उम्मीदों की छाॅंव में.... pooja rani sori द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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उम्मीदों की छाॅंव में....

6 साल की श्रीजा , जिसे पूरा विश्वास है कि "अच्छे लोगो के साथ हमेशा अच्छा होता है।" ये कहानी श्रीजा के उसी विश्वास और जीवन की वास्तविकता के बीच की संजीदा पहेली है। समय खुद में इतना बलवान होता है कि भविष्य की योजनाओं और वास्तविकता को मिलाने में कोई ना कोई खेल जरूर खेलता है कभी उनकी कल्पनाओं को साकार रूप दे देता है तो कभी कल्पना को कल्पना के आकाशगंगा में ही छोड़ देता है।
ये कहानी उसी उम्मीद, विश्वास और हकीकत के बीच तैरती दुनिया के नाम...
(१) श्रीजा....
बारिश की हल्की फुल्की बूंदों से भींगी एक खुशनुमा सुबह, जब सूरज सुर्ख लाल गुलाबी हुए नीले आसमान में मुॅंह दिखाई का रस्म अदा कर रहा था। उस वक्त मुस्कुराती, इठलाती,मदमस्त श्रीजा ने अमोल और अनुजा की जिंदगी में अपना शुभ कदम रख दिया था। इस संसार में आने वाले बच्चे के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है कि उसके उज्ज्वल भविष्य को नया आयाम देने के लिए उसके माता पिता खिलखिलाते सूरजमुखी सा चेहरा लिए बांहे फैलाए उसका इंतजार कर रहे हो।
श्रीजा भी ठीक उन्ही सपनो और आशाओं को लेकर हॉस्पिटल के एक कमरे से इस दुनिया को देखने को आतुर थी , हालांकि उसे बिल्कुल भी नहीं पता था कि उसका आने वाला कल कैसा होगा । नर्स ने श्रीजा को सबसे पहले एक ऐसे अपरिचित इंसान के हाथो में दिया, जिसके चेहरे मे खुशी ऐसी झलक रही थी ,जैसे एक छोटे से बच्चे को उसका मनपसंद खिलौना मिल गया हो । एकदम खिला खिला, उज्जवल, प्रसन्नता से युक्त किन्तु भींगी पलको में चमक बरकरार थी। ये खुशी के आंसू ही तो थे , प्यार और ममता से ओतप्रोत चमक लिए हुए ,बिल्कुल गहरे समुद्र से तुरंत निकाले हुए मोती की तरह।
अमोल के लिए जैसे सपने साकार होने वाले पल थे,जिसे वह कैद करने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा था । श्रीजा थी भी तो इतनी प्यारी ,कि कोई भी उस पर मोहित हो जाए । काली-काली बड़ी आंखे , गुलाबी गाल, सीधे लेकिन थोड़े घुंघुराले बाल , जो हाथ से पकड़ भी नहीं आ रहे थे लेकिन चमक देखते ही बन रही थी, जैसे अभी-अभी हेयर स्पा लिया हो और उसके छोटे- छोटे हाथ पैर, जो रूई की मखमली लिबास से ढकी हुई थी। गोद में लेते ही अमोल की आंखो में ममता की धारा छलक पड़ी। उस वक्त की खुशी इतनी थी कि कोई भी ऐसा नहीं था जो अमोल की खुशी को नजरअंदाज कर पाए और शायद अमोल की आंखो की चमक, उनकी खुशी सबकुछ जाहिर कर रही थी।
एक पिता जिसकी भावुकता ऐसे नाजुक पलो में ही तो दिखती है या फिर उन पन्नों में दिखती है जिसे वह या तो अपने मन तक सीमित रखता है या फिर कलम से खेलने का शौक रखने वाले पिता अपनी खुद की डायरी तक सीमित रखता है।
अमोल को डायरी लिखने का बहुत शौक था, वह अपनी हर बातो को डायरी में लिखते थे, फिर चाहे वह उसके भविष्य की योजना हो या अनुजा से पहली मुलाकात या श्रीजा के हर पल को समेटने की प्यारी प्यारी बाते , सबकुछ समेत कर लिखना अमोल को बहुत अच्छा लगता था।
"आज से 6-7 साल बाद जब श्रीजा थोड़ी बड़ी हो जाएगी तब हम तीनो वर्ल्ड टूर में जाएंगे, मै श्रीजा को पूरी दुनिया दिखाऊंगा।" (उन्ही डायरी के पन्नों में से)
वहीं अनुजा को डायरी लिखना बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि उसका मानना था कि डायरी लिखने और अपने सपनो को पहले ही जी लेने की कल्पना अंत में जख्म ही देती है। आप जितना अपनी इच्छाओं को पूरा करने की अग्रिम कोशिश करोगे, कुछ ना कुछ छूटेगा ही, इसलिए दर्ज करने की जगह वर्तमान को ही जी लो । वैसे भी ख्वाहिशों के पुल पर तो सिर्फ ईश्वर का अधिकार होता है, जिसे वह जब चाहे तोड़ भी सकता है और जब चाहे कुछ लंबे अरसे के लिए जोड़ के रख भी सकता है।
दूसरी ओर अमोल को अपनी भावनाएं शब्दों में व्यक्त करना नहीं आता था, लेकिन डायरी और पत्र लिख कर अपनी बाते कहने का शौक जरूर था इसलिए वह अपने सपने, अपनी इच्छाओं को, अपने वक्त के कुछ अच्छे पल को डायरी में स्वयं के लिए हमेशा से समेत कर रखना चाहता था वहीं दूसरो से अपनी बाते कहने के लिए पत्र लिख कर उन्हें भी दर्ज करना चाहता था। डायरी लिखना अपनी कुछ कही अनकही बातों को इतिहास में दर्ज करने को काफी होता है, फिर भले उसमे नायक की पहचान चार लोगो तक ही सीमित हो ,लेकिन उसका इस धरती में वजूद जरूर दर्ज हो जाता है।
(२) एक पत्र उम्मीदों की......
उन्ही कागजों के पुलिंदे से निकला एक पत्र, जो श्रीजा के अच्छे भविष्य की कल्पना करते हुए उसके जन्म होने के कुछ समय बाद लिखी गई थी, अमोल ने अपनी बहन मीनू के लिए.....
मीनू ....
कैसी हो?
