चुनिंदा लघुकथाएँ - भाग 2 - 4 - अंतिम भाग Lajpat Rai Garg द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चुनिंदा लघुकथाएँ - भाग 2 - 4 - अंतिम भाग

16

निरुत्तर

सात-आठ वर्षीय सुमी अपनी मम्मी संग गर्मियों की छुट्टियों में अपनी ननिहाल आया हुआ था। बीस-बाईस वर्षीय नीतीश बेड पर बैठा टेलीविजन देख रहा था। सुमी बेडरूम में आया और बोला - 'मामू, मुझे कार्टून वाला चैनल देखना है।'

नीतीश हिस्ट्री चैनल देख रहा था, जिसपर उसका पसंदीदा एपीसोड आ रहा था। अतः उसने कहा - 'थोड़ी देर रुक जा। मैं यह एपीसोड देख लूँ, फिर तू कार्टून देख लेना।'

सुमी उसी समय कार्टून देखना चाहता था। उसने रिमोट उठाया और चैनल बदल दिया। नीतीश ने उसके हाथ से रिमोट पकड़ते हुए उसे हल्का सा डाँट दिया। वह आँखें मलते हुए अपने नाना के पास गया और मामू की शिकायत लगाते हुए बोला -'नानू, मामू मुझे टी.वी. नहीं देखने दे रहा, ऊपर से मुझे मारा भी।'

'कोई बात नहीं बेटे, मैं तेरे मामू को समझा देता हूँ। वह तुझे टी.वी. भी देखने देगा और मारेगा भी नहीं।'

'नानू, आपने मामू को इसलिए नहीं डाँटा, क्योंकि वह आपका बेटा है?'

नाना था निरुत्तर।

॰॰॰॰॰॰

 

17

सेल

माला कई दिनों से बीमार थी। नित्यकर्म के अलावा वह कोई काम नहीं करती थी और प्राय: सारा दिन बिस्तर पर ही रहती थी। मेड ही झाड़ू-पौचा से लेकर खाना आदि बनाने तक घर के सभी काम करती थी।

माला का पति, पुत्र और पुत्रवधू अपने-अपने काम पर जा चुके थे। मेड अपने काम में लगी हुई थी कि डोरबेल बजी। मेड ने दरवाज़ा खोला। माला की भतीजी अनिला जो उसी नगर के दूसरे छोर पर रहती थी, आई थी। उसे देखकर माला के उदास चेहरे पर रौनक आ गई।

आपसी कुशलक्षेम का आदान-प्रदान हुआ। माला के आदेश पर मेड चाय-नाश्ता ले आई। चाय पीने के दौरान माला ने कहा -'अनिला बेटे, तू अकेली इतनी दूर से क्यों आई, फोन कर लेती या शाम को दामाद बाबू और बच्चों के साथ आ जाती।'

'बुआ जी, मुझे इधर काम था। मैंने सोचा, आपसे भी मिल लेती हूँ।'

'यह तो तूने अच्छा किया। बहुत दिन हो गये थे मिले हुए।'

कुछ देर और इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् अनिला ने कहा -'अच्छा बुआ जी, अब मैं चलती हूँ।'

'कहाँ जाने के लिये आई थी तू?'

'मैं मीना बाज़ार जा रही हूँ। सीज़न की आखिरी 'सेल' लगी हुई है।'

'पाँच मिनट रुक, मैं भी चलती हूँ।'

'पर, आप तो.....!'

'अरे, कोई बात नहीं। बहुत दिन हो गये बेड पर पड़े हुए। इस बहाने शरीर हरकत में आ जायेगा और कुछ खरीदारी भी कर लूँगी।'

॰॰॰॰॰

 

18

अस्थिर मन

अन्य अधिकांश कर्मचारियों की भाँति ही अधेड़ावस्था में प्रवेश कर चुके मनोहर और हरपाल भी लंच-टाईम से पहले ही लंच कर लिया करते हैं। लंच-टाईम सिटी प्लाजा में धूप सेंकने या विंडो-शापिंग में व्यतीत करते हैं। आज भी जब वे विंडो-शापिंग यानी कैपीटल बुक डिपो से इंग्लिश बुक स्टोर तक का चक्र लगा कर अपने केबिन में आकर बैठे तो हरपाल मनोहर से कहने लगा -'यार मनोहर, यह मन भी बड़ा विचित्र है?'

'क्यूँ, क्या हुआ?'

'देख, हम लोग शोरूमों के सामने घूमते हैं, कितनी ही जवान सुन्दर लड़कियाँ और स्त्रियाँ हमारे पास से गुज़रती हैं, किन्तु कभी किसी को लेकर मन में कोई ग़लत विचार नहीं आता। परन्तु....'

हरपाल बात करते-करते रुका तो मनोहर ने पूछा - 'परन्तु क्या?'

'यार, जब मैं शाम को संध्या करने बैठता हूँ तो दिन में देखी किसी-न-किसी लड़की या स्त्री का चेहरा सामने आ खड़ा होता है और मन में उबाल उठता है कि काश! वह मेरे जीवन में होती। और पूजा-पाठ बस एक औपचारिकता बन कर रह जाता है।'

'मैं तो यही कहूँगा, मन की गति समझ सका न कोय!'

