बैंगन - 34 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बैंगन - 34

मेरे दोस्त इम्तियाज़ के जो बेटे यहां रह कर पढ़ते थे, एक दिन मुझसे मिलने आ पहुंचे।
मेरे लिए अचरज की बात ये थी कि इन बच्चों को मेरा पता ठिकाना कहां से मिला?
ओह, ये शायद तन्मय की वजह से हुआ हो, क्योंकि ये लड़के मुझसे मिलने भाई के बंगले पर नहीं आए थे बल्कि तब आए थे जब मैं तन्मय के पिता से मिलने उनके मंदिर में गया हुआ था।
मैं सोचता था कि इम्तियाज़ के दोनों छोटे बेटे पढ़ने- लिखने में मन लगाने वाले हैं, केवल बड़ा ही इधर- उधर तफरी करने और इम्तियाज़ के अनुसार आवारा फिरने में रहता है, इसलिए शायद वही मुझसे मिलने आ गया होगा। पर नहीं, ये तो छोटा वाला परवेज़ था। साथ में उसके कुछ दोस्त भी।
परवेज़ के लिए कभी- कभी इम्तियाज़ कहता था कि वह सारी - सारी रात पढ़ता है और दिन भर कमरे पर पड़ा सोता है।
मुझे तो यही हैरानी थी कि ये लड़के अपने कॉलेजों में कब होते हैं? क्या वहां इनके होने, न होने का कोई लेखा - जोखा नहीं रखा जाता? फ़िर इतनी भारी मोटी रकम फ़ीस के रूप में कहां, क्यों, किस बिना पर दी जाती है?
शायद वहां सनद की ही कीमत होती हो, कुछ सीखने की नहीं।
जाने दो, मुझे क्या?
मैंने परवेज़ से पूछा- खाना खाया?
- जी अंकल। आज तो मैं अपने दोस्तों के साथ उनके हॉस्टल चला गया था, वहीं खा लिया।
- क्या खाया? मैंने पूछा। जब बचपन के दोस्तों के बच्चे कहीं घर से दूर मिलते हैं तो आत्मीयता जताने के लिए यही सबसे माकूल प्रश्न भी होता है।
- जी बैंगन बने थे, पूड़ी के साथ! वह कुछ उदासीनता से बोला।
जब पुजारी जी ने सबको प्रसाद ले जाने के लिए आवाज़ लगाई तो सभी लोग, और ये सब लड़के भी लाइन बनाते हुए पुजारी जी के करीब से गुजरने लगे। पुजारी जी की ये भीड़ परवेज़ और प्रवीण का अंतर कहां समझती थी।
मैं धीमी चाल से चलता हुआ बाहर आ रहा था मगर मुझे न जाने क्यों, बरसों पुराना एक वाकया स्वतः याद आ गया था।
उन दिनों की बात, जब मैं खुद विद्यार्थी था। मैं अपने किसी फॉर्म पर हस्ताक्षर लेने के लिए अपने प्रिंसिपल के पास गया तो वो एक सफाई कर्मचारी से बात कर रहे थे।
बात क्या, बल्कि एक तरह से उसे डांट ही रहे थे। शायद पैसे को लेकर कोई बात हो रही थी। प्रिंसिपल साहब उलाहना दे रहे थे कि बार- बार सफ़ाई करवाने के बावजूद ये नालियां क्यों इतनी जल्दी- जल्दी चोक हो जाती हैं? हमेशा कचरे से पानी रुका ही रहता है।
सफाई कर्मचारी अपनी सफ़ाई में कह रहा था कि मैस वाले सब्ज़ियों का कचरा इन्हीं में डालते रहते हैं। कभी कभी तो साबुत सब्जियां तक पड़ी मिलती हैं साहब। कल ही दो बैंगन हटाए...
आसपास खड़े लड़के हंस पड़े।
प्रिंसिपल साहब ने इस समय विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ कुछ न कह कर उल्टे कर्मचारी को ही झिड़का- सब्ज़ी कौन फेंकेगा, मुफ़्त की आती हैं क्या? छिलके- डंठल होंगे।
कर्मचारी धीमे स्वर में बोला- बैंगन के छिलके थे साहब!
एक बार फ़िर सब ज़ोर से हंस पड़े। इधर- उधर देखते प्रिंसिपल साहब भी कुछ मुस्कराते हुए झेंप कर रह गए।
उन्होंने मेरे हाथ से फॉर्म लिया और जेब से पैन निकाल कर उसका ढक्कन खोलते हुए बुदबुदाए- बैंगन के छिलके...!
उस दिन हॉस्टल में रात को देर तक लड़कों के बीच इस बात पर चर्चा होती रही। कुछ समझदार लड़के कह रहे थे, वो बेचारा गर्ल्स हॉस्टल की बात कर रहा होगा।
ये बात तो कई दशक पुरानी थी, आज न जाने कैसे मुझे याद आ गई।
इस बार जब मैं घर पर नहीं था तो इम्तियाज़ मेरे घर मिलने आया था। माताजी बता रही थीं कि वो मेरी बहुत तारीफ़ कर रहा था। कह रहा था कि देखो आज के ज़माने में सब लोग पैसे कमाने के पीछे पागल रहते हैं। सही- ग़लत की परवाह न करके रात- दिन "दो और दो पांच" करते रहते हैं। और मैं, अपनी दुकान पर शांति से कर्मचारियों को रख कर सादगी से रहता हूं। रिश्तेदारों से मिलने का समय भी निकलता हूं और सबसे मेलजोल भी रखता हूं। आज के ज़माने में ऐसा कौन करता है। मां ने न जाने उसे क्या कहा होगा? और मेरी पत्नी ने तो अपने स्वभाव के अनुसार फ़ौरन ये कयास लगा ही लिया होगा कि ज़रूर इस इम्तियाज़ को कोई मुझसे रुपए पैसे का काम आ पड़ा होगा! आजकल मुफ़्त में कोई किसी की तारीफ़ भी कहां करता है।
मुझे याद आया कि आज शाम को खाना खाने के लिए बाहर चलने के लिए मैं भाभी और बच्चों से कह आया था अतः झटपट भाई के बंगले की तरफ बढ़ लिया। रात भी होने लगी थी। जाने भाई दिल्ली से लौटा होगा या नहीं!