बहुत दिनों से एक बात कहनी थी, जो आज मै इस पत्र के माध्यम से तुम्हे कहना चाहता हूॅं । श्रीजा के आने से जिंदगी गुलजार हो गई है मीनू। जब भी मै,अपनी कलाइयों में उसके छोटे- छोटे हाथ पैर को समेटता हूॅं ,तो मुझे अनंत खुशी मिलती है ।पता नहीं मीनू, भविष्य में मै एक अच्छा पिता बन पाऊंगा भी या नहीं? लेकिन सच बताऊं तो मै एक अच्छा पिता बनना चाहता हूॅं , श्रीजा के हर कदम मे उसका साथ देना चाहता हूॅं , जिंदगी बहुत लंबी है इसलिए उसके लिए अभी से बहुत कुछ सोच चुका हूॅं।
पता है मीनू! मै हमेशा से तुम्हारा प्रशंसक रहा हूॅं , "एक सशक्त, सुलझी हुई और हँसमुख स्वभाव से अलंकृत। " तुम्हारे सामने, चाहे कितनी भी बड़ी परेशानी क्यों ना आ जाए, लेकिन परेशानियों मे भी हॅंस कर सामना करने की गजब की इच्छा शक्ति है तुममें, जो सब में नहीं होती ,मीनू! अपनी जिंदगी को शुरू से अपने ज्ञान और समझदारी से जीती आई हो |
"मै अपनी श्रीजा को बिल्कुल तुम्हारे जैसे काबिल और समझदार बनाऊंगा", मुझे बस तुम मार्गदर्शन देना , इसे बिल्कुल अपने जैसे बनाना । स्वभाव से, आदत व्यवहार से, और तुम जैसी होशियार रही हो अपने स्कूल समय में ,ठीक वैसी इसे भी बनाना है। एकदम अलग, जैसी तुम हो , समझदार, सर्वगुणसम्पन्न! और अगर मै असफल रहा तो मुझे टोकना जरूर या फिर मेरी श्रीजा को बीच-बीच में, मै तुम्हारे पास भेज दूंगा , फिर तुम इसे वो सबकुछ सीखाना , जो तुम्हे आता है। तुम्हे तो इतनी सारी चीज़े आती है कि अगर पूरी जिंदगी भर भी वह साथ रहे तो भी वह तुम्हारी जैसी नहीं बन पाएगी। लेकिन फिर भी मै कहना चाहूंगा कि मेरी बेटी को तुम अपने जैसे बनाना।
पता है मीनू , मैंने सोच रखा है कि मै, मेरी बेटी में कोई दबाव नहीं डालूंगा , वो जितना पढ़ना चाहेगी, उसे उतना पढ़ाऊंगा। उसका जो मन करेगा वह सब करने की खुली आजादी दूंगा ,लेकिन अगर उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा तो? तब भी क्या मै उस पर दबाव डालूं कि वह टॉपर बने, खूब पढ़े , हमारे अनुसार चले। वैसे उसे जरूरत ही क्या है,ज्यादा मेहनत करने की, उसके लिए तो मै ही काफी हूॅं, उसकी सारी इच्छाएं पूरी करने के लिए, मै तो हूॅं ही। लेकिन क्या ये उसके जीवन भर के लिए काफी होगा । शायद नहीं ना.... ? इसलिए मै सोच रहा कि मै दबाव तो बिल्कुल नहीं डालूंगा लेकिन ऐसी परवरिश जरूर दूंगा कि वह अपना हित, अपना अहित खुद जाने, पहचाने और ये समझे कि पढ़ना और अपने पैरों में खड़ा होना कितना जरूरी है, ना केवल अपने लिए,बल्कि उस जिंदगी के लिए भी जिसमे उसका खुद का नाम हो , वजूद हो, उसका खुद का हस्ताक्षर हो । फिर वह अपना नाम कैसे भी दर्ज़ कराती है वो उस पर निर्भर करता है।
"वैसे भी इस दुनिया में आकर मुट्ठी भर लोगो के बीच अपनी पहचान नहीं बना पाए तो इस जिंदगी का क्या मतलब।"
फिर तुम्हे देखता हूॅं तो सोचता हूॅं कि क्या नौकरी करने से ही पहचान बनती है? तुम्हारे प्रसंग में तो ये बिल्कुल विरोधाभास प्रतीत होता है। तुमने तो "अपनी पहचान"का सारांश ही बदल दिया है, जैसे कीचड़ भरे जल में कमल खिलता है उत्पन्न वही से होता है, लेकिन आसपास से बिल्कुल अलग होता है , ठीक वैसी छवि तुम्हारी है।जहाॅं तक, मै समझ पाया हूॅं " ऐसा व्यक्तित्व जो अपना अस्तित्व स्थापित कर महक सके और अपने आसपास के लोगों के बीच सूरज की तरह चमक सके। अगर वह एक अनपढ़ परिवार में जाए तो अपनी समझदारी से उस परिवार की जिंदगी बदल सके।
एक ऐसा व्यक्तित्व जो असभ्यता के कीचड़ में फंसे लोगो को निकाल के बिल्कुल अलग एक अच्छा इंसान बना दे, एक अच्छा विचार उत्पन्न करे , अपनी शिक्षा से, अपनी समझदारी से। फिर भले वह गृहलक्ष्मी ही क्यों ना बने लेकिन उस रूप में भी वह इतनी सशक्त रहे कि अपने आस पास के लोगों को प्रेरणा दे सके।
तुम भी तो इसी गुणों से युक्त एक कुशल गृहिणी हो , लेकिन अपने घर में सबसे अलग हो, और तुम्हारी इसी पहचान से मै सबसे ज्यादा प्रभावित हूॅं। तुम बचपन से ऐसी ही पहचान बनाती आई हो । मुझे अच्छी तरह याद है, कैसे तुमने अपने स्कूल के समय में हमें गौरवान्वित किया था ।
17 साल की रही होगी ना, जब तुम्हारी पहली नौकरी लगी थी, "सहायक शिक्षिका के पद पर" | बड़े भैया ने घर में आकर बताया था 'मीनू तूने तो टॉप किया है' चयन सूची में सबसे ऊपर तेरा नाम लिखा है , तूने इस पूरे इलाके में टॉप किया है, लेकिन चयन सूची मे सबसे ऊपर नाम होने के बावजूद अंतिम सूची मे नाम नहीं आया था, क्योंकि तुम्हारे 18 साल पूरे होने में तीन माह शेष थे। मैट्रिक (11th) पास होने के बाद सहायक शिक्षिका के लिए पहली बार तुमने आवेदन किया था और पहली बार मे ही तुम्हारा चयन हो गया था |
