोहर बेटी समान साली के प्रति कुछ गलत भावना भी रख सकता था।इस कटु सत्य को वह आज समझी थी कि लड़की पिता-भाई के साथ भी पूर्ण सुरक्षित नहीं है, फिर मनोहर तो बहनोई है।किसके अंदर का शैतान कब जाग जाय कुछ कहा नहीं जा सकता।
अब आए दिन रेखा के लिए कोई न कोई उपहार और मिठाई-चॉकलेट ले आता और बड़े प्यार से अपने हाथों से खिलाता।कभी कभी तो रेवती सोचती भी कि मेरे साथ तो ऐसा प्यार कभी नहीं जताया,फिर अपने विचारों को झटक देती कि अरे,समय के साथ तो सभी बदलते हैं।रेखा को वह अपने बच्चों जैसा ही समझते हैं।
एक दिन रेवती महल्ले में गई थी, तभी मनोहर किसी काम से घर आया,तो देखा कि रेखा घर में अकेली थी, उसने मौके का फायदा उठाकर रेखा को पा लिया।विरोध का तो प्रश्न ही नहीं उठता था क्योंकि रेखा तो पूर्णतः मनोहर के आकर्षण के जाल में फंस चुकी थी।अब तो जब भी मौका मिलता, मनोहर अपनी मर्जी पूर्ण कर लेता।रेखा को भी इस नए खेल में बेहद आनन्द आता था क्योंकि उसे इसके दुष्परिणामों का तो पता था ही नहीं, और शायद वह समझना चाहती भी नहीं थी, अंधे इश्क का पर्दा जो आंखों पर पड़ गया था।आज वह दुष्परिणाम रेवती के सामने था।
पहले तो रेवती ने सोचा कि मनोहर से बात करे,फिर विचार किया कि इससे बात अधिक बिगड़ जाएगी, अतः मां से बात कर चुपचाप गर्भपात करवाकर बहन को वापस मायके भेज दूंगी,फिर जल्दी से रेखा का अन्यत्र विवाह करवा दूंगी।लेकिन शाम होते ही रेखा ने मनोहर को सारी बात बता दी।जब बात खुल गई तो मनोहर पूरी निर्लज्जता पर उतर आया कि रेखा तो मेरे साथ ही रहेगी,तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो चली जाओ।इतना कमाता हूँ कि दोनों को रख सकता हूँ।
मनोहर का यह रूप देखकर रेवती हतप्रभ रह गई, उसे काटो तो खून नहीं।आज रेवती बुरी तरह पछता रही थी अपनी गलती पर कि क्यों उसने बहन को घर पर रखा?क्यों आंख मूंदकर सबपर विश्वास किया।जब उसने रेखा को समझाना चाहा तो उसने भी दो टूक शब्दों में कह दिया कि वह तो जीजा के साथ ही रहेगी।
रेवती कहाँ जाती, मायके में भी तो उसका गुजारा नहीं था।मां से बात किया तो उल्टे उसी को समझाया कि चुपचाप पड़ी रह,कम से कम सर पर छत तो है, देहरी लांघकर कटी पतंग हो जाएगी,जिसे सब लूटने को तैयार रहते हैं।रेखा को न डाँटा, न फटकारा, शायद उसकी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाकर मां भी निश्चिंत हो गई थीं।रेवती के पास बर्दाश्त करने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं था।कोई बाहरवाली होती तो फिर भी कम अफसोस होता,यहाँ तो अपनी ही सगी बहन ने घर उजाड़ दिया।पंडित बुलाकर मनोहर ने रेखा के संग भी फेरे डलवा लिए,हालांकि हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार यह अपराध था,परन्तु ताकतवर के लिए कुछ भी गुनाह नहीं होता।पास-पड़ोस के लोग कानाफूसी करके कुछ दिन में खामोश हो गए, वैसे भी किसी को किसी से विशेष लेना देना तो होता नहीं।रेवती का उजड़ा घर देखकर जिठानी के कलेजे में ठंडक पड़ गई।
रेवती की खुशियों पर तो ग्रहण लग ही चुका था, बच्चों के मोह में दिन गुजर रहे थे।कभी कभी मनोहर उसके कमरे में भी रात गुजारकर पति धर्म पूरा कर जाता,शायद उसके ऊपर किए गए खर्च की कीमत वसूलने आता था।रेवती का मन तो करता कि धक्का मारकर कमरे से बाहर कर दे,किंतु पराधीनता की विवशता ऐसा करने से रोक देती।खौलते खून और बहते आंसुओं के संग दिन व्यतीत हो रहे थे रेवती के।
छः माह की गर्भावस्था में एक दिन रेखा आंगन में फिसलकर गिर गई।तुरंत अस्पताल ले जाया गया, रेखा की हालत गंभीर थी,रेखा तो बच गई, किंतु बच्चे के साथ-साथ बच्चेदानी भी निकालनी पड़ गई , अब वह कभी मां नहीं बन सकती थी।स्वस्थ होने के बाद घर आने पर रेखा के मन में एक बार तो यह विचार आया कि बहन का घर उजाड़ने का दंड उसे ईश्वर ने इस तरह से दे दिया, लेकिन तुरंत अपने अपराधबोध को मन से झटक दिया।मनोहर को विशेष फर्क नहीं था उसके कभी मां न बन पाने से क्योंकि उसके तो तीन बच्चे उसके पास थे ही।बल्कि वह तो मन ही मन प्रसन्न था कि अब और बच्चों का झंझट नहीं रहेगा।
रेखा पूरे ठसक के साथ घर की मालकिन बनी,चाबियों का गुच्छा कमर में लटकाए पूरे साज-श्रृंगार के साथ घर-बाहर घूमती रहती।मनोहर जब कहीं 2-3 दिनों के लिए बाहर जाता तो वह भी साथ जाती।
क्रमशः ……
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