॰॰॰॰॰

19

“आश्रित”

निरीक्षकों की हाजिरी पुस्तिका जिला निरीक्षक के कमरे में रखी रहती थी। जैसे-जैसे निरीक्षक ऑफिस में आते थे, हाजिरी लगाकर फील्ड में निकलने से पहले वहीं बैठकर उस दिन किये जाने वाले काम की चर्चा तथा चाय की चुस्कियों के साथ गपशप करते थे।

एक दिन सतविन्दर सिंह ने आते ही पिछले दिन की अपनी कारगुज़ारियों की शेखी बघारनी शुरू कर दी बिना ध्यान दिये कि कमरे में एक अपरिचित-अजनबी व्यक्ति भी बैठा है। जब वह कुछ अधिक ही बोल गया तो जिला निरीक्षक धनपत ने उसे सावधान करने के इरादे से टोकते तथा अपरिचित व्यक्ति की ओर संकेत करते हुए कहा - 'सतविन्दर, तूने ध्यान नहीं दिया, ये मनोज जी हैं, विजिलेंस में इंस्पेक्टर।'

सतविन्दर ने सत्ता के गलियारों में अच्छे सम्बन्ध बना रखे थे। उसने जिला निरीक्षक की चेतावनी को दरकिनार करते हुए कहा - 'की खास गॅल है जनाब?' और साथ ही मनोज की तरफ हाथ बढ़ाते तथा अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा - 'असीं कुझ करांगे तांही ऐन्हां दी पुच्छ होउगी। क्यों, ठीक है ना मनोज जी?'

मनोज ने सतविन्दर के बढ़े हुए हाथ से हाथ मिलाया, लेकिन वह बोला कुछ नहीं।

॰॰॰॰॰

 

20

एक बार और

बाबूलाल और उसके मित्रों ने एक अच्छे रेस्तराँ में खाना खाने के पश्चात् बिल मँगवाया। वेटर ने बिल फोल्डर में रखकर उनके सामने रख दिया। बाबूलाल ने बिल देखकर पाँच सौ के पाँच नोट फोल्डर में रखे और वेटर को पकड़ा दिया। वेटर ने काऊंटर पर पेमेंट दी और बकाया राशि फोल्डर में रखकर बाबूलाल के सामने टेबल पर रख दिया। बाबूलाल ने फोल्डर खोला, दो सौ का नोट उठाया और फोल्डर वेटर की ओर बढ़ा दिया। वेटर बिना कुछ कहे चला गया। प्रवीण अपनी उत्सुकता नहीं दबा पाया। उसने पूछ ही लिया - 'कितना था बिल?’

'इक्कीस सौ नब्बे।'

'मतलब तूने एक सौ दस रुपये टिप के छोड़ दिये और वेटर ने थैंक्स तक नहीं कहा!’

'छोड़ यार। आओ चलें।'

बाहर आकर कार में बैठकर बाबूलाल ने कार स्टार्ट की। प्रवीण फिर बोला - 'क्या जमाना आ गया है! वेटर को एक सौ दस रुपये टिप मिलने पर भी कोई खुशी नहीं हुई। मुझे याद आ रही है 1971 के कॉलेज टूर की।'

'कॉलेज टूर का इससे क्या लेना-देना?' महावीर ने पूछा।

'लेना-देना है, तभी तो याद आई है।'

'तो बुझारते क्यों बुझा रहा है, सीधे-सीधे बता, कहना क्या चाहता है तू?'

'कलकत्ता-नेपाल टूर का अन्तिम पड़ाव था देहरादून। सुबह-सुबह ट्रेन वहाँ पहुँची। टूर-प्रोग्राम के अनुसार नाश्ते के बाद प्रोफेसर हमें सहस्त्रधारा ले गये। दूसरा दिन का कोई साझा प्रोग्राम नहीं था। हमने प्रोफ़ेसरों को कहा कि सभी को इकट्ठे मसूरी दिखला लाओ। ज्यादातर लड़के और खर्चा देने को भी तैयार थे, किन्तु प्रोफेसर नहीं माने। अतः हम पाँच लड़के दूसरे दिन मसूरी पहुँच गये। क्योंकि देहरादून से ट्रेन रात आठ बजे चलनी थी, इसलिये हमारे पास समय कम था। हमने पहले लंच करने तथा फिर घूमने की प्लान बनाई। मॉल रोड पर एक साफ-सुथर ढाबा था। वहाँ थाली सिस्टम था। पूछने पर बहादुर ने बताया कि साधारण थाली डेढ़ रुपये, स्पेशल दो और शाही ढाई रुपये की थी। हमारे एक साथी महेश, जिसके पास साझे खर्चे के पैसे रहते थे, ने पाँच शाही थालियाँ लाने का ऑर्डर दिया। खाने के बाद उसने बहादुर को पन्द्रह रुपये दिये। उसने बकाया ढाई रुपये लाकर वापस कर दिये। महेश ने दो रुपये जेब में डाले और अठन्नी बहादुर को दे दी। उसकी आँखें चमक उठीं। उसने अटेंशन होकर सेल्यूट मारा। महेश ने तुरन्त जेब से एक अठन्नी निकाली और बहादुर को पकड़ाते हुए कहा - 'एक बार फिर।'

बात सुनकर सब ठहाका मारकर खूब हँसे। बाबूलाल ने कहा - 'वक्त-वक्त की बात है यारो।'

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