एक किसान के घर मे जन्मी बेटी के लिए ये बहुत बड़ी बात थी |अपनी उम्र से आगे ,उम्र कम होने के बाद भी तुम्हारी पढ़ाई के प्रति रुचि इतनी ज्यादा थी कि बड़ी दीदी के साथ उन्हीं की कक्षा मे बैठ जाया करती थी और शायद इसलिए समय से पहले ही तुमने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर ली थी। अपने गाँव मे कॉलेज जाने वाली पहली बैच मे तुम शामिल थी ना मीनू। हालांकि मैट्रिक पास करने के बाद तुमने पढ़ाई छोड़ दिया था क्योंकि उस समय हमारे गाँव मे कॉलेज नहीं था और उस एक साल में कुछ ना करने की तुम्हारी बैचेनी देखी है मैंने। हालांकि एक साल के बाद कॉलेज खुलते ही तुमने तुरंत कॉलेज में दाखिला लिया था |
उसके बाद तुमने नौकरी के लिए दोबारा प्रयास किया था ना, लेकिन इस बीच तुम्हारी शादी हो गई और तुम्हारी किस्मत अब भगवान के साथ ससुराल वालो ने भी लिखना शुरू कर दिया | तुम्हे बैंक और सहायक शिक्षक जैसे दोनों नियुक्ति से हाथ धोना पड़ गया। आज भी बैंक और सहायक शिक्षिका का तीनों प्रवेशपत्र मैंने संभाल कर रखा है तुमने तीन बार नौकरी की चाहत में परीक्षा दी और तीनों बार तुमने अपनी योग्यता साबित की, फिर भले वह सपना साकार ना हो पाया लेकिन तुमने सिद्ध कर दिया था कि तुझमें कुछ बात तो जरूर है, जो तुझे दूसरो से अलग बनाता है।
फिर चाहे किस्मत तुम्हारे लिए क्या लिख कर रखा था, मायने नहीं रखता , तुमने कम से कम कोशिश कर अपनी मौजूदगी तो किसी कागज में दर्ज कराया।अपना वर्तमान तुमने अपने आसपास के लोगों से ऐसा श्रेष्ठ रखा कि तुम्हारी उपस्थिति को कोई नजरअंदाज ना कर सका ।
खैर अगर तुम इसका विरोध करती तो शायद बात कुछ और होती और तुम्हारी खुद की पहचान होती, एक "वर्किंग वुमन" के रूप मे, जिसे शायद सारी दुनिया पहचान का नाम देती है। लेकिन तुमने दूसरा रास्ता चुना और वो चुना जिसमें शायद सबकी खुशी थी, तुमने एक कुशल गॄहिणी के तौर पर अपनी शुरुआत की, अपने व्यवहार से अपने घर परिवार और एक सीमित समाज मे पहचान पा ली, एक अच्छी बहु की, एक अच्छी पत्नी और अब अच्छी माॅं की....अपने पैरों मे खड़े होने का तुम्हारा खुद का सपना तो पूरा नहीं हुआ इसलिए तुमने अपने बच्चो को अपने दम पर कुछ करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया है। मुझे पता है, तुम अपने सपनों को जरूर पूरा कर सकती थी लेकिन अपनों के बनाए गए शर्त और लकीरों को लांघना तुमने नहीं सीखा था।
बचपन में माँ, बाबूजी ने हम सभी भाई बहनों को धर्म, ईश्वर, रामायण, महाभारत जैसे कई शास्त्रों से साक्षात्कार कराया और ना जाने कितने भजन, श्लोक इत्यादि का उच्चारण और अभ्यास हमें खेल-खेल में ही सिखाया था, जिसे मै तो समय के साथ भूलता गया, लेकिन मैंने देखा है, कैसे तुमने उन सभी ज्ञान की पोटली को अभी तक संजो कर रखा है। रामायण की चौपाई से लेकर माँ दुर्गा के जस गीत और भजन को तुमने भूलने नहीं दिया है।
तुझमें कुछ तो बात जरूर है मीनू, इसलिए मै चाहता हूं कि मेरी श्रीजा भी तुम्हारी जैसे ही बने, परिस्थिति और दूसरो की आशाओं को साथ में लेकर चले और जहां भी रहे खुश रहे, आबाद रहे ।
तुम्हारा भाई
मुन्ना (अमोल)
(३) मीनू का पत्र मुन्ना के लिए....
उन्ही बिखरे पन्नों के बीच, मीनू का पत्र, जिसे अमोल ने संजो कर रखा था.....
प्रिय
मुन्ना
कैसा है?
कुशलता पश्चात कुशलता की कामना!
श्रीजा और अनुजा को मेरा प्यार....
तुम्हारे पत्र ने बाबूजी (पापा) की चिंता को फिर जीवंत कर दिया। तुम बिल्कुल बाबूजी जैसा सोचते हो। तुम अभी से कितनी सारी चीज़े सोच चुके हो, अभी तो श्रीजा को इस दुनिया में आए ज्यादा दिन भी नहीं हुआ है और तुमने तो उसे अपनी ख्यालो में ही बड़ा कर लिया है। खैर! मुझे पूरा भरोसा है तुमने जो भी सोचा है उसमे भगवान जरूर तुम्हारा साथ देगा।
तुम्हे एक बात बताऊं,बाबूजी का साथ हमें हमेशा से राजकुमारी जैसा महसूस कराता था | हम उनके लिए राजकुमारी थे, हमेशा से। पता है क्यों... ? क्योंकि, उस जमाने में जब बेटो को बेटी से ऊपर रखा जाता था, तो बाबूजी उनसे कुछ अलग सोचते थे। हालांकि कुछ समय के लिए बाबूजी भी इन मानसिकताओं से ग्रस्त जरूर थे क्योंकि जब आप एक समाज में रहते हो तो इस तरह की मानसिकता वाले लोगों की दकियानूसी बाते कभी-कभी घर कर जाती है जो ना चाहते हुए भी सुननी और समझनी पड़ती है लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं होता कि आप इन मानसिकताओं को सदैव साथ ले कर चले । समय के साथ आपको ,अपनी अंतरात्मा की सुननी ही पड़ती है और बाबूजी ने भी ठीक ऐसा ही किया । बाबू जी ने भी समाज की परवाह किए बिना अपने अंदर की आवाज सुनी और इससे उनकी सारी दुविधा समाप्त हो गई और उससे उत्पन्न हुआ , हमारे लिए बाबूजी का एक समान प्यार और अधिकार, जो उन्होंने सदैव के लिए समान रखा। बाबूजी अक्सर कहते - मेरे लिए तुम सभी ....बेटी नहीं बेटा हो, और हमेशा बेटा कह कर पुकारते।
तुझे याद है! जब भी मां हमें डांटती, बाबूजी हमेशा हमारा साथ देते, एक संयुक्त परिवार में जब घर के सभी सदस्य 4 बजे तक उठ जाते थे तो बाबूजी हमें दो तीन घंटे बाद ही उठाते। मां से सुबह जल्दी उठने के लिए तो कई बार डांट खाई है लेकिन बाबूजी हमें कभी जल्दी नहीं उठाते बल्कि कभी- कभी तो मां को ही डांट देते....
