बैंगन - 31 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Devil CEO - 2

    सभी नाश्ता करके अपने काम पे निकल जाते है अक्षत और जसवंत जी क...

  • Love Blossom Devil's Unwanted Wife - 1

    वीरेंद्र प्रताप सिंह , बाड़मेर के हुकुम सा , साक्षात यमराज ,...

  • क्या खूब कहा है...

    कोई ठहर नहीं जाता किसी के भी जाने से यहां कहां फुरसत है किसी...

  • शोहरत का घमंड - 109

    आलिया के आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और उसे कुछ भी समझ...

  • वीर साधना

    वीर  बहुत प्रकार के होते हैं।। जैसे की वीर हनुमान , वीर बेता...

श्रेणी
शेयर करे

बैंगन - 31

इम्तियाज़ के तीन लड़के नज़दीक के एक बड़े शहर में पढ़ते थे। छोटे दोनों का मन तो सचमुच पढ़ने में लगता था पर बड़ा केवल उन्हें संभालने और माता - पिता की नज़र से ज़रा आज़ादी हासिल करने की गरज से ही वहां था।
तो इम्तियाज़ ने जिस खबर के नाम पर मेरा मुंह मीठा करवाया था वो भी कोई कम दिलचस्प नहीं थी।
दरअसल इम्तियाज़ के बेटे ने एक घोड़ा ख़रीदा था।
मिठाई तो मैंने ज़रूर उदरस्थ कर ली थी लेकिन मुझे ये नहीं पता चल सका था कि उस तेज़ी से बढ़ते- फैलते महानगर में इम्तियाज़ के साहबज़ादे आख़िर घोड़े का करेंगे क्या? मुझे ये इसलिए मालूम नहीं चल पाया क्योंकि ये ख़ुद उसे भी मालूम नहीं था।
भाई वाह! अब्बा हुजूर हों तो ऐसे। ये पता करना तो दूर कि पढ़ने के नाम पर नज़र से दूर गया बेटा कर क्या रहा है, वो जो भी कर रहा है उसके उपलक्ष्य में यारों का मुंह मीठा कराने चले आए।
मैंने सोचा कि इम्तियाज़ से ज़्यादा पूछताछ करूं तो कहीं वो भी ये न समझने लगे कि मैं उसके बेटे की तरक्की से जल रहा हूं लिहाज़ा मैंने चुप्पी साध ली। लेकिन मन ही मन ये ज़रूर ठान लिया कि अब भाई से मिलने मानसरोवर उसके बंगले पर जब भी जाऊंगा, इम्तियाज़ के साहबज़ादे के घोड़े पर सवारी ज़रूर कर के आऊंगा।
लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। दो - चार रोज़ में ही तन्नू से पता चल गया कि उसके तांगे का घोड़ा बिक कर शायद इसी शहर में आने वाला है क्योंकि जिस लड़के ने उसे खरीदा है वो इसी शहर का रहने वाला है।
लो, जंगलों में भटकने की ज़रूरत क्या, जब सियार की हुआं - हुआं यहीं सुनाई दे गई।
इन दिनों दुकान का काम कुछ इस तरह चला कि मुझे बार- बार किसी न किसी काम से मानसरोवर जाना पड़ा।
जब भी मैं भाई के पास मानसरोवर जाने का कार्यक्रम बनाता, तन्नू मेरे साथ चलने के लिए किसी मासूम याचक की भांति आकर खड़ा हो जाता। ऐसे में उसे साथ न ले जाने का कोई विकल्प नहीं रहता।
जब मैं भाई के बंगले पर पहुंचा तो मेरा स्वागत हमेशा की तरह गर्मजोशी से ही हुआ। उधर भाभी चाय के साथ कुछ गर्म और चटपटा नाश्ता मेज पर सजाने में मशगूल थीं और इधर भतीजा एक अखबार लेकर मुझे दिखाने के लिए पास में आ बैठा।
एक मज़ेदार खबर थी जो वो मुझे दिखा रहा था। शहर में किसी नवोन्मेषी व्यापारी ने एक ऐसी कोरियर सर्विस शुरू की थी जिसमें डिलीवरी करने वाले सभी लड़के घुड़सवार थे।
शहर के किसी भी हिस्से में ये अश्वारोही ज़ियाले सामान पहुंचाते थे। इसी सेवा के उद्घाटन का समाचार छपा था। अख़बार ने इसे बढ़ती पेट्रोल- डीज़ल कीमतों के संदर्भ में एक क्रांतिकारी कदम बताया था। लेकिन इसी खबर में अख़बार ने एक सवाल भी उठाया था कि शहर की गलियों में टट्टुओं की आवाजाही से सड़कों पर गिरने वाली लीद और ट्रैफिक व्यवस्था में मची अफरातफरी का आलम क्या होगा, ये किसी ने नहीं सोचा है।
भाभी और बच्चों के साथ रात को डिनर में कहीं बाहर चलने का प्रोग्राम बना कर मैं झटपट नहाने- धोने के बाद बाहर निकल गया। मुझे जिस आदमी से मिलना था उसका ठिकाना काफ़ी दूर, लगभग बारह - चौदह किलोमीटर था। मैं टैक्सी से निकल कर मंदिर के पास वाले चौराहे पर पहुंचा ही था कि तन्मय मुझे सड़क पर खड़ा दिखाई दे गया। वह दिए गए समय से पहले ही तैयार होकर वहां आ खड़ा हुआ था।
हम आधे घंटे बाद जिस फार्म हाउस में पहुंचे वो आश्चर्यजनक रूप से काफ़ी बड़ा था। मुझे ये गुमान नहीं था कि सुदूर एकांत में इतनी बड़ी मिल्कियत लेकर भी इंसान इतनी शांति से रह सकता है।
हमें खजूर का रस पिलाने की पेशकश की गई।
लेकिन मैं अब तक जिसे आश्चर्यजनक समझता रहा वह आश्चर्य तो कुछ नहीं था। असली अजूबा तो अब सामने था।
फार्म हाउस के पिछवाड़े बना ये खेत बहुत लंबे- चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। नज़दीक पहुंचने पर छोटे- छोटे हरे पौधों में चमकते हुए काले- काले बैंगन दिखाई दिए! जी खुश हो गया।