"सोने दे ना मेरी बेटियो को, दिन भर स्कूल से थक कर आई रहती है, थोड़ा आराम करने दिया कर,ज्यादा काम मत कराए कर ! मेरी बेटियां इतनी समझदार तो है ही कि उठ कर तेरे काम में बिना बोले हाथ बंटाती है।" बाबू जी का एक ही मकसद था, अपनी बेटियो को पढ़ाना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना, बाबूजी हमेशा कहते,"काम करना तो जिंदगी भर है लेकिन पढ़ाई इसी उम्र में ही किया जा सकता है। इसलिए तुम लोग जितना चाहो उतना पढ़ो, मै तुम्हारा हमेशा साथ दूंगा।
एक किसान परिवार से होते हुए भी मुझे खेत में काम करने को कभी जोर नहीं देते। तुम्हे पता है ना वो किस्सा, जब पहली बार मै खेत गई थी, बरसात होने की वजह से घर से खेत तक कीचड़ से सने रास्ते थे और तुझे तो पता ही है, मुझे कीचड़ से सने रास्ते में चलना कभी पसंद नहीं था । जैसे-तैसे घर से खेत तक पहुंची थी, कीचड़ और कीचड़ के अंदर रेंगते केचुएं से मुझे कितना डर लगता था, और जब मुझे पहली बार खेत में काम करते के उद्देश्य से मेड़ों के नीचे उतरने को कहा गया तो मेरी हालत उस छोटे से बच्चे के जैसे हो गई थी जिसे घास के मैदान में उतारते ही वह अपने पैर ऊपर कर लेता है और गोद में ही रहने की जिद करता है, क्योंकि उसके पैर के कोमल तलवे के लिए वह घास भी कटीले कांटे सा प्रतीत होता हैं , ठीक वैसी हालत मेरी भी हो गई थी उस दिन। दिन भर मै मेड़ पर ही बैठी रही लेकिन नीचे नहीं उतर पाई और उस दिन के बाद मुझे कभी मां बाबूजी ने खेत में काम करने को जिद नहीं किया ।
5 वी कक्षा तक पढ़े थे बाबू जी। खेती के साथ गांव के व्यापारी उन्हें मुनीम के तौर में अपने पास बुलाते थे। बाबूजी एकदम साफ एवं स्वच्छ कपड़े पहनते थे , सफेद कुर्ता पैजामा मे किसी शाही मुनीम से कम नहीं लगते थे और सोच उतनी ही ऊंची । किसी बेटी की किस्मत में इतने अच्छे पिता हो तो सारी दुनिया की खुशी भी कम पड़ जाए और ऐसी उम्मीद हर बेटी करती है कि उनके पिता उनकी इच्छाओं को सर आंखों पर रखें।अब पिता इतने अच्छे हो तो बेटियां उनके हर उम्मीदों में खरे उतरने की पूरी कोशिश करती है,और कोशिश भी क्यों ना करे, जब पड़ोस की हमउम्र की लड़की स्कूल ना जाए, और उनके पिता समाज के दकियानूसी सोच से उठकर अपनी बेटी को आगे लाए तो बेटी खुद ब खुद प्रेरित होती है, आगे बढ़ने को।
हमारे गांव में एक बहुत बड़े संत महात्मा थे, जो समाज सुधारक के तौर पर भी काम करते थे, गांव में हर साल अच्छे नंबर लाने वालों बच्चो को सम्मानित करते थे, ऐसे ही एक साल मुझे बहुत सारे पुरस्कार मिलने को थे, लेकिन हम सब उस वक्त बुआ घर आए हुए थे। तो पुरस्कार मिलने पर पापा ही समारोह में उपस्थित हुए थे, पड़ोस की काकी घर आ के तारीफ की कश्ती में तैरती तानो के साथ बता रही थी कि "तुम्हारे पापा के पैर तो जमीन में ही नहीं पड़ रहे थे , दौड़- दौड़ के पुरस्कार लेने जा रहे थे ऐसी भी क्या खुशी, बेटी ही तो है, आखिरकार चूल्हा ही तो सम्हालना है।" इतना सुनना था कि मां इतना भड़की थी कि मत पूछो, उस काकी के मुंह महीने भर गुब्बारे जैसे फुले रहे।
तुमने सही कहा मुन्ना, हमने अपना बचपन साधारण बच्चो की तरह ही जिया लेकिन उस वक्त में जब बेटा बेटी में अंतर समाज की मुख्यधारा में शामिल था तब भी बाबूजी ने हमें समाज की परवाह किए बिना , ना केवल अच्छी शिक्षा दी बल्कि हमारे हर कदम में साथ रहे। ये सब मुमकिन हुआ, मां बाबूजी के प्यार और उनकी दूरदर्शिता के कारण और उनके हर कदम मे साथ देने के कारण |जो एक लड़की को आत्मनिर्भर बनाने और उसके भविष्य मे चाहे वह कहीं भी रहे एक माँ, एक पत्नी और एक काबिल इंसान बनाने के लिए काफी था |
तुम्हे भी वैसा ही पिता बनना है जैसे हमारे बाबूजी थे। सुलझे हुए, चारित्रिक, विकास और समय के साथ चलने वाले। और मुझे पता है तुम श्रीजा के हर कदम में साथ निभाओगे, फिर चाहे वह कही भी रहे, तुम्हारा साथ कभी नहीं छूटेगा। खुश रहो!
तुम्हारी बहन
मीनू
४)श्रीजा के आने के बाद.....
अमोल के लिए श्रीजा के आने के बाद से जिंदगी को देखने का नजरिया जैसे बदल सा गया था, वैसे तो अमोल का ऑफिस शहर से थोड़ी दूर गांव में था , इसलिए अनुजा को वह गांव में नहीं रखना चाहता था, इसलिए वह छुट्टियों में ही घर (गृहस्थान) आ पाता था । श्रीजा के आने के बाद से अमोल ने 1 महीने की छुट्टी तो पहले ही लगा रखी थी , तो इन एक महीनों में एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था, अक्सर शाम को अमोल अपने दोस्तो के पास मिलने जाता था, उसका पूरा बचपन उस शहर की तंग गलियों में गुजरा था जहां हर शाम मित्रमंडल का जमावड़ा बैठता था। श्रीजा के आने के बाद से अमोल ने घर से बाहर निकलना ही छोड़ दिए था मानो बस वही उसकी दुनिया हो , वहीं जिंदगी हों, हर वक्त उसके मुस्कुराते चेहरे की तलाश में उसके इर्द गिर्द घूमते रहते, सोती हुई श्रीजा को ऐसे निहारते जैसे उड़ता आया तितली फूलों की सुंदरता को देखकर ठिठक गया हो।
अमोल को जब मौक़ा मिलता वो ऑफिस से बहाना बनाकर जल्दी घर आ जाता। जो पहले, महीने मे सिर्फ 3 से 4 बार घर आते थे, अब पूरी कोशिश रहती कि सप्ताह में ही जब मौका मिले घर की ओर पलायन कर जाए। महीने की पहली तारीख को महीने भर की छुट्टी की प्लानिंग कर चुके होते। 1 दिन(रविवार) की छुट्टी के बाद वापस ऑफिस जाना अमोल के लिए बहुत ही कष्टदायक रहता। अमोल अनुजा को हमेशा बोलते, श्रीजा के साथ वक्त कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता।
अमोल की जिंदगी कैसी बदली थी उसका हिसाब तो उनके फोन कॉल में होने वाली बातों से ही पता चल जाता था, श्रीजा अभी बोलना भी शुरू नहीं की थी और अमोल उसके साथ घंटो बाते करते, फोन कर सिर्फ उसकी आवाज़ सुनने को घंटो बैठे रहते । अब श्रीजा की ऊऊऊ आआआा के अलावा वह कुछ ,बोल भी तो नहीं पाती थी। अनुजा से बाते करते हुए अपनी हर एक कॉल में अंतिम सेकंड तक श्रीजा की ही बाते होती , बाते श्रीजा से शुरू होती और श्रीजा पर ही खत्म होती । अनुजा क्या कर रही , सोई है ? खाना खाई ? आज क्या नया की? कुछ नया शब्द बोली क्या ? देख लेना वो पहले पापा ही बोलेगी । अभी तक सो रही है ? तबीयत तो ठीक है ना? तुम ना अच्छे से ध्यान नहीं रखती , मुझे आने दो फिर हम दोनों खूब खेलेंगे , और ना जाने कितनी सारी बाते सिर्फ श्रीजा के लिए रहती , कभी कभी अनुजा परेशान हो जाती अमोल के एक ही जैसे सवाल से।
"क्या कर रही श्रीजा? "
अनुजा खीज कर कहती !!
"अरे !छोटी सी बच्ची करेगी ही क्या, कि आप हर एक घंटे में एक ही सवाल पूछते हो । वो ना उठ पाती है ना चल पाती है, ना बोल पाती है , और तुम एक ही सवाल पूछ पूछ के परेशान मत किया करो।"और इस तरह प्यारी सी नोक झोंक हो ही जाती , दोनों के बीच।
समय ने पंख फैला के उड़ना प्रारंभ कर दिया और समय के साथ श्रीजा भी बढ़ने लगी । धीरे-धीरे वह चेहरा भी पहचानने लगी थी, नजरों नजरों में अपने पापा को ढूंढती। श्रीजा की द-दा-दा-दा....प-पा-पा.... की छोटी सी कोशिश ने ही घर में रौनक ला दी थी, अब श्रीजा के पहले कदम को कैमरे में कैद करने की ललक ने अमोल को फोटोग्राफर बना दिया था उसके हर एक पल को, संजो कर रखना चाहते थे।जब पहली बार श्रीजा ने यकायक चलना शुरू किया था , अमोल के आंखो में तो वात्सल्य का बाढ़ ही आ गया था।
समय पंछी बन कर उड़ता जा रहा था। छुट्टी के बाद अमोल ऑफिस जाने को तैयार होते तो सुबह से श्रीजा उनके आगे पीछे घूमती, और जैसे ही अमोल ऑफिस जाने को घर से बाहर निकलते , श्रीजा प्यार भरे आंसुओ से ऐसा बवंडर बनाती जिसमे अमोल बिना डूबे नहीं रह पाते । फिर अमोल श्रीजा को मोहल्ले में एक राउंड घुमाते , तब जाकर वह थोड़ा खुश होती और उन्हें ऑफिस जाने देती और कभी- कभी बहुत दिनों तक अगर अमोल घर नहीं आ पाते, तो श्रीजा गुस्से वाले नखरे दिखाती, जिसे पता नहीं उसने इतनी छोटी सी उम्र में कहाॅं से सीखा था। जिस दिन भी अमोल घर आते , श्रीजा उनकी तरफ देखती भी नहीं, ना ही उनके पास जाती।
"श्रीजा मेरा बेटा ! बात नहीं करेगी मुझसे ?"
श्रीजा अनुजा के गोद में अपना मुंह छिपा लेती। जैसे छुईमुई को छूने से वो कैसे शर्म से झुक जाता है, ठीक वैसे श्रीजा मां के आंचल तले छुप जाती। जिस ओर से अमोल उसकी आंखों में झांकने का प्रयास करते ,श्रीजा दुबक कर दूसरी ओर देखने लग जाती। इस प्रकार श्रीजा और अमोल के बीच की ये प्यारी सी नोक झोंक सुबह चलने वाली ठंडी हवाओं की तरह सबके मन को गुदगुदा जाती ।
ऐसी ना जाने कितनी सारी बातें बुन चुके थे अमोल ,उन दिनों में। श्रीजा के आने से अमोल ने सारी पुस्तके रट ली थी कि कैसे एक बच्चे का विकास होता है, कैसे एक-एक गतिविधियां जरूरी होती है बच्चे के दिमाग के विकास के लिए, कैसे एक बच्चा विकास करता है, क्या-क्या पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है। इस बीच उसे कही से "स्वर्णप्राशन" के बारे में पता चला। जिसकी खुराक लेने के लिए वह घर से 200 किलोमीटर दूर जाता था। क्योंकि उसने सुन रखा था कि "स्वर्णप्राशन" आयुर्वेद में 16 संस्कारो में से एक सर्वश्रेष्ठ संस्कार माना जाता है जिसकी चुटकी भर की खुराक एक बच्चे के मस्तिष्क के विकास के लिए बहुत जरूरी होता है। जो सोने के भस्म, शहद और घी से बनाया जाता है इसके सेवन से बच्चे के बुद्धि का तीव्र विकास होता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है । अमोल ने इस तरह की , ना जाने कितने विषय में पीएचडी कर ली थी ।
हर दिन की सुबह के साथ दिन गुजरते गए और देखते ही देखते श्रीजा बड़ी होते जा रही थी। जिस दिन भी पापा घर आने को रहते , वह रह-रह कर दरवाजे की चौखट तक जाकर वापस आती, जब भी किसी भी गाड़ी की आवाज कानों को सुनाई देती , भाग कर अपने छोटे छोटे क़दमों से दरवाजे तक की दूरी को समेटने के चक्कर में कभी गिरती तो कभी सम्हलती । दरवाजे के पास पहुंचते ही पापा को ना पाकर बड़ा सा गुब्बारे जैसा मुंह लेकर वापस आती और अनुजा के आंचल में अपना मायूस सा चेहरा छिपा लेती और तब तक अपना मुंह नही उठाती जब तक दूसरे गाड़ी की आवाज कानों में नहीं गूंजती और जब सच में पापा की आवाज श्रीजा के कानों में पड़ती वह ऐसे उछलती जैसे मोर उमड़ते घुमड़ते बादल को देख कर खुश होता है। भाग कर पापा के पास जाती और फिर उनका पीछा ही नहीं छोड़ती। अमोल उसे गोद में लेकर पुचकारते, प्यार करते और फिर शुरू होता श्रीजा और अमोल का प्यारा सा पल, जिसमे हर कोई होते हुए भी सिर्फ वे दोनों ही होते।
उसके हर एक पल को संजो कर रखा था अमोल ने!10-20 साल बाद की प्लानिंग भी अमोल ने इन कुछ सालो में कर लिया था, श्रीजा के भविष्य के लिए सारी जरूरत की सूची बन के तैयार थी, जैसे जैसे बच्चा बढ़ता है,माता पिता की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है और उनके सपनो का दायरा भी दिन ब दिन बढ़ता जाता है, श्रीजा को ,मै ये सिखाऊंगा,श्रीजा को मै ऐसे बनाऊंगा, श्रीजा के लिए कितनी बचत करके रखनी है, या श्रीजा के भविष्य के एक-एक पल को वह कैसा बेहतर कर सकते है इसके लिए हर संभव प्रयास करने की पुरजोर कोशिश करते ताकि उसे किसी चीज की परेशानी ना हो ।
समय गुजरता गया और श्रीजा भी बढ़ती गई,दोनों के बीच का रिश्ता और गहरा होता गया। श्रीजा अब स्कूल जाने लगी थी, और बातूनी इतनी कि, हर रोज पापा को अपने स्कूल की सारी बाते बताती, आज मैंने ऐसा किया, आज मुझे मैडम ने वेरी गुड कहा, आज मेरी वो दोस्त ,निष्ठा ने मुझे मारा पापा, आप कब आओगे पापा.....?
पापा के घर आते ही श्रीजा किचन से पानी लाने का जिद करती, खेलते खेलते जब भी किचन में जाती और अनुजा को रोटी बनाते देखती, वो पापा के लिए छोटे- छोटे अलग-अलग देश का नक्शा लिए रोटी बनाने की जिद करती, दोनों की जुगलबंदी देख अनुजा श्रीजा को चिढ़ाती -
"दिनभर तो मम्मी मम्मी करती है, पापा के आते ही मम्मी को भूल जाती है"और श्रीजा झेंप कर अपना चेहरा छुपा लेती। श्रीजा की मुस्कान और उसकी आंखों की चमक अमोल के आते ही बढ़ जाती।
श्रीजा के अनुजा और अमोल की जिंदगी में आने से हर पल खुशियों से गुलजार होती जा रही थी। उनकी खुशी का कारण श्रीजा थी , जो श्रीजा से शुरू होती और श्रीजा पर ही खत्म होती। वहीं श्रीजा के लिए जिंदगी का दूसरा नाम , उसके मम्मी पापा थे।
(५) विश्वास और वादे की डोर....
ऐसी ही एक सुबह जब श्रीजा उठी तो अनुजा के साथ घर के अन्य सदस्य में, आज कोई भी खुश दिखाई नहीं दे रहा था, सबके माथे में चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही थी। कोई श्रीजा से नजरें मिला के बात नहीं कर रहा था, हर कोई अमोल के दोस्त और उनके ऑफिस स्टाफ से ही फोन में बात कर रहे थे। श्रीजा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, क्योंकि जैसे ही वह घर के अन्य सदस्य के पास जाती, तो वे चुप हो जाते, जैसे कोई बात छुपाई जा रही हो। कल रात को ही तो पापा से बात हुई थी, वह आज आने वाले थे इसलिए श्रीजा कुछ ज्यादा ही खुश थी जिसे वह कभी उछल कर तो कभी मुस्कुरा कर जाहिर कर रही थी, लेकिन उसके अलावा कोई भी खुश नहीं दिख रहा था। बाहर गेट में गाड़ी आके खड़ी हो चुकी थी, श्रीजा को ये पता था कि जब भी कहीं घूमने जाना होता है, ड्राइवर भैया कुछ देर पहले से ही गाड़ी खड़ी कर देते है। घर में सब जल्दी में थे, हर कोई श्रीजा को तैयार करने की बात कर रहे थे लेकिन श्रीजा तो इसी आशा में बैठी थी कि आज वह घर से कही नहीं जाएगी, पापा आएंगे तभी घूमने जाएगी, वो भी सिर्फ उनके साथ। इसलिए श्रीजा अपनी हठ में थी कि वह तो कहीं नहीं जाएगी ।
मम्मा ! पापा को तो आने दो....फिर हम लोग साथ में जाएंगे, मै उनके बिना कही घुम्मु नहीं जाऊंगी , इसलिए तुम मुझे जिद मत करो, मै कही नहीं जाऊंगी । पापा ने कल रात को ही वादा किया है कि हम दोनों आज गार्डन जाएंगे , और वहां से चौपाटी जाएंगे फिर पापा मुझे वहां की दही गुपचुप खिलाएंगे और मै आप लोगो के साथ अगर चली गई तो पापा के साथ आज का प्लान तो खराब हो जाएगा ना, फिर उनको बहुत बुरा लगेगा। वैसे भी हम दोनों अपना कोई वादा नहीं तोड़ते। इस छुट्टी में तो पापा ने वादा किया है कि वह मुझे झील दिखाने ले जाएंगे। सब प्लान पहले से ही तय है अब अगर मै आपके साथ चली गई तो पापा का आज का दिन तो बेकार हो जाएगा। श्रीजा बिना कुछ सुने बोलती जा रही थी और अनुजा उलझनों के बवंडर में डूबती जा रही थी।
सुबह किसी अनजान नंबर से अनुजा के पास फोन आया था कि अमोल का एक्सिडेंट हो गया है, हम उन्हें पास के हॉस्पिटल में ले जा रहे है, आप लोग जल्दी से आ जाइए। अमोल ने कल रात बताया तो था कि वे सुबह 6 बजे घर के लिए निकलेंगे ।
उस फोन कॉल के आने के बाद से अनुजा के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था , मन के दरवाजे में हजारों बुरे ख्यालात बिना अनुमति के प्रवेश किए जा रहे थे, जिसे ना चाहते हुए भी वह काबू नहीं कर पा रही थी । दूसरी ओर वह श्रीजा को वास्तविकता बता भी नहीं सकती थी , क्योंकि पिछली बार जब अमोल की तबियत खराब हुई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था तो श्रीजा इतनी डर चुकी थी कि उसे बुखार आ गया था। तब से लेकर घर में किसी को भी हॉस्पिटल ले जाते थे तो श्रीजा काफी डरी-सहमी सी रहती। पता नहीं इस बालमन में उसने ऐसा क्या देखा और सोचा था कि वह सबको अपने आस पास ही देखना चाहती और घर में किसी की भी तबीयत खराब होने पर वह उनका बहुत ध्यान रखती।
श्रीजा थी तो 6 साल की। लेकिन बहुत सारी बाते ऐसी कह जाती कि अनुजा और अमोल सोचने को मजबूर हो जाते कि इतनी छोटी सी बच्ची की बातो में इतना ठहराव कहाॅं से आ गया है। वह दूसरे बच्चो की तरह कभी जिद नही करती थी, घर में चाहे कितना भी तनाव हो , श्रीजा के आसपास होने से छूमंतर हो जाता। अमोल की दिन भर की थकान एक मिनट में छूमंतर हो जाती, जब श्रीजा दरवाजे में खड़ी होकर उनका इंतजार कर अक्सर कहती , "मम्मी! पापा क्यों नहीं आ रहे, मम्मा पापा को ऐसी नौकरी करने बोलो ना, जिसमे वो हमेशा हमारे आस पास रहे, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप दोनों हमेशा मेरे साथ रहो, आप दोनों साथ रहते हो तो मुझे किसी चीज का डर नहीं लगता।"
इधर घर में सबके सब्र का बांध टूटता जा रहा था।आखिरकार अनुजा ने हिम्मत जुटा कर प्यार से श्रीजा को बुलाया, उसके माथे में प्यार की थपकी देकर कहा
"चलो बेटा, पापा के पास जाना है, उन्होंने हमें बुलाया है ।"
इतना सुनते ही श्रीजा उछल पड़ी और पापा से मिलने की उमंग ने उसकी आंखो में चमक ला दी।
"अच्छा पापा के पास जा रहे, ऐसा बोलो ना मम्मी। "चलो चलते हैं करके गाड़ी में ऐसे चहकती हुई बैठ गई, जैसे सहसा उनकी कार रॉकेट बन कर लांच होने वाली है और अगले ही क्षण वह अपने पापा की गोद में रहेगी।
खैर! श्रीजा अकेली मुस्कुराते चेहरे के साथ उन सभी मुरझाए हुए फूलों के बीच दुबक कर बैठ गई। धीरज भरी नज़रे अनुजा को बैचेन करती जा रही थी,रास्ते भर हजारों उल्टे सीधे ख्याल बनते, बिगड़ते जा रहे थे। अनुजा थी तो बहुत समझदार लेकिन अमोल का साथ उसे परिपक्वता की ओर ले जाता था। दोनों को घूमना बहुत पसंद था, इसलिए दोनों ने निर्णय लिया था कि हर साल कुछ दिन का ब्रेक लेंगे और उस समय में, सिर्फ़ घूमेंगे, फिर जब श्रीजा हुई तो अनुजा और अमोल ने अपना बहुत सा प्लान कुछ साल के लिए टाल दिया था। अनुजा सुलझी हुई, चुलबुली,हंसमुख स्वभाव की महिला थी , उसने अमोल के साथ रहते हुए ना जाने कितनी भविष्य की योजनाएं बना ली थी। डायरी के पन्नों में दर्ज सपने अपने पैर पसारते जा रहे थे, कुछ पूरे हो रहे थे तो कुछ मुट्ठी से फिसलते रेत की तरह छूटते जा रहे थे।
वहीं श्रीजा कार की खिड़की से बाहर झांकते हुए अपने मन में हजारों विचारो को लेते हुए अपने पापा को याद कर रही थी। पिछले जन्मदिन में उसने एक कबूतर लेने की इच्छा जाहिर की थी,"कि पापा, मुझे एक कबूतर चाहिए"
श्रीजा के खातिर उसने अनुजा के मना करने के बावजूद जन्मदिन की सुबह कबूतर लाकर श्रीजा को सरप्राइज दिया था। इस पर अनुजा ने श्रीजा को बहुत डांट लगाई थी, लेकिन अमोल ने यह कह कर चुप करा दिया था कि ये तो मेरा बचपन का सपना था कि एक कबूतर रखूं, जो बचपन में चाहते हुए भी नहीं रख पाया था ।अब मेरी बेटी को भी चाहिए था तो इसके कहने पर अपने आप को रोक नहीं पाया और मेरा सपना भी पूरा हो गया इसलिए तुम श्रीजा को मत डांटो।
अमोल कभी श्रीजा को नहीं डांटते, उसकी गलती में प्यार से समझा देते," नही बेटा, ऐसा मत करो।" और श्रीजा झट मान भी जाती लेकिन इसके अलावा किसी की नहीं सुनती।
जब भी अनुजा किसी बात पर श्रीजा को डांटती , अमोल गुस्सा हो जाते, क्यों मेरी बेटी को डांटते रहती है फिर श्रीजा के साथ अमोल भी कोपभवन में चले जाते (गुस्सा हो जाते)। अब अनुजा के लिए श्रीजा को मनाने से ज्यादा कठिन काम होता अमोल को मनाना।
आखिरकार गाड़ी रुकी। श्रीजा ने बाहर देखा तो समझते देर नहीं लगी कि वह हॉस्पिटल के बाहर खड़ी थी। उसने मासूम कोशिश की जरूर, कि कुछ मम्मी से पूछे लेकिन अनुजा ने केवल ये कह कर बात टाल दिया कि यहां चुप रहो और मेरे साथ ही रहना। जब आप ऐसी जगह होते हैं जहां घुसते ही अजीब सी बैचेनी होने लगती है जैसे कुछ छूट रहा तो वहां मौजूद रहते हुए भी आप गुम हो जाते हो, और आपकी आवाज भी तब तक गुम हो जाती है जब तक कोई आपकी आवाज को आवाज ना दे दे। फिर, श्रीजा तो थी ही इतनी छोटी, कि उसकी आवाज घने जंगल में आग के बीच जलते हजारों छोटे-छोटे कीटो की उठी चीख की तरह गुम होते जा रही थी।
जैसे-जैसे दोनों अंदर जा रहे थे, उनके दिल की धड़कन तेज होते जा रही थी , जिसकी आवाज श्रीजा के धड़कन और अनुजा के धड़कन के साथ कदम ताल करते हुए तेज गति से चलने को आतुर थे। हॉस्पिटल के रिसेप्शन में पहुंचते ही अनुजा ने लंबी सांस ली और अमोल का नाम लेते हुए उनके बारे में जानने की कोशिश करने लगी।उनका रूम नंबर पूछा और दूसरे ही पल वह उस रूम के दरवाजे में थी। जो अंदर से बंद था, सामने एक भैया बैठे हुए थे, जिन्होंने उन्हें रुकने को कहा और डॉक्टर से पहले, मिलने को कहा । अनुजा ने श्रीजा को वहीं बैठाया और चुप रहने का कह कर आगे की ओर बढ़ती चली गई। अनुजा भारी कदमों के साथ आगे बढ़ती रही और डॉक्टर के रूम के सामने जा पहुंची। डॉक्टर अभी राउंड में गए थे इसलिए उसे बाहर ही इंतजार करने को कहा गया।
एक एक पल काटना जैसे पहाड़ चढ़ाई जितना कठिन लग रहा था, उसकी बैचेनी धीरे धीरे उसके चेहरे को मुरझाते जा रहा था, सामने बरामदे के दूसरी ओर गणेश जी की मूर्ति स्थापित थी, जो अनुजा ने आते हुए देखा था, अनुजा की बैचेनी इतनी थी कि वह कुर्सी में बैठे पैरों को हिला नहीं पा रही थी जो एकदम सुन्न पड़ते जा रहे थे, इसलिए कुछ मिनट बाद वह उसी बरामदे में टहलने लगी, गणेश जी की मूर्ति तक जाकर वापस डॉक्टर के रूम के पास आकर,फिर वापस मंदिर की ओर अग्रसर होने को मजबूर होती जा रही थी। मन में हजारों सवाल भेदते जा रहे थे, क्यों बुलाया होगा , कैसे होंगे अमोल, नहीं.... ठीक होंगे यार। "ऐसा मत सोच तू, क्या क्या सोचते रहती है, भगवान पे भरोसा कर, सब ठीक होगा..... प्लीज भगवान, रक्षा करना , श्रीजा के पापा का!!!!!!!!!!
अचानक डॉक्टर को आते देख वह उम्मीद को समेटते हुए आगे बढ़ी, कुछ समय बाद वह डॉक्टर के सामने बैठी थी,
लंबी सांस लेते हुए उसने अमोल का नाम लेते हुए परिस्थिति को समझने की कोशिश करने की हिम्मत जुटाने लगी।
"अच्छा अमोल .... आप उनकी.....?
"मै उनकी पत्नी हूॅं "
"अच्छा"...... डॉक्टर ने रिपोर्ट की कॉपी को ध्यान से देखते हुए कहा
"क्या हुआ है डॉक्टर साहब! एनी थिंग सीरियस"??
"अभी तो नहीं बता सकता, कुछ टेस्ट करना बाकी है उसके बाद ही क्लियर कुछ बता पाऊंगा "
खून बहुत बह चुका है.... अंदरुनी चोट हो सकती है... एक बार टेस्ट हो जाए तभी स्थिति समझ आ सकती है...
उसके बाद डॉक्टर ने क्या कहा, अनुजा ने क्या सुना, क्या समझा, क्या जाना... सब गहरे कुएं में कही खो सा गया....
रूम से बाहर निकलते ही अनुजा खुद को सम्हाल नहीं पाई, आंसुओ की धारा और दबाती हुई सिसकियां दीवारों को भेद कर वापस उसकी ओर लौट कर आ रही थी। वह बहुत देर तक रोई... बहुत देर तक होश नहीं था उसे....
मन के एक कोने में अचानक श्रीजा ने आवाज लगाई और अनुजा भाग खड़ी हुई उसकी ओर......
"समय खुद में इतना बलवान होता है कि भविष्य की योजनाओं और वास्तविकता को मिलाने में कोई ना कोई खेल जरूर खेलता है कभी उनकी कल्पनाओं को साकार रूप दे देता है तो कभी कल्पना को कल्पना के आकाशगंगा में ही छोड़ देता है। कल्पना और वास्तविकता का मिलना बहुत कम खुशकिस्मत लोगो के नसीब में होता है, हर की किस्मत में ये मिलन होने लगे तो दुनिया में हमेशा सुखद अंत ही हो।"
(६) विश्वास और हकीकत के बीच श्रीजा....
श्रीजा अभी भी उस हॉस्पिटल की चेयर के एक कोने में दुबक कर बैठी थी।
श्रीजा को अब तक समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, वह ना कुछ बोल पा रही थी, ना ही कुछ समझने की हालत में थी।
"कान्हा, प्लीज मेरे पापा की रक्षा करना, वह ठीक होंगे ना?? उन्हें जरूर छोटी बीमारी होंगी, तभी तो उन्होंने हमें यहां बुलाया है, पापा हमेशा ऐसी करते है, पिछली बार भी इसी शहर से तो ट्रेन ली थी, मुझे लगता है, यहां से इंजेक्शन लगा के आज ही हम लोग घूमने जाने वाले होंगे। आज की ही ट्रेन होंगी। जरूर कोई अच्छा सरप्राइज होगा । वैसे भी सरप्राइज देना तो पापा को बखूबी आता है, ऐसी ही बात होगी, है ना कान्हा!!! चलो अच्छा है, मै भी पापा की ही बेटी हूॅं, इंतजार करते है।।। वैसे भी कल ही तो बात हुई थी उनसे।"प्लीज भगवान रक्षा करना मेरे पापा की" मन ही मन श्रीजा बुदबुदाती रही।
इसी बीच श्रीजा ने अनुजा को आते हुए देखा....
दूर से मम्मी को आते देख दिल की धड़कन कदमों को तेज करने की मांग बन चुकी थी ,दौड़ कर मम्मी से लिपट गई। क्या हुआ मम्मा! पापा कहां है, कही दिख नहीं रहे।
अनुजा कुछ बोलती उसके पहले ही घर के अन्य सदस्य हॉस्पिटल के गेट से आते हुए दिखे, लगभग श्रीजा को नजर अंदाज करते हुए दौड़ती हुई वह परिवार के अन्य सदस्य के पास गई और उन्हें रोते हुए सब कुछ बता डाला, उस वक़्त उसे होश नहीं था कि श्रीजा ये बात सुन रही थी। सहसा पानी के ऊपर उछली हुई मछली श्रीजा के मन को भांप कर तड़प कर वापस उस जल में डूब गई और पलट कर श्रीजा को गले से लगा लिया।
"कुछ नहीं हुआ है तेरे पापा को, श्रीजा"
डॉक्टर अंकल ने कहा है,वो उन्हें जल्दी ठीक कर देंगे। तुम मेरी बहादुर बच्ची हो ना!
पापा की ताकत बनना है, कमजोरी नहीं"
है ना!!
और कुछ समय के लिए सब कुछ वही थम सा गया.....
आने वाला पल काल के वश में था और कोई कुछ भी सोचने समझने की हालत में नहीं था। श्रीजा को पूरा विश्वास था कि उसके पापा जरूर ठीक हो जाएंगे, अनुजा हॉस्पिटल के उस रूम के बाहर वाली कुर्सी में चुपचाप बैठी हुई थी, श्रीजा उसके ठीक बाजू में बैठ कर अपने मन को समझा रही थी ....
"कल रात को तो पापा ने कितने वादे किए थे, आज तक ऐसा हुआ है कि वह अपना वादा पूरा ना करे इसलिए वो जल्दी ठीक होकर हमारे साथ चलेंगे । हे कान्हा ! मेरे पापा को जल्दी ठीक कर दो, मै फिर कभी कोई गलत काम नहीं करूंगी। "
हर पल की बैचेनी धीरे धीरे विकरार रूप लेते जा रहीं थीं अनुजा का धैर्य भी जवाब देने लगा था, उसे टूटता देख श्रीजा ने मम्मी की ओर देखते हुए कहा
"मम्मी, परेशान मत हो, डॉक्टर अंकल है ना! वो सब ठीक कर देंगे। सुनो ना मम्मी, आप और पापा तो हमेशा कहते हो ना.... अच्छे लोगो के साथ हमेशा अच्छा होता है, भगवान भी उसी का साथ देता है, जो अच्छा होता है इसलिए आप परेशान मत हो, सब कुछ ठीक होगा। हम तो हमेशा सही रास्ते में चलते है , आप और पापा कितने अच्छे हो, तो अच्छे लोगो के साथ कभी बुरा हो ही नहीं सकता।
दादी भी तो कहती है ना कि ,जो होता है अच्छे के लिए होता है,भगवान जो करता है, सही करता है ,तो उसे अच्छे से पता है पापा के हमारे साथ रहने से ही हमारा अच्छा हो सकता है।पापा हमारी जिंदगी है, इसलिए वह पापा को जरूर ठीक करेंगे इसलिए आप ज्यादा परेशान मत हो। मुझे अपने कान्हा पर पूरा भरोसा है, वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालता। इसलिए आप मेरे कान्हा पर भरोसा रखो, वह सब कुछ ठीक करेगा मम्मी।
अनुजा स्तब्ध थी ।
अपनी श्रीजा के मुख से ऐसी बाते सुन कर। उसने कस कर श्रीजा को गले लगा लिया, और कहा...
"हाॅं बेटा! ईश्वर है ना, तेरे पापा को कुछ नहीं होगा।"
अगले दो दिन बैचनी और विश्वास के बीच की लड़ाई थी, सब को विश्वास था कि श्रीजा का विश्वास नहीं टूटेगा लेकिन दूसरे ही दिन उसका विश्वास टूट जाता है। टूट जाता है ,वो सारा भ्रम, जो उसने अब तक अपने मन में संजो कर रखा था। टूट जाता है वो आस, जो उम्मीदों के छांव तले बुना गया था।